Tuesday, August 13, 2013

भाजपा बनाम कांग्रेस

आजादी के बाद की राजनीति का इतिहास उसका धंधे में तब्दील होते चले जाने का इतिहास है, जिस तरह सभी प्रकार के धंधों में पेशेवर मूल्यों की जरूरत नहीं समझी जाने लगी है, उसी प्रकार राजनीतिक धंधे से तो मूल्य सिरे से ही गायब हो गये हैं। इसके लिए कांग्रेस को दोषी मानें या भारतीयों की फितरत को, सर्वे और शोध का विषय हो सकता है। भारतीयों के जिक्र को हीनभावना ना मानें। दुनिया के कई देशों में हमारे यहां से भी बदत्तर हालात है, चूंकि भारतीय सन्दर्भ से बात की जा रही है सो उल्लेख भारतीयों का किया है। रही बात कांग्रेस की तो आजादी बाद देश में और देश के अधिकांश प्रदेशों में राज कांग्रेस का रहा सो कह सकते हैं कि पेशेवराना मूल्यों को बचाये रखने की एक जिम्मेदारी कांग्रेस की भी थी। जिसे उसने नहीं निभाया। अन्य सभी पार्टियां आजादी के बाद लम्बे समय तक लगभग क्षेत्रीय पार्टियों की हैसियत में रही। सन् 1967 में कांग्रेस विरोध की लगभग देशव्यापी गोलबन्दी और आपातकाल के बाद सन् 1977 में कांग्रेस को सत्ताच्युत करने का आत्मविश्वास विरोधी पार्टियों में बना, लेकिन वे इसे लम्बे समय तक सहज नहीं पाए। पार्टियों के कई ताेड़े-भांगो के बाद पुरानी जनसंघ भारतीय जनता पार्टी के रूप में अस्तित्व में आई। इस कायान्तरण और हिन्दी पट्टी में थोड़े-बहुत संघीय आधार के बावजूद व्यावहारिक राजनीति में वह कुछ खास नहीं कर पायी। संघ और भाजपा की अपनी धारणाएं और तथाकथित मूल्य संभवतः बनावटी हैं या भारतीय उपमहाद्वीप की सनातन तासीर के अनुकूल नहीं है। शायद इसीलिए जनसंघ और शुरुवाती भाजपा व्यावहारिक राजनीति में कुछ खास हासिल नहीं कर पाए। अपना कुछ मौलिक ना होने या सनातन तासीर के अभाव में डाफाचूक भाजपा को अपनी स्थापना के शुरू में इतनी ही समझ आयी और कांग्रेस को बेदखल करने और उसका विकल्प बनने की हड़बड़ी में उसी के लक्षणों पर चलने लगी। हुआ यह कि भाजपा राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ की गैर-भारतीय और गैर-सनातनी पूर्वाग्रहों और कांग्रेस की बुराइयों की भद्दी पैरोडी बन कर रह गई। साम्प्रदायिक और उग्र हिन्दूवाद के पोषण के अलावा भाजपा की स्थिति हास्यास्पद होने के और भी कई कारण गिनाए जा सकते हैं। जिनमें भ्रष्टाचार, राजनीति का अपराधीकरण, चुनावी प्रलोभन और धांधलियां आदि-आदि में खुद के लिप्त होते चले जाने के बावजूद सीनाजोरी की हद तक इन्हीं मुद्दों पर कांग्रेस को आए दिन कठघरे में खड़ा करने की जिद्द प्रमुख है। इस तरह का विश्लेषण करने के ये मानी कतई नहीं निकाले जाने चाहिए कि इन्हीं मुद्दों पर कांग्रेस को बरी किया जा रहा है। बल्कि भ्रष्टाचार, राजनीति के अपराधीकरण और चुनावी धांधलियों के मामले में कांग्रेस इसलिए ज्यादा गुनहगार है क्योंकि इन बुराइयों के विकराल तल तक गिरते जाने में अवरोधक बनना तो दूर कांग्रेस ने ना केवल अनुकूलताएं उपलब्ध करवाई बल्कि स्वयं भी रस लेने लगी।
भाजपा की हास्यास्पद छवि या भोंडेपन का एक कारण उसमें बौद्धिकता का अभाव है तो इसी बौद्धिकता के अभाव औरसंघीयदुराग्रहों के चलते एक झूठ को छिपाने के लिए कई झूठ घड़ने और फिर तर्काभाव में कुतर्कों की कड़ियों को तलाशते रहना ही है।
व्यावहारिक राजनीति में वह सब होने लगा है जो ना केवल घोर अमानवीय है बल्कि राजनीतिक दलों का सारा कार्य-व्यापार इस जगत के चर और अचर के लिए घातक और भारतीय सनातन मूल्यों के खिलाफ भी है। इसलिए यह समझना कि वर्तमान का कोई राजनीतिक दल किसी अन्य दल का विकल्प हो सकता है, भूल होगी और ऐसा मानना भ्रमित होना होगा।
विकल्प की आकांक्षा सचमुच है तो पहले खुद समाज को बदलना होगा, मानवीय मूल्यों की स्थापना करनी होगी और जो प्रत्येक जिस धर्म (ड्यूटी) में लगा है उसे वह पूरी निष्ठा और ईमानदारी से पूरा करना शुरू करें। तुरन्त परिणामों की आकांक्षा ना रखें। प्रत्येक सुधरेगा तो समाज सुधरेगा और समाज के सुधरने पर ही राजनीति साफ-सुथरी होगी। वर्तमान के किसी धर्मगुरु और बाबाओं से उम्मीदें पालना खाई से निकलकर कुएं में गिरना होगा। इनमें से अधिकांश धंधेबाज हैं और जैसा शुरू में कहा कि सभी धंधे मूल्यहीनता से चलाए जाने लगे हैं तो धर्मगुरुओं और बाबाओं के धंधे इससे अछूते कैसे रह सकते हैं।

13 अगस्त, 2013

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