Monday, April 8, 2013

योजनाओं का जरूरतमंदों को कितना लाभ


लगता है सूबे के मुखिया अशोक गहलोत अपने इस कार्यकाल के उत्तरार्द्ध में कोई कसर नहीं छोड़ना चाहते। उन्हें इन दिनों लोककल्याणकारी योजनाओं और ढेरों नौकरियों की पोटली उठाए देखा जा सकता है। मुफ्त दवाइयों की योजना के बाद रोगों के निदान के लिए मुफ्त जांच की योजना भी सूबे में कल शुरू हो गई है। लेकिन जरूरतमन्दों तक इन योजनाओं का लाभ पहुंचे उसकी कोई चाक चौबन्द तैयारी नहीं दीख रही है। सभी स्तर के अस्पतालों में डॉक्टरों, नर्सों, तकनीकी और अन्य कर्मचारियों की कमी लम्बे समय से है। जितने भी वर्तमान में सेवाओं में हैं उनमें से अधिकांश की मंशा ड्यूटी की खानापूर्ति में ज्यादा है। ऊपर से कोढ़ में खाज यह कि इन योजनाओं को क्रियान्वित करने की पांती आई जिम्मेदारियॉं भी इन्हीं पर गई हैं। यद्यपि आम जरूरत के सभी महकमों में सभी तरह की नौकरियों की घोषणाएं भी मुख्यमंत्री ने की है। लेकिन इन पदों को भरे जाने में कई तरह की अबखाइयॉं हैं जिनमें मुख्य न्यायालय के स्थगन आदेश भी हैं। सरकार विरोधी यह प्रचारित भी करने लगे हैं कि न्यायालयों के स्थगन भी सरकार के आदमियों की ही कारस्तानियां हैं। विरोधियों का कहना है कि इस तरह सरकार नौकरियों की घोषणा करके वाहवाही भी ले रही हैं और स्थगन के चलते नौकरियां भी नहीं दे रही।
सरकार की मंशा ऐसी लगती तो नहीं है। नागरिकों में बढ़ी न्यायिक जागरूकता के साथ यह मानसिकता भी पनपी है किमुझे नहीं मिल रही है तो दूसरों को भी क्यों मिले एक बात और भी है। सरकारी क्षेत्र के अधिकारियों और कार्मिकों की कार्य में दक्षता की कमी भी इसका बड़ा कारण है। किसी भी कार्य कोफुल प्रूफकरने की आदत कम होती जा रही है। जितनी समझ है उसके हिसाब से कार्य को आगे खिसका दो, होगा जैसा देखा जायेगा, अधिकांशतः ऐसी ही मानसिकता से काम हो रहा है। इस तरह से काम करवाने में राजनीतिज्ञों के भी अपने स्वार्थ सधते हैं।
काम में दक्षता की कमी का खमियाजा मुफ्त जांच जैसी योजनाओं को भी भुगतना होगा। कमीशनखोर डॉक्टरों ने लम्बे समय से पहले ही कहना शुरू कर रखा है कि सरकारी जांचें विश्वसनीय नहीं हैं। सुना जाता है कि यह कहलवाने के लिए निजी लेबोरेट्रियॉं इन डॉक्टरों को साठ प्रतिशत तक रिश्वत कमीशन के रूप में देती हैं। डॉक्टर शत-प्रतिशत झूठ बोलते हों ऐसा भी नहीं है। सरकारी लेब के कर्मचारियों में अपनी ड्यूटी के प्रति लापरवाही अकसर देखी गई है। ऐसी लापरवाहियां निजी लेबों में भी होती हैं पर सरकारी से कम। ऐसी लापरवाहियों के चलते ही जांच के उपकरण आये दिन खराब पाये जाने लगे हैं। होता यह भी है कि कुछ उपकरणों को जानबूझकर तो कुछ जरूरी सारसम्हाल के अभाव में खराब हो जाते हैं। जिम्मेदारी के भाव के अभाव के इन परिणामों को इसलिए भी भुगतना होगा क्योंकि सार्वजनिक जिम्मेदारी का भाव आजादी बाद से ही लगातार कम हो रहा है और अब तो जिम्मेदारी के इस भाव को कई जगह लगभग नदारद ही पाते हैं।
बावजूद इसके मुख्यमंत्री यदि अपने कार्यकाल की शुरुआत में नौकरियां खोल देते तो दो-तीन साल में अधिकांश पदों पर भरती हो जाती, और अपने कार्यकाल के दूसरे-तीसरे साल ही इन लोककल्याणकारी योजनाओं का आगाज कर देते तो विरोधी वसुंधरा की सुराज यात्रा में इतनी रंगत नहीं देखी जाती।
8 अप्रैल, 2013

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