Wednesday, April 10, 2013

सरकारी महकमों में आए दिन की बदमजगियां


आमजन का वास्ता जिन सरकारी दफ्तरों से आए दिन पड़ता है, उनमें से पुलिस थानों या ऐसे ही महकमों को छोड़ कर गाहे-बगाहे बदमजगियां होने लगी हैं। पुलिस थानों से लोगबाग वैसे भी बचे रहने की कोशिश में रहते हैं। थाने जाने की कोई मजबूरी भी जाए तो वहां वे दबे मिजाज ही जाते हैं। लोगों के आक्रोश का सबसे आसान लक्ष्य फिलहाल अस्पताल बने हुए हैं। जिला रसद अधिकारी और जिला परिवहन अधिकारी जैसे कार्यालय भी लोगों को संभवतः छोटे थानों जैसे ही लगते हैं। शायद इसीलिए वहां की बदमजगियों समाचार सुनने-पढ़ने को नहीं मिलते। नगर विकास न्यास और नगर निगम जैसे स्थानीय निकायों के दो ऐसे महकमे है जहां आम आदमी को जरूरत अनुसार धोक देनी होती है। लेकिन दोनों महकमों में आक्रोश निकालने का आसान लक्ष्य नगर निगम शायद इसलिए हो गया है कि उसे जनता के चुने प्रतिनिधि संचालित करने लगे हैं और नगर विकास न्यास में वह इसलिए बर्दाश्त कर लेते हैं कि वहां उसका चुना आदमी नहीं बैठता है। कहने को तो न्यास अध्यक्ष पद पर भी बीच-बीच में कोई तथाकथित पहुँच वाला जन प्रतिनिधि जाता है, चूंकि वह ऊपर से टपक कर आता है इसलिए आमजन उनके साथ अपने को सहज महसूस नहीं करता। अधिकांश समय तो इस पद पर जिला कलक्टर ही पदासीन होता है। इसलिए भी न्यास दफ्तर की दीवारों से आमजन सहमा-सहमा ही रहता है।
स्थानीय निकायों में नगरपालिका, नगर परिषद और नगर निगम में जबसे चुनाव जरूरी हो गये हैं तब से आम-अवाम की उम्मीदें भी हिलोरे खाने लगी हैं। वह तो पार्षदों और महापौर का बचाव इस कारण है कि कोटा प्रणाली के चलते उनके लगातार दूसरे कार्यकाल की संभावना नहीं होती। अगर होती तो दूसरे कार्यकाल के लिए चुन लिए जाने की उम्मीद में ये पार्षद-महापौर अपने वोटरों के भारी दबाव में रहते। फिर भी चूंकि उन्होंने चुना है इसलिए दाता भाव की हेकड़ी में मिश्रित उम्मीदें तो उनकी खड़ी रहती ही हैं। इन दफ्तरों के दफ्तरियों और अफसरों की आदत में यह शामिल हो गया है कि या तो वे काम मुस्तैदी से करते नहीं और करते भी हैं तो तब जब कुछ लिया दिया जाय। इसके बाद भी वे तत्परता से काम को सही अंजाम दे देंगे गारन्टी नहीं है। उनकी यह भी कोशिश होती है कि भला आदमी कोई चुन कर भी गया तो वह या तो दूसरों जैसा हो जाय या उनके कहे-कहे चले। इन सबके चलते स्थानीय निकायों का मुख्य संवैधानिक उद्देश्य सत्ता के विकेन्द्रीकरण की सार्थकता ही समाप्त हो गई है।
कई दिनों से धरने पर बैठे सालमनाथ धोरे के बाशिन्दे सुनवाई नहीं होने पर उकता कर दो दिन पहले नगर निगम के दफ्तर पहुंच गये, कुछ बदमजगी की और कुछ तोड़ा भांगी भी कर दी। होना तो यह चाहिए था कि महापौर समय रहते उनकी सुनते और अगर किसी की शिकायत या मांग जायज है तो उसका समाधान निकालते। लेकिन जायज-नाजायज की जांच भी ऐसे मामलों में इसलिए नहीं होती है कि इन स्थानीय निकायों की खाली जमीनों की कोई दफ्तरी सार-सम्हाल तो है नहीं, कब्जे होने शुरू होते हैं तो कोई जाकर देखता नहीं और देखता भी है तो अनदेखी कर देता है। ऐसे आक्रोशियों में कोई भूमाफिया नहीं है या किसी ने कब्जों को धंधा नहीं बना रखा हो, ऐसे का घर उजड़ता है तो लोकतान्त्रिक व्यवस्था पर सवाल तो खड़े होंगे ही।
10 अप्रैल, 2013

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