Friday, April 5, 2013

नहीं चेते तो यूं हीं भुगतेंगे


कल शहर में निजी स्कूल के एक छात्र की डूबने से मौत हो गई। आठवीं कक्षा के ये विद्यार्थी स्कूल की ओर से हुसंगसर कैनाल हेड पर पिकनिक मनाने गये थे। कहा जा रहा है कि दो छात्र नहर में गिर पड़े, एक को बचा लिया गया, दूसरे की मौत हो गई। सरकारी स्कूलों का हाल छठे वेतन आयोग की तनख्वाहों के बाद भी जस का तस है। इन स्कूलों में अपने बच्चों को पढ़ने भेजने वाले अभिभावकों की कोई कोई मजबूरी होती है अन्यथा संभव होने पर निजी स्कूलों में ही भेजते हैं। सरकारी स्कूलों के अध्यापक प्रशिक्षित होते हैं लेकिन वे अपनी ड्यूटी या कहें धर्म को निष्ठा से नहीं निभाते जबकि इसके ठीक विपरीत इन निजी स्कूलों के अधिकांश अध्यापक प्रशिक्षित नहीं होते। इन्हें वेतन सरकारी अध्यापकों से आधा-चौथाई भी नहीं मिलता  और इनके काम के घण्टे भी ज्यादा होते हैं। शिक्षण के अलावा भी इन्हें कई अन्य काम करने होते हैं।
इन सबके चलते इन निजी स्कूलों के अध्यापकों से यह उम्मीद की जाये कि वे अपनी ड्यूटी पर चाक चौबन्द रहे, बेमानी है। निजी स्कूल गैर-शैक्षणिक गतिविधियों के नाम पर भी छात्रों को दाखिले के लिए आकर्षित करते हैं। ऐसे आयोजनों को अंजाम भी नियमित स्टाफ को बिना किसी अतिरिक्त भुगतान के देना होता है जबकि ऐसी प्रत्येक गतिविधि के लिए स्कूल प्रबन्धन अभिभावकों से अलग से राशि वसूलता है। इस सबके चलते यह अध्यापक और अन्य स्कूली स्टाफ शैक्षणिक और गैर-शैक्षणिक दोनों ही प्रकार की गतिविधियों को पूरे मन से अंजाम देने की मनःस्थिति में नहीं होते। इसीलिए इस तरह की दुर्घटनाएं घटित होती हैं।
जरूरत समाज के चेतन होने की और सरकारी प्रबन्धन से चलने वाली सभी सार्वजनिक सेवाओं, यथा-शिक्षा, चिकित्सा, कानून व्यवस्था (पुलिस), यातायात (रोडवेज), पानी, बिजली और साफ-सफाई आदि-आदि को सतत निगरानी में लेने की है। क्योंकि इन निकायों के विभागों के पूरे ढांचे को चलाने में प्रतिमाह जो करोड़ों-अरबों रुपये खर्च हो रहे हैं वह सारा धन जनता द्वारा चुकाए गये प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष करों से आता है। यह भाव जागना जरूरी है कि हमारे दिये धन से चलने वाली इन सेवाओं का लाभ भी हमें शत-प्रतिशत मिलना चाहिए। जब तक ऐसा भाव नहीं जगेगा तब तक केवल हम ठगे जाते रहेंगे बल्कि आये दिन कुछ कुछ भुगतते भी रहना होगा। हमारे धन से चलने वाली इन सेवाओं का उपयोग पूर्णता से तो क्या आत्म-सम्मान के साथ भी कर पाते हैं क्या हम?
5 अप्रैल, 2013

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