Tuesday, April 23, 2013

वसुन्धरा का रास्ता आसान नहीं है।


राजस्थान विधानसभा के चुनाव हैं तो वर्ष के अंत में लेकिन सुराज यात्रा और सन्देश यात्रा के समय उन इलाकों में और दोनों यात्राओं की खबरों से पूरे प्रदेश में चुनावी माहौल लगने लगा है। प्रदेश में पार्टी की कमान ना मिलने के असमंजस के चलते वसुंधरा राजे सूबे से लगभग अनमनी रहीं। सूबे में कभी कोई घटना-दुर्घटना हो गई तो रस्म अदायगी भर को बयान दे दिया, बस। वह इन चार सालों के अधिकांश समय देश-प्रदेश की राजनीतिक मुख्यधारा से बाहर रहीं। भाजपा हाइकमान को जब यह लग गया कि बिना वसुन्धरा के राजस्थान विधानसभा के चुनावों में भाजपा कांग्रेस के बराबर भी न दिखेगी तो पार्टी में वसुन्धरा विरोधियों की दाबा-चींथी के साथ सूबे की कमान वसुन्धरा को सौंप दीं। इन चार वर्षों में भाजपा हाइकमान की उपेक्षा से भी वसुन्धरा की हेकड़ी में कुछ कमी देखी गई और वरिष्ठ पार्टीजनों के साथ उनके व्यवहार में सामन्ती बू की कुछ कमी महसूस की गई। लेकिन घनश्याम तिवाड़ी और रामदास अग्रवाल जैसों के घाव शायद कुछ ज्यादा ही गहरे थे। सो इस मौके पर बजाय उन पर खरूंट आने के हरे होने लगे। ऊपरी तौर पर लग तो यही रहा है कि वसुन्धरा को भीइन जैसोंकी खास परवाह नहीं है। लेकिन वसुन्धरा को इस बात का एहसास है कि स्थितियां-परिस्थितियां 2003 जितनी अनुकूल नहीं हैं। हो सकता है रक्षा बन्धन के आते-आते वह राखी-राजनीति से इन्हें भी साधने की कोशिश करें।
प्रदेश को चार साल नजर उठाकर न देखने के अशोक गहलोत के आरोपों पर जब वसुन्धरा यह कह कर पलटवार करती हैं कि 2003 से 2008 के बीच में गहलोत विधानसभा में कितनी बार आए तो वसुन्धरा का यह पलटवार तथ्यात्मक रूप से तो सही लगता है लेकिन जवाब माकूल इसलिए नहीं लगता कि गहलोत के 2003-2008 के पांच सालों और वसुन्धरा के 2008-2013 के पांच सालों में भारी अन्तर हैं। गहलोत उन पांच वर्षों में अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी (एआईसीसी) के महामंत्री रहे और एक पेशेवर राजनेता की तरह सक्रिय भी। घर-परिवार जयपुर में ही था और राजनीति में प्रदेश स्तर के नेता के रूप में पूरी तरह न सही, एक राष्ट्रीय नेता के रूप में उनकी सक्रियता उल्लेखनीय रही और जब तब न केवल जयपुर-जोधपुर को बल्कि मौके-टोके प्रदेश के लगभग सभी क्षेत्रों को सम्हालते भी रहे।
इसके ठीक विपरीत वसुन्धरा के इस अरसे को राजनीतिक वनवास तो नहीं कह सकते पर रहीं लगभग राजनीतिक अवकाश पर हीं। बीच में अधिकांश समय ऐसा असमंजस भी रहा कि वसुन्धरा प्रदेश राजनीति में लौटेंगी कि नहीं! इस का एक कारण स्वयं वसुन्धरा की प्रदेश राजनीति के प्रति बेरुखी को भी माना जा सकता है। राजावत और राठौड़ जैसे सिपहसालार न होते तो सूबे ने वसुन्धरा को लगभग भुला ही दिया होता। जबकि इस दौरान राठौड़ पर दारिया एनकाउण्टर की छाया लगातार मंडराती रही।
आजादी बाद की सूबे की राजनीति में गहलोत सबसे शातिर राजनीतिज्ञ तो हैं ही और 2003-2008 के उनके सत्ताच्युत काल ने उन्हें और परिपक्व भी बना दिया है। इसीलिए शायद 1998-2003 के सत्ताकाल कीअच्छीकार्यशैली को गहलोत ने अपने इस दूसरे कार्यकाल में न केवल लगभग किनारे रखा बल्कि कुछ अतिरिक्त सावचेती के चलते उन्हें छाछ को भी फूंक-फूंक पीते देखा गया। मनरेगा, फ्लैगशिप और  अन्य लोककल्याणकारी योजनाओं का असर ग्रामीणों में आ गई चतुराई के बावजूद गांवों में देखा जा रहा है। राजस्थान की प्रभावी मतदाता जाति जाटों को 2008 की तरह गहलोत ने लगभग अब भी साध रखा है जो 2003 में वसुन्धरा के साथ थे। 2008 में मीणा पूरी तरह साथ नहीं थे तो गुर्जर लगभग गहलोत के विरोध में थे। यह दोनों क्षेत्रविशेष के प्रभावी जाति समूह भी 2008 वाली स्थिति में नहीं है। ब्राह्मण, राजपूत और वैश्य अपने-अपने हिसाब से इधर-उधर रहकर संतुलन को बनाए रखते हैं। इन जातियों का खुद का तो कोई बहुत प्रभावी वोट बैंक नहीं है लेकिन अन्य समूहों के वोटों को प्रभावित करने की क्षमता तो इनकी अभी कायम है। तीसरे मोर्चे के अभाव में दलित और अल्पसंख्यक कमोबेश पुरानी स्थिति में ही हैं, दलितों में भाजपा जरूर कुछ सेंध लगाने में सफल हुई है। इसी सबके चलते आगामी विधानसभा चुनाव दिलचस्प तो होंगे लेकिन वसुन्धरा सोरे-सांस सत्ता पाने में सफल हो पाएंगी लगता नहीं है।
23 अप्रैल, 2013

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