Wednesday, April 3, 2013

नरेन्द्र मोदी को समझने की जरूरत


गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी जो-जो चाहते हैं वह सब सम्भव कर लेते हैं। ऐसी कुव्वत बहुत कम लोगों के पास होती है। लगभग ऐसी ही कुव्वत जर्मनी के एडोल्फ हिटलर में भी थी। जब तक उनके चाहे-चाहे होता रहा तब तक उन्होंने किसी की नहीं सुनी। जिस क्षण हिटलर को लगा कि अब मेरा चाहा होने की सम्भावना समाप्त हो गई है तो उन्होंने अपना अस्तित्व ही खत्म कर लिया। यह वही हिटलर थे जो लोकतांत्रिक तरीके से बाकायदा भारी बहुमत से चुन कर राजप्रमुख बने। उन्होंने यह जीत यहूदियों के खिलाफ घृणा को बढ़ा और फिर उसे भुना कर तथा जर्मनी को दुनिया का सिरमौर बनाने का सपना दिखा कर हासिल की थी। 1919 में नाजी पार्टी के सदस्य बने हिटलर ने धीरे-धीरे अपनी पार्टी में अपनी स्थिति ठीक वैसी ही बना ली थी जैसी भारतीय जनता पार्टी में नरेन्द्र मोदी बनाते जा रहे हैं। 1933 में हिटलर जर्मनी के चांसलर (भारत के प्रधानमंत्री के समकक्ष) बन गये। देश, दुनिया, समाज में सब कुछ हिटलर के चाहे जैसा हो, उनकी ऐसी सनक ने दुनिया को दूसरे महायुद्ध में धकेल दिया।
जो लोग थोड़ा-बहुत मनोविज्ञान और भाव भंगिमाओं (बॉडी लेंग्वेज) को जानते-समझते हैं वे अच्छी तरह जानते हैं कि नरेन्द्र मोदी की राह भी वही है जो हिटलर की थी। अपने राज करने के तरीके और गुजरात को देश में विकास का मॉडल होने का भ्रम तो उन्होंने लगभग स्थापित कर दिया है। लेकिन शेष सभी आंकड़ों में मोदी काफी पीछे हैं। गुजरात के विकास का लाभ बहुत सीमित लोगों को ही हासिल हो रहा है। प्रदेश के कमजोर और गांवों में रहने वाले लोगों का जीवन स्तर लगातार गिरता जा रहा है। पेयजल और जरूरी स्वास्थ्य सेवाएं लगातार पिछड़ती जा रही हैं। जैसे कि देश में अन्य जगह वोट पड़ते हैं, वैसे ही गुजरात में पड़ते हैं। पिछड़े और कमजोर इलाकों के दबंग ही यह तय करते हैं कि वोट किन्हें दिया जाना है। गुजरात के अधिकांश दबंगों को मोदी नेकीललिया है, मोदी की चुनावी सफलता का राज भी यही है!
मोदी की तानाशाही का एक और उदाहरण कल सामने आया। विधानसभा में अपने बहुमत के आधार पर उन्होंने लोकायुक्त जैसे पद को समाप्त कर दिया, जिसके चलते राज्यपाल से उनकी तकरार चल रही थी। नया कानून बना कर लोकायुक्त आयोग की नई व्यवस्था पास करवा ली। इसके चयन में राज्यपाल की कोई भूमिका नहीं होगी। इस आयोग के पांचों सदस्यों का चयन मुख्यमंत्री के नेतृत्व वाली चयन समिति करेगी। यानी अन्ना हजारे की लोकायुक्त धारणा का मोदी ने कचूमर भी नहीं छोड़ा। लोकायुक्त आयोग मुख्यमंत्री की कठपुतली होगा। इस तरह अब गुजरात में भ्रष्टाचार पर अंकुश की सम्भावनाएं एकबारगी तो लगभग समाप्त कर दी गई हैं।
भारतीय जनता पार्टी की मातृसंस्था राष्ट्रीय सेवकसंघ का वैसे भी लोकतंत्र और सामाजिक समानता में उसके गठन के समय से ही विश्वास नहीं था और उसकी स्थापना के अट्ठासी वर्ष बाद आज भी उसके ढांचे में कोई खास परिवर्तन नहीं देखा गया है। उसके संगठन में आज भी तथाकथित उच्चकुलीन वर्ग और उसमें भी एक जातीय वर्ग का वर्चस्व है। कुछ भिन्न लोग यदा-कदा फ्रेम में देखे भी जाते हैं तो वे वही होते हैं जिनकी निष्ठा में राई-रत्ती का सळ भी हो। राष्ट्र की उनकी धारणा ही पश्चिमी है। इनकी ट्रेनिंग से निकलने वालों में मोदी मानसिकता के लोगों की ही संभावना अधिक रहती है। थोड़ा कोई लोकतांत्रिक होने की गुंजाइश निकालता भी है तो उसे किनारे कर दिया जाता है। अकेले अटल बिहारी वाजपेयी का व्यक्तित्व ही ऐसा था जिसे संघ ने बर्दाश्त किया। शायद इसलिए भी कि वे उनके अनुकूल कुल के थे। लेकिन मोदी जिस चाल से चल रहे हैं उसमें वे जल्द ही राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ पर हावी होते देखे जाएंगे और लोकतंत्र पर भी। भारतीय पुराणों में भस्मासुर का चरित्र भी मिलता है। आपातकाल के बाद इन्दिरा गांधी के पटरी पर लौटने से मोदी की तुलना इसलिए नहीं की जा सकती कि दोनों केआधार प्रशिक्षणमें बड़ा अन्तर रहा है।
3 अप्रैल, 2013

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