Wednesday, June 17, 2015

कोटगेट--सांखला रेल फाटकों के समाधान के लिए एकमत से सक्रिय होने का समय

बीकानेर शहर के कोटगेट और सांखला रेल फाटकों के बार-बार बन्द होने से यातायात के बाधित होने और जाम लगने की बड़ी समस्या है। पिछले वर्ष जून में 'सरकार आपके द्वारअभियान के तहत मुख्यमंत्री प्रशासन को इसका भान करवाया गया था। लगता है उनके ध्यान में यह मसला अभी तक है। इस समस्या के व्यावहारिक समाधान के लिए इसी पन्द्रह जून को प्रमुख शासन सचिव ने बैठक ली है। लगता है वर्तमान शासन इसका समाधान देने की मंशा रखता है। जरूरत हम शहरवासियों के एकराय हो एकमत से किसी एक समाधान पर सक्रिय होने की है। ऐसा नहीं होगा तो सरकार की मंशा ठण्डे बस्ते में जाते देर नहीं लगेगी। 'विनायक' ने इसी वर्ष 30-31 मार्च और 1 अप्रेल के अपने तीन किश्तों के सम्पादकीय में विभिन्न समाधानों पर विस्तार से चर्चा की है। समाधान में रुचि रखने वालों के लिए उन तीनों किश्तों को किंचित संपादन के साथ पुन: एक साथ इस उम्मीद में आज प्रकाशित कर रहे हैं कि रोज-रोज की इस परेशानी से जनता को छुटकारा मिल जाए : —

बीकानेर की सबसे बड़ी कोटगेट और सांखला फाटक की समस्याओं पर इन दिनों लगातार चर्चा होने को सुखद कहा जा सकता है। विधानसभा में विधायक गोपाल जोशी ने जहां इसे प्राथमिकता से उठाया वहीं मुख्य विपक्षी पार्टी कांग्रेस तकनीकी विश्वविद्यालय की मांग के साथ इन रेल फाटकों की समस्या पर सक्रिय हुई और 27 मार्च, 2015 को इनके लिए घोषित बीकानेर बन्द को नेतृत्व भी दिया।
मीडिया के दोनों आयामों अखबार और टीवी में भी इन रेल फाटकों की समस्या का अनुसरण किया जाने लगा है। फेसबुक पर भी कई लोग इस समस्या से जहां उकताहट प्रकट करने लगे वहीं कई उत्साही अपने समाधानी विकल्प सुझाने लगे हैं। इन माध्यमों से रहे बहुत सारे समाधानी विकल्पों की बात करें तो इनमें अपनी-अपनी कमियां हो सकती हैं। ऐसे में देखना होगा कि ऐसा समाधान जो ज्यादा सुविधाजनक और व्यावहारिक हो उस पर चर्चा द्वारा एक राय हो उसी पर एक स्वर में कायम रहें तब तो किसी तय समय में समाधान संभव है। अन्यथा समाधान का विकल्प ही तय नहीं कर पाएं तो शासन-प्रशासन को तो कोई अड़ी है और ही बायड़ कि वह विवादों के चलते कुछ करे।

रेल बायपास
रेल बायपास की बात सबसे पहले 1976 में जारी बीकानेर शहर के मास्टर प्लान में सामने आयी थी। उसमें सुझाव था कि शहर के बीच से गुजरने वाली रेल लाइन को हटाकर शहर के पश्चिम-दक्षिण में नई रेल लाइन डाली जा सकती है इसमें वर्तमान बीकानेर रेलवे स्टेशन को हटाकर दो नये स्थानों के प्रस्ताव दिए जिनमें एक घड़सीसर में सुझाया गया और दूसरा मुक्ताप्रसाद नगर के पास। इसके बाद जननेता रामकृष्णदास गुप्ता ने रेल बायपास की मांग को लेकर पिछली सदी के आखिरी दशक के मध्य लम्बे समय तक आन्दोलन चलाया और कोटगेट पर कई दिनों के उनके धरने के बाद मुख्यमंत्री भैरोंसिंह शेखावत और रेलमंत्री सीके जाफर शरीफ बीकानेर आए और रेल बाइपास पर सहमति जता कर आन्दोलन को खत्म करवा गये।
एक समाधान, सुझाव ये भी रहा है कि रेल लाइन भी हट जाए और स्टेशन भी यहीं रहे। तो रेलगाड़ी कोई बस तो है नहीं जहां मरजी आए जैसे ले गये। इस स्टेशन पर गाड़ी आकर लौटेगी तो इंजन को भी आगे-पीछे करना होगा। ऐसे में कम से कम आधा घंटा और अतिरिक्त लगेगा। यानी यहां से गुजरने वाली हर गाड़ी का समय सवा से डेढ़ घंटा बढ़ जाना है। मेड़ता रोड होकर जयपुर की ओर जाने वाली गाड़ियां परेशानी पहले ही भुगत रही हैं।
प्रदेश में कांग्रेस के पिछले राज में नगर विकास न्यास के मकसूद अहमद अध्यक्ष बने और कोटगेट फाटक पर अण्डरब्रिज बनाने की योजना ले आए जिसका पुरजोर विरोध इससे प्रभावित होने वाले व्यापारियों ने किया और बायपास से समाधान की बात एक बार पुन: होने लगी।
1976 में प्रस्तावित उस बायपास योजना में वर्तमान स्टेशन को हटाकर जिन दो स्थानों पर स्टेशन बनाने प्रस्तावित थे वे दोनों स्थान बसावट में लिए हैं। वहीं अब रेलवे इस समाधान पर दो विकल्पों के साथ सहमत है--एक तो यह कि वर्तमान रेलवे लाइन कायम रहेगी और सवारी गाड़ियों को यहीं से गुजारा जायेगा, बायपास से केवल मालगाड़ियां ही गुजारी जायेंगी। इस विकल्प में स्टेशन यहीं रह सकता है। इस योजना में रेल फाटकों की समस्या का खास समाधान इसलिए नहीं मिलना क्योंकि वैसे भी इस रूट पर ज्यादातर सवारी गाड़ियां ही चल रही हैं, अधिकांश मालगाड़ियों की दिशा बदल दी गई है। दूसरे विकल्प के तौर पर रेलवे का कहना है कि शहर से गुजरने वाली इस लाइन को हटाना ही है तो वर्तमान स्टेशन को नाल गांव ले जाना होगा, ऐसे में क्या शहर इसके लिए तैयार होगा। दूसरा, इस शहर से गुजरने वाली सभी गाडिय़ों का समय पैंतीस से पैंतालीस मिनट बढ़ जायेगा। सवारी गाड़ियों के समय को लगातार कम करने के प्रयासों को भी इससे झटका लगेगा।
एक और बड़ी अड़चन यह है कि रेलवे इस पूरी योजना में एक पैसा भी नहीं लगाएगा। जमीन अधिग्रहण और नई लाइन डालने का खर्चा तो राज्य सरकार को उठाना ही है--वहीं नाल में नये स्टेशन को विकसित करने का खर्च भी राज्य सरकार को वहन करना होगा। ऐसे में देखना यह होगा यहां के जनप्रतिनिधि क्या वर्तमान रेलवे स्टेशन को नाल ले जाने के लिए आम-अवाम को सहमत और योजना पर आने वाले भारी भरकम खर्च के लिए राज्य सरकार को तैयार कर लेंगे?
कोटगेट और सांखला रेल फाटकों से उपजी यातायात समस्या का रेल बायपास से समाधान का चिट्ठा आपके सामने ऊपर खोला गया है, इसका राग अलापने वाले जिसे हमेशा छुपाए रखते हैं। यदि रेल बायपास बनने के चलते होने वाली अन्य समस्याओं को शहरवासी स्वीकार करने को तैयार हैं तो भले ही इस पर अड़े रहें अन्यथा किसी ज्यादा व्यावहारिक विकल्प पर एकराय होने की जरूरत है।

रेल अण्डर ब्रिज
दूसरा विकल्प अण्डरपास या रेल अण्डरब्रिज बनाने का है जिसे नगर विकास न्यास ने दो साल पहले दिया था। यह आरयूबी सांखला फाटक पर इसलिए नहीं बन सकता कि एक तरफ सट्टा बाजार चौराहा है तो दूसरी ओर कोयला गली, ऊपर से स्टेशन की ओर जाने वाले मार्ग पर चढ़ाई भी ज्यादा है। अत: गुंजाइश कोटगेट रेल फाटक पर निकाली गई। हालांकि सांखला फाटक जितनी समस्या तो यहां नहीं है लेकिन कम भी नहीं है। जहां एक ओर मिर्च गली है तो दूसरी ओर कैंची गली, वहीं कोटगेट की ओर कुछ चढ़ाई भी है। बीच बाजार में होने के चलते लगभग पचास दुकानें जहां सीधे प्रभावित होंगी वहीं अंदरूनी गलियों वाले इतने ही व्यापारी प्रभावित हुए बिना नहीं रहेंगे। यदि यह आदर्श समाधान हो तो इन प्रभावितों का त्याग हथियाया जा सकता है लेकिन जो बड़ी समस्या है वह बारिश के दिनों में आधे अन्दरूनी शहर का पानी कोटगेट से होते हुए इसी रेल फाटक से गुजरने की है। इस बेशुमार पानी के निकास की व्यवस्था असंभव नहीं है, चार-पांच फीट चौड़े पाइप से रानी बाजार पुलिया तक इसे ले जाया जा सकता है लेकिन इस व्यवस्था का रखरखाव नगर निगम या नगर विकास न्यास, दोनों में से जिसे भी करना हो, रख रखाव की मुस्तैदी इन दोनों महकमों की किसी से छुपी नहीं है। ऊपर से हम शहर वाले सीवर लाइन को जिस तरह कचरा पात्र के रूप में बापरने के आदी हैं वह भी कोढ़ में खाज ही है। कुल तीन उदाहरणों से अण्डरब्रिज की भयावहता का अन्दाजा लगा सकते हैं--यहां यह भी जानकारी रखना जरूरी है कि आरयूबी यदि दस फीट भी गहरा कर देते हैं तो 2 फीट रेल लाइन के गर्डर जोड़कर बारह फीट हो जायेगा। इसके लिए ट्रांसपोर्ट प्लानरों के हिसाब से ढलान-सड़क की एक तरफ की आदर्श लंबाई कम से कम 240 फीट होनी चाहिए। क्योंकि कम सड़कीय ढलान का अनुपात हलके वाहनों के लिए बीस फीट पर एक फीट का होना माना गया है। ऐसे में दोनों तरफ 250 फीट कहां आयेगा और क्या-क्या प्रभावित होगा देखने वाली बात है।
दूसरे उदाहरण के रूप में अखबारी पाठकों को याद होगा कि बीसे' साल पहले राजस्थान पत्रिका में फोटो सहित प्रकाशित समाचार में--सिवरेज की मुख्य लाइन का डाट खोलने के लिए रेल मंडल प्रबंधक कार्यालय के आगे खुदाई की गई तो उसमें अन्य बहुत से सामान के साथ एक साबुत चारपाई निकली थी। शहर के हम लोग इन पाइपों को कैसे बरतते हैं जिसका यह नायाब उदाहरण था। तीसरा उदाहरण अभी पांच-सात साल पहले महात्मा गांधी रोड का है जहां आकाश बिलकुल साफ था लेकिन अचानक बारिश के मौसम की तरह कोटगेट होते हुए भीतरी शहर से पानी का रेला गया। बाद में पता चला कि कोई छितराई बदली अन्दरूनी शहर पर अच्छे से बरसी थी इसीलिए कहा गया है कि प्रकृति आपको संभलने का अवसर नहीं देती। पानी अचानक ऐसे जाए और आरयूबी का पाइप कहीं पर डटा हो तो उसे भरने में इतनी देर भी नहीं लगेगी कि सघन यातायात को रोककर अन्दर वालों को बाहर भी किया जा सके। चलो किया भी जा सके तो ऐसा करेगा कौन? राजधानियों की व्यवस्थाओं से तुलना करना ज्यादती होगी। वहां शासक बैठते हैं। यहां तो जिनके जिम्मे हैं वे जरूरत पर दफ्तर में ही नहीं मिलते।
इसे यहीं के उदाहरण से समझ लें। सूरसागर की समस्या के हल में शहर से आने वाले पानी को इसमें जाने से रोकना भी है। कोटगेट होते हुए आने वाले पानी का गंतव्य सूरसागर ही है। सूरसागर की सफाई के साथ इसके दो तरफ पर्याप्त चौड़े पाइप डाल कर पानी निकासी के लिए जगह-जगह जालियां लगाई गई हैं। पहले तो यह कि जालियां इन सात वर्षों में कभी सही नहीं रही--वहां से गुजरने वाले अतिरिक्त सावधानी नहीं बरतें तो दुर्घटनाएं होती ही हैं। दूसरा यह कि जिस जरूरत के लिए इस डायवर्जन पाइप लाइन को डाला गया कोई बताए तो सही इन सात वर्षों में जरूरत पर वह कितनी बार दुरुस्त मिली कि बारिश का पानी सर्राटे से उनमें से होकर गुजर गया हो। जब तक पाइप के जाम को निकाला जाता है तब तक बरसाती पानी या तो सूरसागर में गिरता है या फिर जूनागढ़ की खाई में रास्ता बनाकर डालना पड़ता है। समाधान कुछ वैसा ही तो होना चाहिए जैसा हमारा स्वभाव है या जिस तरह की आदतें यहां के सरकारी कारकुनों के काम करने की हो लीं है। हां, अपना स्वभाव और सरकारी कारकूनों के काम के तौर तरीके हम बदल सकते हों तब तो, कोई भी समाधान माकूल हो सकता है। फिर तो बायपास पर ही क्या दिक्कत है, केवल शहर से बाहर रेल लाइन डलवा लो और बीकानेर होकर गुजरने वाली लम्बी दूरी की गाड़ियों के लिए उदयरामसर, गाढ़वाला, नाल, और कानासर जाकर गाड़ियों में सवार हो लें। स्टेशन दोनों यही रह जायेंगे और जो गाड़ियां यहीं से रवाना होती है वे इन्हीं स्टेशनों से रवाना हो लेंगी। राजधानी की बात करें तो दिल्ली वाले रेल पर चढ़ने के लिए इससे ज्यादा दूरी तय करते ही हैं। रेलवे तो तैयार है बस राज्य सरकार को दाम खरचने को तैयार कर लें और खुद शहरी भी तैयार होलें।

एलिवेटेड रोड
तीसरे समाधान के रूप में एलिवेटेड रोड बनाना है। 2006-07 में राजस्थान अरबन इंफ्रास्ट्रक्चर डेवलपमेंट प्रोजेक्ट (आरयूआइडीपी) के दक्ष तकनीकी आयोजकों को राज्य सरकार की ओर से शहरी समस्याओं की पड़ताल करने और उनका व्यावहारिक समाधान देने को कहा गया। बीकानेर के कोटगेट और सांखला रेल फाटकों की बड़ी समस्या पर उनका ध्यान गया। उनके द्वारा अपने तईं किए इस काम के दौरान कोई राजनीतिक हस्तक्षेप था और ही कोई हित विशेष के दबाव थे। उन्होंने इन दो रेल फाटकों की समस्या का बहुत ही व्यावहारिक समाधान एलिवेटेड रोड के रूप में तब सुझाया जब शहर के राजनेता और अन्य मुखर लोग बायपास का राग अलाप रहे थे। उन्होंने केवल परियोजना बनाई बल्कि मॉडल बना शहर में प्रदर्शित किया और आमजन से इस एलिवेटेड रोड पर राय चाही। उस दौरान सकारात्मक हजारों अनुशंसाओं के बीच बहुत थोड़े लोगों ने यह कहकर विरोध जताया कि इससे महात्मा गांधी रोड के व्यापार पर विपरीत असर पड़ेगा। 2007-08 में आरयूआइडीपी द्वारा की गई इस रायशुमारी के समानांतर राजस्थान पत्रिका ने पाठकों की राय भी ली जिसे बराबर प्रकाशित भी किया था। बताया गया कि कुल प्राप्त पचानबे-छानबे प्रतिक्रियाओं में से मात्र दो-तीन ही इस एलिवेटेड रोड के खिलाफ थीं। बावजूद इसके शहर के असरकारी लोगों के प्रभाव के चलते तब मात्र चौबीस करोड़ के इस प्रोजेक्ट को ठण्डे बस्ते में पहुंचा दिया गया। कहा जाता है इसके साथ ही क्षेत्र के लिए शहरी सुविधाओं के पूरे साठ करोड़ झालावाड़ को दे दिए गये।
पाठकों की सुविधा के लिए एक बार पुन: उस प्रोजेक्ट की जानकारी साझा कर रहे हैं--लगभग 26 फीट चौड़ाई की यह डबललेन एलिवेटेड रोड महात्मा गांधी रोड स्थित रिखब मेडिकल स्टोर वाले बड़े चौक से चढ़कर फड़बाजार चौराहे से सांखला फाटक की ओर घूमनी थी। वहां से नागरी भण्डार तक पहुंचकर दो शाखाओं में विभक्त होकर एक शाखा रेलवे स्टेशन जाने वाले यातायात के लिए मोहता रसायनशाला के आगे उतरती तो दूसरी शाखा अन्दरूनी शहर की ओर जाने वालों के लिए फोर्ट स्कूल के पास राजीव मार्ग पर।
सभी जानते हैं कि फिलहाल महात्मा गांधी रोड और स्टेशन रोड से गुजरने वाले यातायात में सत्तर प्रतिशत वह है जिन्हें इन दोनों ही बाजारों से कुछ लेना देना नहीं होतावे या तो स्टेशन या अन्दरूनी शहर से आकर पब्लिक पार्क की ओर जाते हैं या उधर से लौटते हैं। इन सत्तर प्रतिशत गैर ग्राहकीय यातायात के चलते इस बाजार में तीस प्रतिशत ग्राहकीय यातायात को कितनी परेशानी उठानी होती है इसका भान शायद किसी को नहीं है। एलिवेटेड रोड यदि बनती है तो सत्तर प्रतिशत गैर ग्राहकीय यातायात एलिवेटेड रोड से 'बायपास' कर जायेगा और वह तीस प्रतिशत ग्राहकीय यातायात केवल इतमीनान से इन बाजारों में खरीदारी कर सकेगा बल्कि जिन ग्राहकों ने जाम से घबराकर महात्मा गांधी रोड और स्टेशन रोड आना बन्द कर दिया, वे भी पुन: आने की हिम्मत जुटाने लगेंगे।
महात्मा गांधी रोड और सांखला फाटक तक स्टेशन रोड लगभग इक्यावन से साठ फीट चौड़ी हैऐसे में छब्बीस फीट की एलिवेटेड रोड के दोनों तरफ हवा-रोशनी की पर्याप्त गुंजाइश रहेगी वहीं लगभग पांच फीट बीच के एकल खम्भों के बीच छायादार पार्किंग बन जायेगी। ऐसे में दुकानों के आगे खड़े वाहनों से दुकानों तक पहुंचने में ग्राहकों को जो बाधा आती है उसमें बहुत कमी जायेगी। अलावा इसके रिहायश से लगभग बाजार में तबदील हो चुके इन मार्गों के इर्द-गिर्द के भवनों की दूसरी-तीसरी मंजिलों पर अच्छे-खासे शो-केस विकसित हो सकते हैं जो एलिवेटेड रोड से गुजरने वालों को लुभाए बिना नहीं रहेंगे।
ऐतिहासिक कोटगेट से लगभग सात-आठ सौ फीट दूर दिशा बदलने वाली इस एलिवेटेड रोड से कोटगेट के सौन्दर्य-दर्शन में कुछ खास अन्तर नहीं आना है।
रही बात रेलवे की, उसे प्रशासन और राज्य सरकार की ओर से रेल बायपास और अण्डरब्रिज के प्रस्ताव दिए गए हैं। ऐसे में रेलवे आधिकारिक तौर पर इन दो पर बात करता है। एलिवेटेड रोड पर तो रेलवे को आज तक कुछ कहा ही नहीं गया। अन्यथा रेलवे के तकनीकी लोग यह मानते हैं कि तब वे सबसे 'फिजिबल' एलिवेटेड रोड के इस प्रोजेक्ट को ही बताएंगे। एलिवेटेड रोड के जो अन्य विकल्प सुझाये गये हैं वे तकनीकी और आर्थिक, दोनों मोर्चों पर व्यावहारिक नहीं हैं। दूसरा, उनके लिए कुछ निजी और सरकारी भवनों का अधिग्रहण कर तोड़कर हटाना होगा जबकि आरयूआइडीपी की सुझाई एलिवेटेड रोड में एक भी भवन का एक इंच भी नहीं टूटना है।
रही बात निर्माण के दौरान व्यापारियों को होने वाली असुविधा की तो अब निर्माण हेतु इतने एडवांस साधन लिए हैं कि आस-पड़ोस को कोई खास दिक्कत नहीं होती। खम्भे ढालने के काम के लिए बीच सड़क पर बारह फीट एरिया को दोनों तरफ से बन्द करके गलियारा बनाया जा सकता है और इस शर्त पर ठेका दिया जा सकता है कि मिक्सचर प्लांट कहीं दूर लगेगा और काम रात आठ बजे से सुबह आठ बजे के बीच ही होगा। इस तरह इस अस्थाई गलियारे के दोनों तरफ बारह से पन्द्रह फीट का रास्ता भी सामान्य आवागमन के लिए निर्माण के दौरान चालू रहेगा।
पिलर ढलाई के बाद जिन प्रि-स्ट्रेस गर्डर पर सड़क बनेगी, ये गर्डर यदि आरसीसी के ढलने हैं तो शहर से बाहर ढलेंगे अन्यथा प्रोजेक्ट में परिवर्तन कर स्टील के बनवाए जा सकते हैं। इन गर्डरों को भी रात्रि में ही फिट किया जा सकता है। ऐसे में दो-ढाई वर्ष थोड़ी बहुत दिक्कत होनी है तो बाद में इसका सुख भी भोगेंगे।
एलिवेटेड रोड की आरयूआइडीपी योजना में थोड़ा परिवर्तन करके बजाय मोहता रसायनशाला तक ले जाने के, ग्रीन होटल के आगे इसे उतारा जा सकता है, इससे एक सुविधा यह होगी कि इससे गंगाशहर से आने वाले यातायात को एलिवेटेड रोड की सुविधा बिना बाधा के हासिल हो जायेगी।
जरूरत अब रेल बायपास, रेल अण्डरब्रिज और एलिवेटेड रोडइन तीनों में से किसी एक पर एकराय बनाने की है ताकि साथ में खड़े होकर एक सुर में कोई निर्णय करवा सकें और जमीन पर उसे उतरवाने के लिए सरकार को बाध्य कर सकें। तीनों ही समाधान का खर्चा राज्य सरकार को ही उठाना है। ऐसे में रेलवे का कोई खास लेना देना आर्थिक तौर पर नहीं है। जो निर्माण पर खर्च रेलवे को करना है उसका भुगतान भी राज्य सरकार रेलवे को करेगी ही।

17 जून, 2015

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