Friday, June 12, 2015

मोदी युग या भ्रमजाल

प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की कार्यशैली कुछ ऐसी है जिसे लोकतांत्रिक मन रखने वाला कोई शायद ही पचा पता होगा। लोकतांत्रिक मन वाला ही क्यों? मोदी की गुजरात के मुख्यमंत्री की कार्यशैली से खुद उनका पितृ संगठन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ भी सहमा हुआ था। बावजूद इसके मोदी में कुछ तो है ही कि संघ ने प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार के रूप में सहमति दी। मोदी के भाषणों को सुनकर समझें तो अवसर-स्थिति अनुसार विरोधाभास प्रधानमंत्री बनने के बाद से देखे जा सकते हैं। पिछले वर्ष स्वतंत्रता दिवस का उनका भाषण ऐसे ही अन्य कई भाषणों को याद करेंगे तो लगेगा मोदी उदार हो गये हैं। धार्मिक समन्वय की बात और पुरानी सरकारों के काम-काज का सकारात्मक उल्लेख करते हैं। किसी स्थानविशेष पर चुनावी मकसद वाले भाषणों में वे ठीक उलट बात करते हैं। तब बताने लगेंगे कि पिछले साठ वर्ष की सरकारों ने सिवा बिगाड़े के कुछ नहीं किया। सामंजस्य को धता बताने वाले बयान पार्टी से या संबंधित संगठनों के आते हैं तो केवल प्रधानमंत्री बल्कि पार्टी अध्यक्ष अमित शाह कान नहीं देते। मोदी के इस रवैये को बयान बाजों के लिए छूट की श्रेणी में ही माना जाना चाहिए। लगता है मोदी की रणनीति का ही यह हिस्सा है कि इस तरह एक साथ कई धाराओं को साधा जा सके। चर्चों-मसजिदों पर हमले वैमनस्य बढ़ाने वाले बयानों से जहां उनका परम्परागत मत आधार तुष्ट होता है, वहीं प्रधानमंत्री के सामंजस्य की बातों से नये जुड़े उदारमना लोग तसल्ली कर लेते हैं।
मोदी के चुनाव अभियान के वादे और बाद की उनकी कार्यशैली से यह लगने लगा है कि कई धाराओं का इस घालमेल को बनाए रखना ही मोदी की असल रणनीति है। इस तरह की अराजकता को सर्वसत्तावाद से साधा जा सकता है। यानी मोदी अपने में पूरा या अनमना भरोसा रखने वालों को यह सन्देश देने में सफल हो रहे हैं कि इस विभिन्न मानसिकता वाले देश को सर्वसत्तावाद से ही हांका जा सकता है और इसके लिए सबसे उपयुक्त वह ही हैं। खुद राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को भी उनकी कार्यशैली में अपने ऐजेन्डे को हासिल करने की उम्मीदें दीखने लगी है।
शासन का एक वर्ष पूरा होने पर सरकार की शून्य उपलब्धियों के साथ मीडिया के माध्यम से देश के मुखातिब होने का उनका आक्रामक रुख सर्वसत्तावाद की ही बानगी है। सरकार के खिलाफ हर नकारात्मक बात को नकारना, नकार सम्प्रेषित होने पर कुछ ना कर पाने के लिए पूर्ववर्ती सरकारों को भुंडाना या प्रश्नकर्ता को डपट देना लोकतंत्र का उदार चेहरा तो नहीं हो सकता।
यह अकारण नहीं माना जा सकता कि उत्तर-पूर्व में आतंकवाद के सफाए के लिए म्यांमार सीमा पर भारतीय सेना ने जो कार्यवाही की उसकी जानकारी केवल सेना प्रवक्ता के माध्यम से देने के बजाय सूचना प्रसारण राज्यमंत्री अलग से दे रहे हैं तो रक्षा मंत्री अलग से और प्रधानमंत्री खुद चुप्पी साधे हैं। होना तो यह चाहिए कि केवल और केवल सेना का प्रवक्ता ही अभियान की जानकारी दे। इसके दो कारण हो सकते हैंएक सरकार के विभिन्न मंत्रालयों में कोई समन्वय नहीं है और प्रधानमंत्री को इसके लिए समय भी नहीं है। इस तरह की बातें छन कर आने भी लगी हैं। दूसरा यह कि रणनीति के तहत अलग-अलग तरह की बातें होने दें ताकि असल ऐजेण्डे का भ्रम बना रहे। इस तरह लोकसभा चुनाव अभियान से लेकर अब तक के प्रत्येक मामलों में अलग-अलग सुरों का उलझाड़ केवल आम-अवाम को बल्कि थोड़ी बहुत सोच-समझ रखने वालों को भी भ्रमित किए रख रहा है। समझना यही है कि यह भ्रमजाल फैलाना मोदी की रणनीति का हिस्सा है या खुद उनकी भीतरी असमंजसता का ही कोई विराट उघाड़। दोनों ही स्थितियां देश के दूरगामी हितों को नुकसान ही पहुंचाएंगी। क्या इस तरह से ये कांग्रेस की करतूतों को अच्छा तो नहीं कहलवा देंगे?

12 जून, 2015

No comments: