Thursday, June 4, 2015

चुनाव आयोग की नई गाइडलाइन

रामकथा में हनुमान को बल याद दिलाने की कथा जाम्बवान के हवाले से मिलती है। भारत निर्वाचन आयोग के हवाले से बात करें तो 1950 में अपनी स्थापना से 1990 तक इसकी भूमिका इतनी ठण्डी रही कि इसके अस्तित्व का भान ही नहीं होता था। वह क्या कर सकता है, उसे क्या करना चाहिएये सब उसके सामान्य क्रियाकलापों से परे की बात थी। इसे यूं भी ले सकते हैं कि इससे पहली इसकी गुंजाइश इसलिए नहीं बनी चूंकि केंद्र की सरकारें इतनी ताकतवर नजर आती थी कि जो जैसे चल रहा है, वैसा ही चलने देने से ज्यादा कोई सोचता ही नहीं था। बावजूद इसके यह भी नहीं कि इस निर्वाचन आयोग पर कोई बड़ा लांछन लगा हो।
आत्मविश्वास से भरा एक ही व्यक्ति परिदृश्य को किस तरह बदल देता है, इसका भान 1990 से 1996 तक देश के मुख्य चुनाव आयुक्त रहे टीएन शेषन की कार्यशैली से कर सकते हैं। इसे रामकथा के उक्त उल्लेखित प्रकरण से समझें तो शेषन यहां जाम्बवान और हनुमान, दोनों की भूमिका में एक साथ नजर आते हैं। शेषन ने पद संभालने के बाद खुद ने ही अहसास कराया कि इस पद में बल कितना है। नेता, मतदाता और आवाम इस मानसिक तैयारी में ही नहीं थे कि मुख्य चुनाव आयुक्त ऐसा तेवर अदा कर सकता है। शेषन ने चुनाव आयोग को औपचारिक से सक्रिय भूमिका में ला दिया, करने और ना करने के जो मानक तय हैं उससे ऊपर भी कोई अधिकार चुनाव आयोग को है, ऐसा अहसास कराने वाला मुख्य चुनाव आयुक्त उनसे पहले नहीं आया। बाद में भी आने वाले कुछ ऐसे ही थे जिन्होंने अपनी भूमिका का निर्वहन औपचारिक तौर पर किया तो कुछ ऐसे भी आए, जिन्होंने आयोग की शक्तियों को समझा और निर्वाचन प्रक्रिया को ज्यादा लोकतांत्रिक बनाने का काम किया। सुखद इतना ही रहा कि शेषन और उनके बाद के सक्रिय आयुक्तों ने खटकने वाला कुछ नहीं किया। हालांकि कई बार इनके निर्णयों से सत्ताधीश जरूर असहज हुए हैं। शेषन से असहज रहे रिश्ते के कारण उनके सहयोगी एमएस गिल जरूर चर्चा में रहे जो शेषन के बाद मुख्य चुनाव आयुक्त भी बने और सेवानिवृत्ति के बाद उनके कांग्रेसी हो जाने से असहज होने के मतलब भी समझ गए।
वर्तमान मुख्य चुनाव आयुक्त नसीम जैदी के नेतृत्व में चुनाव आयोग ने जो नई गाइडलाइन जारी की है, वह विशेष तौर से उल्लेखनीय है। इस गाइडलाइन से असहमति तत्काल ही केन्द्रीय मंत्री मुख्तार अब्बास नकवी ने जाहिर कर दी। उन्हें ऐसा करना ही था चूंकि उनकी पार्टी जिस तरह के हवा हवाई चुनावी वादों पर सवार होकर शासन में आयी, लगता है आयोग ने ऐसी प्रवृत्तियों पर अंकुश लगाने को ऐसा किया है। भाजपा ही क्यों एक हद तक आम आदमी पार्टी भी दिल्ली में अनाप-शनाप किए वादों के साथ काबिज हुई है। लेकिन इतना फर्क तो है कि 'आप' पार्टी ने अभी तक चुनावी वादों को जुमला नहीं कहा।
चुनाव आयोग की कल की गाइडलाइन को अमल में लाना बेहद जरूरी है, अन्यथा मतदाता इसी तरह छला जाता रहेगा। आयोग ने जो नई सीमा रेखाएं तय की हैं उनमें सबसे महत्त्वपूर्ण यह है कि चुनावों में किए जाने वाले वादों को पूरा करने के वित्तीय साधनों का ब्योरा भी पार्टियों को साथ ही देना होगा अन्यथा यह सब हवा हवाई होते रहे हैं। अन्य बिन्दुओं में वोटर को दिग्भ्रमित करने वाले वादे नहीं करने, आदर्श चुनाव संहिता के प्रावधानों का ध्यान रखने के अलावा यह भी कहा गया है कि चुनानी घोषणापत्रों में ऐसा कुछ भी उल्लेख हो जो संविधान के सिद्धान्तों के विरुद्ध हो।
इससे पहले पिछले चुनावों में मतदाता पर्चियां चुनाव आयोग की ओर से दिया जाना और मतदान इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीन (इवीएम) से करवाए जाने के अलावा आदर्श आचार संहिता को सख्ती से लागू करने जैसे कदमों को भी कम करके नहीं आंका जा सकता।
चुनाव आयोग को बड़ा बल उच्चतम न्यायालय द्वारा दी गई उस व्यवस्था से भी मिला जिसमें इवीएम में ही नोटा बटन प्रयोग का हक मिला। ऐसा होता रहा है कि उम्मीदवार एक भी योग्य होने पर मतदाता का मतदान केन्द्र तक जाने का मन ही नहीं होता था। अब वह जाकर इस बटन के माध्यम से सभी की उम्मीदवारी को नकार सकता है। यद्यपि चुनाव आयोग और मीडिया दोनों ही इस प्रावधान के प्रति उदासीन हैं फिर भी नोटा वोटों का लगातार बढ़ता प्रतिशत लोकतंत्र में भरोसा बढ़ाने वाला है।
कोई भी लोकतांत्रिक प्रणाली धीरे-धीरे इसी तरह किशोर, तरुण हो बालिग होती है। यह भी कि अन्य कोई शासन प्रणाली लोकतांत्रिक प्रणाली से ज्यादा मानवीय अभी तक सिद्ध नहीं हुई है।

4 मई, 2015

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