Thursday, June 25, 2015

सर्वाधिक प्रतिकूल समय में वसुंधरा राजे

बड़ी ही नहीं बहुत बड़ी उम्मीदों पर सवार होकर प्रदेश और देश में आयी वसुंधरा-मोदी की सरकारें इतनी जल्दी फिसने लगेगी, विश्लेषकों ने नहीं सोचा था। मान रहे थे कि ऐसा कुछ हुआ भी तो दो-ढाई साल से पहले नहीं होगा। डेढ़ साल की वसुन्धरा सरकार 162 विधायकों के साथ अपूर्व बहुमत से आयीं। वह सफलता तब वसुंधरा की थी ओर ही मोदी की, वह सब मनमोहनसिंह के नेतृत्व में सप्रंग-दो की केन्द्र सरकार की विफलता का परिणाम था। भाजपा के पक्ष में माहौल मोदी द्वारा जगाई अंधाधुंध उम्मीदों से बना। मोदी के डीएनए में व्यापार है सो दिए गए की वसूली से वेे चूकते नहीं, पिछले तेरह सालों की उनकी कार्यशैली को देखें तो इसकी पुष्टि भी होती है।
राजस्थान में विधानसभा चुनावों की घोषणा के समय से ही मोदी, वसुन्धरा के तेवरों से असहज होने लगे थे। वसुंधरा ने विधानसभा चुनावों की चौसर लगभग अपने बूते और अपने हिसाब से बिछाई। यद्यपि वसुंधरा अन्दर से भली-भांति जानती समझती हैं कि प्रदेश में पार्टी की सफलता केवल उनकी वजह से नहीं है। ऐसा इसलिए कहा जा सकता है कि सरकार बनने के बाद उनमें वह उत्साह था और ही वैसी कार्यशैली जो 2003 के चुनावों में मिली 'मार्जिनल' सफलता के बावजूद थी। इसी बीच मोदी भी जहां लगातार पार्टी को अपने शिकंजे में लेने में सफल होते गये वहीं पितृ संस्था राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को साधने में भी पीछे नहीं रहे।
संघ के आईने में वसुंधरा राजे की पार्टी में हैसियत परम्परागत संघ परिवार की होने से अटलबिहारी वाजपेयी सी रही है, यानी जब तक आप संघ की मजबूरी बने रहेंगे तब तक ही संघ आपको बर्दाश्त करेगा। वाजपेयी ने निष्कर्म होने तक ऐसी हैसियत बनायी भी रखी। लेकिन लगता है वसुंधरा राजे ने इस तरह की हैसियत को लगभग खो दिया या यह कहें कि पिछले डेढ़ वर्षों में मोदी और अब मोदी एण्ड शाह एसोसिएट वसुंधरा की 'ढेबरी' टाइट करने में बहुत ही घुन्नाई से सफल होते दीख रहे हैं।
प्रदेश में इस बार सरकार बनाने के साथ ही वसुंधरा यदि आत्मविश्वास खोना शुरू नहीं करती और परिणाम देने को प्रवृत्त होती तो हो सकता था ललित मोदी कांड में लिप्तता के बावजूद वे संघ की मजबूरी बनी रहतीं। ललित मोदी के लिए हस्ताक्षरित सिफारिशी पत्र के बाहर आने के बाद संघ कल यह अपरोक्ष संदेश नहीं देता कि 'वह अब वसुंधरा को और समय देने के पक्ष में नहीं है।' ऐसी प्रतिकूलता वसुंधरा ने अपने राजनीतिक पेशे में इससे पहले कभी नहीं देखी। हालांकि उनके खास सिपहसालार, इस लोकतांत्रिक देश में एक सूबे के मंत्री अपने शासकीय पत्रों मेंं भी अपनी हस्तलिपि में संबोधन 'आदरणीय महारानी साहिबा' लिखने वाले राजेन्द्र राठौड़ ने जब कल कहा कि पूरी पार्टी और विधायक मुख्यमंत्री के साथ हैं तो पत्रकारों ने उनसे कहलवा ही लिया कि 'आलाकमान के इस्तीफा मांगने पर भी विधायक उनके साथ रहेंगे।'
कहते हैं कि प्रतिकूलता में विवेक खूंटी चढ़ बैठता है। पत्रकारों ने भी राठौड़ के विवेक को ताक पर रखवा कर 'बगावती बयान' दिलवा ही दिया। ऐसी ही कुछ सकपकाई प्रेस ब्रीफिंग कल रात भाजपा के खड़ाऊं प्रदेश अध्यक्ष अशोक परनामी की थी। सभी जानते हैं कि भाजपा की आलाकमान फिलहाल जितनी है उतनी आला इससे पहले कभी नहीं रही और यदि वह अपने पे गई तो पार्टी की प्रदेश इकाई वर्तमान हैसियत में नहीं रहेगी और विधायक दल के अधिकांश सदस्य राजेन्द्र राठौड़ जैसों से कन्नी काटने लगेंगे। राजस्थान के सन्दर्भ में बात करें तो मोदी एण्ड शाह एसोसिएट को इससे अनुकूल परिस्थितियां फिर नहीं मिलने वाली।

25 जून, 2015

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