Wednesday, January 8, 2014

राजीव, राहुल, प्रियंका

कल से कांग्रेस पार्टी फिर चर्चा में है। यूं कहें कि संप्रग की प्रमुख और कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी की बेटी प्रियंका गांधी वाड्रा फिर से सुर्खियों में है। बड़े लोगों और राजनेताओं की आकांक्षाओं के विपरीत प्रियंका सामान्यत: सुर्खियों से बच के निकलती रही हैं। उसे जब एहसास होने लगता है कि उसके बिना काम चलने वाला नहीं है, तभी वह अपनी सार्वजनिक सक्रियता को चौड़े आने देती हैं। शायद इसीलिए राहुल की तरह प्रियंका कामाजनाअब तक सामने नहीं आया है। वह किस तरह प्रतिक्रिया देती है, उसकी दृष्टि के कैनवस का विस्तार कितना है आदि-आदि के बारे में बहुत नजदीकी के अलावा कम ही जानते-समझते होंगे।
कांग्रेस पार्टी अब तक के अपने सबसे बुरे दौर से आशंकित दिखने लगी है। राहुल बालिग होंगे कि नहीं कहना  मुश्किल है। अपने यहां बालिग मान लेने की वैधानिक उम्र अठारह वर्ष तय की हुई है, पर देखा गया कि कुछ किशोर सोलह-सत्तरह की उम्र में परिपक्वता दिखाने लगते हैं। पर चवालीस के होने को आतुर राहुल बिना बालिग और प्रौढ़ हुए अधेड़ होते लगते हैं। उनकी इन्हींतंगियोंके चलते 2004 में कांग्रेस को मनमोहनसिंह को प्रधानमंत्री बनाना पड़ा। 1984 में राहुल के पिता राजीव गांधी पर जब प्रधानमंत्री का पद लादा गया तब वे भी चालीस के हो चुकने के बाद भी परिपक्व नहीं देखे गये। पद ग्रहण के बाद उनका पहलाउद्बोधनइसका बड़ा प्रमाण है जिसमें उन्होंने सिखों के कत्लेआम की सफाई यह कह कर दी किकोई बड़ा पेड़ जब गिरता है तो धरती हिलती ही है।लेकिन राजीव में राहुल के मुकाबले सीखने और समझने की क्षमता लोकप्रिय हो सकने के लमकों-झमकों पर पकड़ अच्छी थी। सो आम-आवाम को केवल प्रभावित करने लगे बल्कि उनमें अपने प्रति उम्मीदें भी जगा दीं। वोट आधारित लोकतंत्र में ऐसे ही गुण की महती जरूरत होती है। राहुल में इसका पूरी तरह अभाव देखा जाता है। फीडबैक राजीव भी लेते थे, फीडबैक राहुल को भी दिया जाता है, पर राजीव उसे अपने विवेक में ढालकर परोसते थे जबकि राहुल में ऐसी कुवत नहीं देखी गई।
भाई की बचकानी हरकतों से सहमी प्रियंका चिंतित नजर आने लगी हैं। मानो इन्होंने यह मान लिया है कि इस लोकतांत्रिक देश के राजतंत्र का बीड़ा उठाने की जिम्मेदारी उन्हीं के परिवार की है। परिपक्व, समझदार और चापलूस आदि-आदि जैसे सभी कांग्रेसी दिग्गज अपनी हैसियत को दरबारी से ऊपर समझने का साहस ही नहीं कर पाते हैं। जबकि यह समय प्रमुख विपक्षी भाजपा से सीख लेने का है जिसके केन्द्रीय नेताओं ने पार्टी का अस्तित्व बनाये रखने के लिए अपने-अपने अहम् और महत्वाकांक्षाओं को खूंटी टांग कर नरेन्द्र मोदी की सनकों को स्वीकार कर लिया है। मोदी का ढोंग चलेगा या नहीं, आगामी लोकसभा चुनावों में चौड़े जायेगा। यदि चल गया और देश को उसे भुगतना पड़ा तो इसके लिए नेहरू-गांधी परिवार से ज्यादा रीढ़विहीन कांग्रेसी नेता जिम्मेदार होंगे। मान लें कि प्रियंका में अपनी दादी इन्दिरा गांधी वाली क्षमताएं हैं, तब क्या वह राबर्ट वाड्रा की छाया से मुक्त होने के लिए बड़ी कीमत चुकाने को तैयार होंगी? लगता तो नहीं है कि पार्टी की साख बचाने के लिए वह इस स्तर के त्याग को तैयार होंगी, अन्य किसी दिग्गज कांग्रेसी को कमान सौंपी जाए तो या तो वह मनमोहनसिंह की तरहखड़ाऊ व्यक्तित्वसाबित होगा और यदि नरसिम्हा राव साबित हुआ तो नेहरू गांधी परिवार की भूमिका भारतीय राजनीति में हमेशा के लिए खत्म हो जायेगी। ऐसा नहीं होने पर भी आशंका तो दीख ही रही है!

08 जनवरी, 2014

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