मित्र जयंत का सुबह-सुबह अहमदाबाद से फोन था, वे आशंकित थे कि यदि ‘आम आदमी पार्टी’ असफल हुई तो लोकतंत्र से लोगों की उम्मीदों को धक्का लगेगा और यह धारणा बलवती होगी कि लोकतंत्र भी सभी समस्याओं का समाधान नहीं है। अप्रैल, 2011 के बाद अन्ना आन्दोलन के समय मीडिया के माध्यम से सार्वजनिक जीवन में रुचि रखने वाले उन सभी की उम्मीदें परवान चढ़ती देखी गई जो कांग्रेस और भाजपा सहित स्थापित अन्य सभी क्षेत्रीय पार्टियों से नाउम्मीद हो चुके हैं। अन्ना के इस आन्दोलन की शुरुआत से ही जब-तब ‘विनायक’ अन्ना, उनके साथियों और उनके एजेन्डे की सीमाओं और आशंकाओं से अपने पाठकों को रूबरू करवाता रहा है, समय की कसौटी ने अधिकांश की पुष्टि भी की है।
सिस्टम, व्यवस्था या तंत्र में बदलाव तब तक सम्भव नहीं है जब तक व्यक्ति की सोच में बदलाव न हो। अन्ना आन्दोलन का और उनसे छिटक कर बनी आम आदमी पार्टी का सारा जोर केवल सिस्टम में बदलाव पर था। अन्ना और ‘आम आदर्मी पार्टी’ से उम्मीदें बना बैठों में कई तरह के लोग शामिल हैं, वे भी जो इस सड़ी-गली और भ्रष्ट व्यवस्था से सचमुच छुटकारा चाहते हैं, वे भी जो इस व्यवस्था में अपने हित साध नहीं पा रहे थे, वे भी जिन्होंने कांग्रेस, भाजपा या अन्य किसी क्षेत्रीय पार्टी से या उनके किसी स्थानीय नेता से खुंदक पाल रखी हो, कुछ ऐसे भी हैं जिनकी चौधर इन स्थापित पार्टियों में नहीं चली।
सचमुच छुटकारा चाहने वाले वर्ग को छोड़ दें तो अन्ना और ‘आप’ से जुड़े शेष सभी तरह के लोगों का मकसद निस्स्वार्थ
नहीं है और सक्रियता भी ऐसे ही लोग दिखा पाते हैं। अच्छी मंशा वाले अधिकांश इसी उम्मीद में रह जाते हैं कि केवल उनकी अच्छी मंशा मात्र से बदलाव आ जायेगा। ऐसे लोग भूल जाते हैं कि भारतीय लोकतंत्र अभी परिपक्व नहीं हुआ है कि केवल अच्छी मंशा से काम चल जायेगा। लोकतंत्र के इस ‘प्रदर्शन कला’ काल में अच्छी मंशा का प्रदर्शनकारी होना भी जरूरी है अन्यथा उस स्थान पर कुमार विश्वास, शाजिया इल्मी और अपना ‘राजनीतिक सिट्टा’ सेकने की नीयत से कांग्रेस से आये विनोद बिन्नी जैसे लोग काबिज हो लेंगे और न केवल काबिज हो लेंगे बल्कि अपने-अपने स्वार्थों के वशीभूत इस दौर में उम्मीद बनी ‘आप’ को हिचकोला देने से भी नहीं चूकेंगे।
दिल्ली विधानसभा चुनावों से ऐन पहले चौड़े आए कुमार विश्वास और शाजिया इल्मी से सम्बन्धित दो नम्बर की डील के स्टिंग वीडियो के समय ‘आप’ पार्टी इनको किनारे कर देती तो पार्टी की प्रतिष्ठा बढ़ती पर बजाय इसके योगेन्द्र यादव जैसे संजीदा और सुलझे व्यक्ति को इन दोनों के हास्यास्पद बचाव में उतरना पड़ा, उसी दिन से लगने लगा था कि ‘आप’ स्थापित पार्टियों के रास्तों की बजाय साथ की पगडंडियों पर चल कर ढोंग ही कर रही है। रही-सही कसर रामलीला ग्राउण्ड में शपथ लेने का निर्णय करके पूरी कर दी जबकि इस आयोजन की संवैधानिक औपचारिकता को उन्हें उपराज्यपाल के निवास पर जाकर बिना ताम-झाम के पूरी करके उदाहरण पेश करना था अन्यथा वसुन्धरा राजे के शपथ ग्रहण समारोह और केजरीवाल के शपथ ग्रहण समारोह में खर्चे में कुछ अन्तर के अलावा क्या फर्क था?
उम्मीदों को बनाये रखने का उनके पास अब भी समय है। जरूरी नहीं है कि लोकसभा का चुनाव बूते से बाहर जाकर लड़े। जितनी सीटों पर भी लड़े साफ-सुथरे उम्मीदवारों के साथ सावचेती से लड़े। जनता की उम्मीदें टूटी तो पता नहीं उनमें फिर कब जोड़ लगेगा। कांग्रेसी कुएं से निकलने की छटपटाहट उन्हें भाजपाई खड्डे में पड़ने को ही मजबूर करेगी जो नरेन्द्र मोदी जैसे लोकतान्त्रिक
मूल्यों में सर्वथा ‘अनफिट’ व्यक्ति के नेतृत्व में तो और भी खतरनाक होगा।
17
जनवरी, 2014
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