संप्रग-दो की सरकार से मोहभंग से बनी गुंजाइश पर कब्जा जमाती ‘आम आदमी पार्टी’ से उपजी खीज भाजपाइयों में भिन्न-भिन्न रूपों में दिखने लगी है। खीज में सकारात्मकता
यही है कि वह कहीं ‘आप’ का अनुसरण करती दिखायी देती है तो कहीं पैरोडी बनाती। हालांकि दिल्ली विधानसभा चुनावों के ठीक बाद ‘आप’ से सीख लेने की पहली हिदायत कांग्रेस के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष राहुल गांधी ने अपने पार्टी कार्यकर्ताओं
को दी थी--पर लगता है उस हिदायत को हृदयंगम भाजपाइयों ने किया है।
‘आप’
के अनुसरण में कल दिल्लियन भाजपाइयों ने टोपियां लगानी शुरू क्या की कि सोशल नेटवर्क साइट्स पर जबरदस्त हलचल शुरू हो गई। इसे ‘आप’ की नकल कहने पर ‘मोदियन’ कहां बर्दाश्त करते, अपनी स्थापित छवि के अनुसार कुछ कपड़ों से बाहर देखे गये तो कुछ खिसियाये-से।
दुनिया में वैसे कुछ भी शत-प्रतिशत पहली बार होता नहीं देखा जाता है। थोड़े बहुत बदलाव के साथ नये रूपों में परोसा भर जाता है। यहां तक कि हमारे मुग्ध भारतीय लोग पश्चिम की किसी वैज्ञानिक उपलब्धि को भी यह कह कर हलका करने से नहीं चूकते कि इसकी कल्पना हमारे वेदों और मिथकों में पूर्व में ही कर ली गयी थी।
बात टोपी की हो रही है तो माथे को फिर उसी में ‘घुसेड़े’ लेते हैं। 80-100 वर्ष पहले के भारतीय भू-भाग के काल पर नज़र डालें तो टोपी माहात्म्य का पता चल जायेगा। अपना तन ढकने के न्यूनतम से थोड़ा भी ज्यादा सामर्थ्य रखने वाले को नंगे सिर नहीं देखा जाता था, फिर चाहे वह किसी भी जाति या धर्म समुदाय का ही क्यों न हो। सिर ढकना तहजीब या शिष्टाचार का हिस्सा माना जाता था। परम्परा बन चुकी यह तहजीब कई धार्मिक व आस्था स्थलों पर अब भी देखी जा सकती है जहां नंगे सिर जाना अशिष्टता माना जाता है। भारतीय भू-भाग के विभिन्न हिस्सों में सिर को सैकड़ों प्रकार से ढका जाता था। अनेक तरह की पगड़ियां, पाग, साफे, फेंटे और भिन्न-भिन्न तरह की टोपियां पहनने का प्रचलन था।
हाल का टोपी दौर 2011 से तब शुरू हुआ जब गांधी को प्रेरक माननेवाले अन्ना हजारे ने रालेगण सिद्धी, महाराष्ट्र से आकर दिल्ली में देश में व्याप्त भ्रष्टाचार के खिलाफ लोगों में चामत्कारिक उद्वेलन पैदा कर दिया। अन्ना की पोशाकी सम्पूर्णता खादी कपड़े से बनी सफेद टोपी से पूरी होती है, जिसे गांधी टोपी कहा जाता है। पिछली सदी के दूसरे दशक के अन्त में गांधी जब दक्षिण अफ्रीका से भारत लौटे तो उन्होंने तय किया कि खुद के हाथ से बने कपड़े की टोपी पहन कर इस तहजीब का निर्वहन करेंगे। देश की आजादी के आन्दोलन में गांधी तरीकों में विश्वास करनेवाले सभी गांधी जैसी टोपी पहनने लगे थे। इसीलिए इस टोपी को आज तक गांधी टोपी कहा जाता है। हालांकि गांधी ने देश में गरीबी के हालात देखे तो उन्हें अधिकांश भारतीयों का पहनावा और खान-पान जरूरत भर का लगा, ऐसे में खुद ने तय किया कि वह भी जरूरत भर का न्यूनतम पहनेंगे और खाएंगे। उनके इस संकल्प के बाद उन्हें सर्दियों के अलावा लंगोटी में ही देखा गया। सर्दियों में भी वे हाथ से बुने ऊनी शॉल से अपना बदन ढकते थे।
अन्ना हजारे की टोपी भी गांधी टोपी ही कहलाती है। अप्रैल 2011 में शुरू हुए अन्ना के आन्दोलन के बाद उनका अनुसरण करने वाले सभी गांधी टोपी में देखे जाने लगे। पर एक फर्क था कि उस पर स्लोगन लिखे जाने लगे थे, ‘मैं भी अन्ना, मैं अन्ना हूं या आम आदमी’ आदि-आदि। बाद में जब अन्ना के अनुगामियों में व्यावहारिक और वैचारिक मतभेद हुआ तो उनके प्रमुख साथी अरविन्द केजरीवाल को अलग होना पड़ा। ऐसे अलगावों को लोकतंत्र में सकारात्मक लिया जाना चाहिए, जबकि सामान्यत: ऐसा नहीं होता।
केजरीवाल द्वारा राजनीतिक दल बनाए जाने के विचार से अन्ना और कुछ अन्य सहमत नहीं थे सो रास्ते अलग हुए। दिल्ली विधानसभा चुनावों में केजरीवाल की ‘आम आदमी पार्टी’ को लोगों का समर्थन उम्मीद से ज्यादा मिला। कांग्रेसी कुएं और भाजपा की खाई से बचने को आतुर मतदाताओं ने विकल्प में ‘आप’ को अपनाया। ऐसे में भाजपाइयों को पुरसी थाली बजाय आने के, जाती दीखने लगी है। मरता क्या नहीं करता की तर्ज पर प्रदेशों की सभी भाजपाई सरकारें और भाजपाई ‘आप’ की पैरोड़ी पर उतर आए। भाजपा की मातृसंस्था राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की काली टोपी पर चामत्कारिक ढंग से न केवल भगवा रंग चढ़ गया बल्कि अक्ल को बिना काम लिए की नकल ने उस पर स्लोगन भी छपवा दिए। रही बात गांधी टोपी पर ‘पुश्तैनी’ हक मानने वाली और फिलहाल नंगे सिर की कांग्रेस की चूंध चार प्रदेशों में पस्तगी के बाद अभी उतरी नहीं है, हो सकता है चूंध उतरने तक उसे दूसरे टोपी पहना जाएं।
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जनवरी, 2014
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