Wednesday, November 20, 2013

उम्मीदों को हरा रखना जरूरी

कांग्रेस के घोषित स्टार प्रचारक राहुल गांधी कल बीकानेर आए और लौट गये। आज से बीस-तीस साल पहले तक इस तरह की सभाओं में मतदाता बिना किसी प्रलोभन और दबाव के आते थे और सभा से लौटते में उनकी भाव भंगिमाओं से चुनावी रुख को भांपा जा सकता था। लेकिन इन वर्षों में मामला उलट गया है। सभी पार्टियां अपनी रैलियों में भीड़ जुटाने के लिए कई तरह के पापड़ बेलती हैं, सभी तरह के हथकण्डे काम में लेती हैं तब कहीं जाकर सम्बन्धित नेताओं की साख आंच से बच पाती है।
इन रैलियों में जाने वाले तमाशबीनों में अपनी उपस्थिति के मौल भाव करने की समझ गई है। देखा गया है कि इस तरह की राजनीतिक रैलियों में भीड़ जुटाना इसीलिए लगातार मुश्किल होता जा रहा है और जब मुख्य भाषणकर्ता के आने में घंटे-दो-घंटे देरी हो जाए तो आयोजकों के गले पर बन आती है। इस तरह की रैलियों का प्रबन्ध करना लगातार महंगे होते जाने के कारण नेताओं का हवाई जहाजों और हेलिकॉप्टर में आना-जाना, श्रोताओं के आवागमन और उनके खान-पान की व्यवस्था और कभी-कभार उन्हें दिहाड़ी पर लाना टेढ़ी खीर होने लगा है। इसके अलावा भी बड़े नेताओं की सुरक्षा के नाम पर करोड़ों का सार्वजनिक धन खर्च होना एक अलग मुद्दा तो है ही। ऐसे सब झंझटों के चलते लगता है कि शहरों में पहले कभी होने वाली चुनावी सभाओं की तरह यह बड़ी रैलियां भी होनी बन्द हो जायेगी।
सुराज संकल्प की बीकानेर में वसुन्धरा की सभा हो या सन्देश यात्रा की अशोक गहलोत की सभा का बारिश के चलते रद्द होना हो। होने या ना हो पाने, दोनों ही में आयोजनों में लगे हुओं की साख ताक पर देखी गई। सभा के रद्द हो जाने पर कांग्रेसियों में ज्यादा राहत देखी गई।
जैसा कि शुरुआत में जिक्र किया कि इस तरह की बड़ी सभाओं और रैलियों के आयोजकों को ज्यों-ज्यों इनकी व्यर्थता का एहसास होने लगेगा त्यों-त्यों इनके प्रति उत्साह कम होता जायेगा। एक बड़ा कारण यह भी है कि उम्मीदवारों को धीरे-धीरे समझ में आने लगा कि वह धनबल सहित अपने पूरे अमले को दो-तीन दिन ऐसी रैलियों के आयोजन में क्यों झोंके जिनसे कुछ खास हासिल ना होना हो। वह अपनी ऊर्जा और साधनों का उपयोग मतदाता से सीधे रूबरू हो कर उसे प्रभावित करने में क्यों ना लगाए।
चुनावों के दौरान पनपने वाली बुराइयों और उन बुराइयों को अंजाम दिए जाने की घटनाओं के बावजूद आचार संहिता का सख्ती से पालन, सुप्रीम कोर्ट का दियानोटा’ (सभी उम्मीदवारों को नकारने का अधिकार) बटन, निर्वाचन विभाग का मत प्रतिशत बढ़ाने का अभियान और मतदाता में रही परिपक्वता लोकतंत्र के प्रति भरोसा बढ़ाती ही है। उम्मीद करनी चाहिए कि एक दिन हम सचमुच के अच्छे लोगों को चुनना शुरू कर देंगे।


20 नवम्बर, 2013

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