‘राजनीति में लोग कई कारणों से आते हैं, कुछ
तो केवल सहती-सहती
राजनीति करने के लिए
कि कभी कोई
पद, प्रतिष्ठा मिल जाये तो ठीक, नहीं तो इसी
से खुश हो
लेते हैं कि
कुछ बड़े नेताओं का हाथ उन पर
है। कुछ अपने
व्यापार-उद्योग में लाभ और सुविधाएं ही हासिल करने के मकसद
से आते हैं।
कुछ ही साहसी होते हैं, जो
चुनाव का सामना करने के हौसले के साथ
राजनीति करते हैं। गोपाल गहलोत और गोविन्द मेघवाल इसी तरह के
हिम्मती हैं। विधानसभा चुनावों में अभी
दो साल हैं
बहुत समझदारी और साहस
के साथ रणनीति बनायें तो ये कुछ
हासिल भी कर
सकते हैं।’
विनायक सम्पादकीय, 7 दिसम्बर 2011
पिछले दस वर्षों में अन्य पिछड़ा वर्ग से आने वाले भाजपा नेता गोपाल गहलोत ने ना केवल भरोसा दिखाया बल्कि महापौरी की सामान्य वर्ग की दावेदारी की बारी में भाजपा से उम्मीदवारी भी हासिल कर ली। इस चुनाव में हार जीत के कारणों का विश्लेषण करना फिलहाल जरूरी नहीं, पर गोपाल गहलोत ने अपने को पहला गैर उच्च जातीय वर्ग का सशक्त उम्मीदवार साबित किया है।
विनायक सम्पादकीय, 30 सितम्बर 2013
खाजूवाला सीट से पूर्व भाजपाई गोविन्द मेघवाल को टिकट देने के बाद कांग्रेस ने बीकानेर (पूर्व) से भी भाजपा प्रदेश कार्यकारिणी सदस्य गोपाल गहलोत को टिकट दे दी है। इसीलिये विनायक के अपने सम्पादकीयों
के उक्त अंश पुनर्प्रकाशित करना प्रासंगिक
लगा। बीकानेर का राजनीतिक माहौल पूरी तरह गरमा गया है, हो सकता है खाजूवाला की तरह की कुछ प्रतिक्रियाएं यहां से भी आएं लेकिन कोई बड़ी चुनौती उभरती नहीं लगती।
प्रदेश में कांग्रेस ने जिस तरह से टिकट बांटे गये हैं उससे साफ जाहिर है कि 2008 से ज्यादा छूट के साथ अशोक गहलोत फिलहाल पूरे ‘फोरम’ में हैं और इसीलिए प्रदेश में पुन: कांग्रेस
की सरकार बनाने का पूरा दारमदार भी अशोक गहलोत पर ही है। प्रदेश कांग्रेस
के टिकट बंटवारे में राहुल के सारे नियम-कायदों को किनारे कर अशोक गहलोत ने हर उस संभव को आजमाया है जिससे कांग्रेस की सीटें बढ़ सके। फिर वह नागर, मदेरणा, मलखान के परिजनों को टिकट देने का मामला हो या उम्रदराज और पूर्व बागियों को टिकट देने का निर्णय। झुंझुनूं जिले में जरूर शीशराम ओला अड़े दिखाई देते हैं लेकिन इसे लेकर अशोक गहलोत को कोई खास परेशानी इसलिए नहीं है कि अगर वहां सीटें नहीं मिलती हैं तो भी दावं पर साख ओला की ही है।
गोपाल गहलोत को कांग्रेस का टिकट दिया जाना इसलिए चौंकाने वाला नहीं कहा सकता क्योंकि गोपाल गहलोत मन बना लिए होते तो 2008 में ही डॉ. तनवीर की जगह वही उम्मीदवार
होते। तब भी इस तरह के प्रयासों की सुगबुगाहट थी। गोपाल गहलोत तब अशोक गहलोत की मंशा पर तत्पर होते तो उस चुनाव की फिज़ा कुछ और होती। बीकानेर (पूर्व) को लेकर अशोक गहलोत के मन में पिछले चुनाव से ही गोपाल गहलोत लगातार रहे हैं।
कांग्रेस के इस दावं के बाद गोपाल गहलोत की ही जिम्मेदारी ज्यादा बनती है कि क्षेत्र के सभी समुदायों का विश्वास हासिल कर चुनाव को बराबरी पर ले आएं। इसके लिए उन्हें धैर्य के साथ राजनीतिक चतुराई ज्यादा दिखानी होगी। अन्यथा डॉ. तनवीर मालावत की बुरी हार के बाद इस सीट पर जिस तरह अल्पसंख्यकों का दावा कमजोर हुआ है उसी तरह मूल पिछड़ों का दावा खत्म भी हो सकता है। कल नामांकन का आखिरी दिन है, इसके बाद ही शहर का चुनावी रंग परवान पर चढ़ेगा। इन दो दिनों में देखने वाली बात यह होगी कि कितने भाजपाई गोपाल गहलोत के साथ आ पाते हैं!
11 नवम्बर, 2013
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