Wednesday, April 8, 2015

समस्याओं से जूझता शहर और ऊँघते जनप्रतिनिधि

प्रशासन, जनप्रतिनिधि और राजनेताओं से सम्बन्धित कल की दो उल्लेखनीय घटनाएं हैं। सुजानदेसर के एक नाले का गंदा पानी परसों देर रात रिहायशी इलाके में घुसकर वहां के बाशिंदों की नींद हराम करने पर उतारू हो गया था। लगातार बढ़ रहे पानी से आशंकित लोग राहत के लिए पहले तो अपने पार्षद के घर पहुंचे। पार्षद चूंकि महिला हैं सो सारी फदर पंचाई इनके पति ही करते हैं। बावजूद इसके वार्ड में आई आफत पर पार्षद और उनके पति ने उठकर जीभ का उत्तर देना भी जरूरी नहीं समझा। विवश होकर लोग इसी उपनगरीय क्षेत्र में रहने वाले महापौर के घर पहुंच गये। स्थितियां पार्षद के घर जैसी ही वहां थीं। कोई उठकर बाहर नहीं आया। बाद में लोग कलक्टर निवास पर पहुंचे तो सुरक्षाकर्मी ने यह कहकर लौटा दिया कि आपके साथ कोई नेता नहीं है इसलिए कलक्टर मेम को उठाया नहीं जा सकता।
यह घटनाक्रम कल 'विनायक' सहित आज के अखबारों में पाठकों ने पढ़ लिया। साथ में यह भी पढ़ लिया होगा कि आखिर में हार कर मोहल्लेवासियों ने बढ़ते पानी को रोकने के अस्थाई उपाय खुद ही किए। यह सब हो लिया तब कल महापौर कलक्टर भी मौके पर पहुंच गये। कुछ फौरीतौर पर इंतजामात करने के निर्देश भी दे दिए। विचार करने वाली बात यह है कि इस तरह की अव्यवस्थाओं को व्यवस्थाओं में बदलने के लिए उनकी तरफ ध्यान देना और उसी आधार पर शासन से निर्देश दिलवाने की जिम्मेदारी आखिर किसकी है? ये ऐसी समस्याएं हैं जिनके समाधानों का क्रियान्वयन हालांकि प्रशासन करता है लेकिन उसकी भी अपनी सीमाएं है। इनमें से अधिकांश अधिकारियों को ऐसी समस्याओं की जानकारी ही नहीं होतीध्यान में ला भी दिया जाये तो बजट तथा सम्बन्धित क्रियान्वयन विभाग के अलग होने जैसी बाधाएं भी जाती हैं।
अब कल की इस घटना पर बात करें तो यह बीकानेर के अन्दरूनी शहर के पश्चिमी हिस्से का गंदा पानी श्रीरामसर गांव से होते हुए नाले के माध्यम से दक्षिण-पश्चिम में स्थित सुजानदेसर गांव पहुंचता है। ऐसे में जिम्मेदारी जनप्रतिनिधियों की ही बनती है कि इसे दुरुस्त रखने की योजना को सिरे तक पहुंचाएं। लेकिन इस शहर के विधायक चाहे कोई रहे हों, उनमें से किसी ने अपनी सोच, दृष्टि और कार्यप्रणाली, इस तरह की कभी रखी ही नहीं कि यहां के बाशिंदों को भविष्य में दिक्कत कम से कम हो।
वहीं शहर के ही क्यों, गांवों के लोग भी जब देखो हर समाधान के लिए कलक्टरी ही पहुंचते हैं। क्यों नहीं वे अपने विधायकों की ओर रुख करते। आखिर आपने उन्हें जिताकर किसलिए भेजा है? ऐसे ही मोहल्ले की छोटी-बड़ी समस्याओं के समाधान के लिए पार्षदों की जिम्मेदारी आम-अवाम खुद तय क्यों नहीं करता। दरअसल इन जनप्रतिनिधियों को नाकारा इस तरह हम ही ने बनाया है।
दूसरी घटना में राजनेता उघाड़े हुए हैं। रामपुरा मोहल्ले के पास से निकलने वाली बाइपास सड़क पर नगर विकास न्यास का अमला अतिक्रमण हटाने गया तो भाजयूमो के पूर्व प्रदेश उपाध्यक्ष अपने साथियों के साथ विरोध करने लगे। उन्हीं के सुर में सुर भाजपा के प्रदेश उपाध्यक्ष नन्दकिशोर सोलंकी भी मिलाने लगे। जब ये कब्जे होते हैं तब केवल हलर-फलर राजनेताओं की शह से होते हैं बल्कि प्रशासन कुछ करना चाहे तो ये दाबा-चींथी से भी बाज नहीं आते। ऐसे में प्रशासन को क्या पड़ी है।  पोस्टिंग के रहते अफसरों की तो साल से तीन साल तक की जिम्मेदारी होती है। इसलिए अधिकांश किसी माथा-फोड़ी में पड़ते ही नहीं हैं। पानी सिर से गुजरने लगता है तब कल जैसी कोई कार्रवाइयां होती है। आखिर शहर हमारा है, इन अधिकारियों का नहीं। सस्ती लोकप्रियता और हाजरियों के चंगुल से ऊपर उठकर नहीं विचारेंगे तो स्थितियां कल जैसी ही होंगी और भी विकराल हो सकती हैं। सोच यही हो कि होगा तब देखा जायेगा, अभी तो उल्लू सीधा कर लेंऐसे में उल्लू शहर को ही बनना है। आम-अवाम को भी खुद में थोड़ी जागरूकता लानी होगी कि जिन्हें आप वोट देते हैं, सार्वजनिक जरूरतों के लिए जाएं भी उन्हीं के पास। विधायकों को भी अपने स्थाई आवास अपने क्षेत्र में रखने चाहिएं। विधानसभा चल रही हो तब राजधानी के हो लें या जरूरत हो तो तब पहुंच जाएं आखिर जनता के धन से ही आना-जाना करना है।  बीडी कल्ला, मानिकचन्द सुराना, वीरेन्द्र बेनीवाल, देवीसिंह भाटी, जैसे लम्बी पारी खेल रहे नेताओं ने आखिर अपने स्थाई आवास क्यों राजधानी में थरप रखे हैं। क्या रोज की माथा फोड़ी से डरकर प्रवासी बने हैं या कोई अन्य कारण भी है।

8 अप्रेल, 2015

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