Monday, April 13, 2015

पत्रकारीय पेशा : अपनों से अपनों की बात

शासन की लोकतांत्रिक व्यवस्था का प्राचीनतम प्रमाण लगभग ढाई हजार वर्ष पुराने यूनान से मिलता है। उसके बाद पिछले लगभग एक हजार वर्षों में शासनों के ऐसे छिटपुट लोकतांत्रिक होने के उल्लेख दुनिया में कई जगह मिल जाते हैं, उनमें भारत के कुछ उल्लेख भी हैं। लेकिन ये व्यवस्थाएं आज के लोकतांत्रिक शासनों जैसी नहीं थी। वैसे आज की लोकतांत्रिक शासन व्यवस्थाओं को भी आदर्शतम नहीं कहा जा सकता लेकिन विकास प्रक्रिया से आज जहां तक पहुंची है, वह पुरानी से बहुत बेहतर है। इस जैसी-तैसी व्यवस्था को हासिल करने के लिए भी मानव सभ्यता को बहुत-कुछ भुगतना पड़ा है।
आज यह बात इसलिए कर रहे हैं कि बीकानेर की ही एक संस्था अजित फाउण्डेशन ने कल 'वर्तमान पत्रकारिता के सामाजिक सरोकार' विषय पर संगोष्ठी रखी थी जिसमें लोकतंत्र का चौथा खम्भा मानी जानी वाली पत्रकारिता पर चर्चा हुई। कुछ पत्रकार चाहते थे कि उन्हें इस 'चौथे खम्भे के भार' से मुक्त कर दिया जाए। तब यह बात भी उठी कि यह भार दिया किसने है, आधिकारिक तौर पर तो किसी ने नहीं। लोकतांत्रिक मूल्यों के विकास में अभिव्यक्ति या कहें पत्रकारिता की उल्लेखनीय भूमिका रही है सो, यह माना जाने लगा कि यह लोकतंत्रीय ढांचा व्यवस्थापिका (संसद और विधानसभाएं), न्यायपालिका, कार्यपालिका (शासन) और पत्रकारिता (मीडिया) जैसे चार खंभों पर ही टिका रह सकता है। लोकतांत्रिक व्यवस्था में इसी धारणा के आधार पर ही अन्य सभी पेशों से अतिरिक्त सम्मान पत्रकारीय पेशे को दिया जाता है। यह भी कि जब-जब लोकतांत्रिक मूल्यों पर संकट की आशंकाएं मण्डराने लगती हैं तब-तब लोकतंत्र की नजरें अपने इसी चौथे खम्भे--मीडिया पर ही टिकती है। अनेक उदाहरण हैं जब इसी चौथे खम्भे ने इसे ऐसे संकटों से निकालने में महती भूमिका अदा की।
बाजारीकरण के इस युग में इस पेशे से जुड़े कुछ लोग इस लेबल से मुक्त होना चाहें तो कौन रोकता है। बहुत से लोगों ने अघोषित रूप में अपने को मुक्त मान लिया है। इसीलिए ऐसी आकांक्षाएं पनप रही हैं और सवाल भी खड़े किए जा रहे हैं। बावजूद इसके जब तक लोकतांत्रिक आकांक्षाएं कायम रहेंगी तब तक पत्रकारिता से उम्मीदें भी रखी जाएंगी।
दरअसल कल की गोष्ठी जिस हश्र को हासिल हो गई, वैसी मंशा आयोजक और अध्यक्षता कर रहे संस्था-प्रधान प्रो. विजयशंकर व्यास की नहीं रही होगी। काश, मुख्यवक्ता और हरिदेव जोशी पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय के कुलपति सनी सेबेस्टीन अपने विश्वविद्यालय का परिचय पहले देने का लोभ छोड़ देते। यहीं से शुरू हुआ विषयांतर बीच में संभालने की एक कोशिश के बावजूद संभल नहीं पाया और अच्छे और उद्देश्यपूर्ण विषय पर चर्चा होने से रह गई। सेबीस्टीन अच्छे पत्रकार रहे हैं और उनकी पहचान सामाजिक सरोकारी पत्रकार के रूप में मानी जाती है, लेकिन लगता है सहजता और सरलता के चलते वे अपनी बात का विषयानुरूप निर्वहन नहीं कर पाये।
चर्चा व्यक्तिगत और पेशेगत वेदनाओं, समस्याओं और संकटों पर ही केन्द्रित हो कर रह गई। व्यक्तिगत को छोड़ भी दें तो पेशेगत वेदनाओं, समस्याओं ओर संकटों पर चर्चा होनी ही चाहिए। इसके लिए कोई अन्य गोष्ठी आयोजित की जाती या इस गोष्ठी का विषय ही ऐसा रखा जाता। इस सबके चलते हुआ यह कि एक महत्त्वपूर्ण और वर्तमान में जरूरी विषय पर बात करने का अवसर हमने खो दिया। ऐसी गंभीर सभा-गोष्ठियां आपे को आईना दिखाकर संवरने का अवसर दे सकती है, बशर्तें ऐसे अवसरों को हम खोएं नहीं।
यह और भी चिन्ताजनक है कि शहर को चेतन रखने का दम भरने वाले यहां के पत्रकारीय समूह में फांक ऐसे आयोजनों में साफ दीखने लगी है। पत्रकार यदि छोटी-छोटी आकांक्षाओं दंभों से ऊपर नहीं उठेंगे तो उन्हें इस चौथे खम्भे के भार की चिन्ता ही नहीं करनी चाहिए। इस तरह वह खुद को स्वत: ही मुक्त कर लेंगे। अन्य पेशेवरों सी सुविधाएं एवं लालच चाहने और उन्हें पाने के लिए तब वे स्वतंत्र ही है।
उम्मीद करते हैं कि जिस अतिरिक्त सम्मान का हकदार इस पत्रकारीय पेशे को माना जाता है और समाज जिसे देता भी है। इस तरह उसके लिहाज की जिम्मेदारी भी पत्रकारों की हो जाती है। कार्यक्रम के आयोजकों ने तो कल मंच देकर अपनी सामाजिक जिम्मेदारी पूरी कर ली, पर उसका हासिल क्या है, इस पर भी हमें गुनना चाहिए।

13 अप्रेल, 2015

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