Wednesday, April 29, 2015

बहानों के लिए बहकने लगे हैं मोदी


पिछले आम चुनावों के धुआंधार प्रचार के दौरान नरेन्द्र मोदी द्वारा किए वादे और कहे गये अन्य शब्द कोरे चुनावी थे, ये साबित होने लगा है। अब तक ऐसा ही होता आया है, यद्यपि इस कहे-सुने का स्तर लगातार गिरता जा रहा है। सरकार बनने के बाद पक्ष-विपक्ष दोनों ही चुनाव के दौरान कहे-सुने को भूल जाने की परम्परा का निर्वहन करते रहे हैं। प्रधानमंत्री बनने के बाद नरेन्द्र मोदी ने स्वतंत्रता दिवस पर लालकिले से दिए भाषण में पिछली सभी सरकारों के किए का उल्लेख करते हुए इसका संकेत भी दिया। लेकिन, मोदी बोलते-बोलते कब राजनेता हो जाते हैं और कब प्रधानमंत्री, पता ही नहीं चलता। ऐसी स्थिति अस्थिर मन की होती है। स्वस्थ मन वाले की तभी गड़बड़ाती है जब वह नशे में होता है। मोदी किस स्थित में पाला बदलते हैं कह नहीं सकते।
हाल ही की अपनी कनाडा यात्रा के दौरान मोदी उस समय कोरे राजनेता हो गये जब वहां के भारतीय समुदाय को वे सम्बोधित कर रहे थे। वहां उन्होंने भारत की सरकारों के सन्दर्भ से कह दिया कि पिछले लोग बहुत गंदगी कर गये हैं, हम उसकी सफाई में लगे हैं। देश को घोटाले वाली छवि से मुक्त करवाना है, जड़ें जमा चुकी समस्याओं को दूर करने में समय लगेगा।
देश की जैसी व्यवस्था है उसके परिप्रेक्ष्य से बात करें तो मोदी ने गलत कुछ भी नहीं कहा। लेकिन दूसरे देश में जाकर ऐसे समूह जिनमें अधिकांश ऐसे भारतीय हैं जो पीढिय़ों से वहां रह रहे हैं या वे जिन्होंने वहां की नागरिकता हासिल कर ली है और जिनका अब भारत के साथ रिश्ता भावुकता से अधिक नहीं, ऐसों के सामने देश का रोवणा रोना तर्क संगत नहीं कहा जा सकता और वह भी तब जहां विदेशी मीडिया भी हो। कूटनीतिक इतिहास में ऐसा कोई उदाहरण नहीं मिलता। 1977 के बाद अपने देश में भी अलग-अलग दलों की सरकारें रहीं है जिनमें भाजपा नेतृत्व वाली राजग की सरकारें भी थी। लेकिन विदेश में इस तरह रोवणा रोने का उदाहरण याद नहीं आता।
देश में व्याप्त भ्रष्टाचार और उससे प्रसूत निकम्मेपन और लेटलतीफी की आदतों की बड़ी जिम्मेदार कांग्रेस को इसलिए कह सकते हैं कि अधिकांश समय शासन इसी पार्टी का रहा। लेकिन 1977 के बाद तो ऐसा एकाधिकार नहीं रहा। इन अड़तीस वर्षों में चौदह-पन्द्रह साल गैर कांग्रेसी सरकारें रही हैं। इन सरकारों की भी नीतियां और तौर-तरीके ऐसे नहीं देखे गये कि वे व्यवस्था में कुछ बदलाव चाहती हों, इनमें खुद नरेन्द्र मोदी का ग्यारह महीनों का शासन शामिल है। खुद मोदी को भी संभवत: लगने लगा है कि इस व्यवस्था को बदलना उनके बूते की बात नहीं है। तभी चुनावों में किए वादों पर कुछ कर पाने का बहाना वे इस तरह ढूंढऩे लगे हैं।
भ्रष्टाचार का मुख्य स्रोत राजनीति और राजनेता ही हैं। देश में भ्रष्टाचार को बढ़ावा इन नेताओं की शह से मिला है। इन्हें पार्टी और अपने लिए केवल अपार धन चाहिए बल्कि वोटों के लिए गैर मानवीय समझौता करते भी ये देर नहीं लगाते। 'पार्टी विद डिफरेंस' का कभी दावा करने वाली भाजपा ने पिछले दो सालों के चुनावों में जिस तरह कांग्रेस से बढ़चढ़ कर धन खर्च किया और हथकण्डे अपनाए, 'विनायक' ने तभी कह दिया कि ये कांग्रेस को अच्छा कहलवाने पर तुले हैं। इन ग्यारह माह में यह साबित भी हो रहा है।
जिनसे कृतार्थ होकर सत्ता तक पहुंचे हैं उनका अहसानमंद होना होता है और मोदी ऐसे अहसानों को उतारने में ही जुटे हैं। मोदी यदि व्यवस्था में बदलाव की शुरुआत करते हैं तो अहसानों का चुकारा फिर नहीं होगा। जिस तरह अटलबिहारी की छह साल की सरकार में पिछली सरकारों से बढ़चढ़ कर घोटाले हुए उसी तरह उनके बाद दस साल रही कांग्रेस नेतृत्व की सरकार उनसे कम कैसे ठहरती। वह भी तब, जब वह अल्पमत की सरकार थी। कई तरह के दबावों के चलते कोई चाहे भी तो कुछ अच्छा नहीं कर सकता। लेकिन केन्द्र की इस सरकार के पास तो वैसा बहाना भी नहीं है और मोदी इसे समझ चुके हैं। वे अन्दर से अच्छी तरह जानते हैं कि करना वही जिससे अपने हित सधें, बाकी बोल-बोल कर काम चलाना है, और मोदी इसी में ही अपना समय जाया कर रहे हैं।
व्यवस्था यदि भ्रष्ट है तो वह तरीके बदल कर अपने काम में लगी रहेगी। ऐसी व्यवस्थाओं में असल या कहें जरूरतमंद आम आवाम के लिए कुछ करने की गुंजाइश होती ही नहीं है। मोदी अपनी पारी जैसे तैसे पूरी करके पैविलियन लौट जाएंगे और जनता जनार्दन को खाई से कुएं में फिर गिरने को तैयार रहना होगा। बिना व्यापक हितों का खयाल किए हबीड़े में वोट जब तक देते रहेंगे तब तक ऐसे ही भुगतते भी रहेंगे।
29 अप्रेल, 2015

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