Saturday, April 4, 2015

बेमौसम बरसात पर कुछ यूं ही

कल एक शवयात्रा में जाना हुआ। शामिल, अधिकांश का किसी--किसी रूप से किसानी से वास्ता है। शाम का समय, मौसम फिर बरसने का हो रहा था। जिनकी आजीविका खेती पर ही टिकी हो उनके चेहरे पर परेशानी साफ थी। एक ने ईश्वर को इंगित करते हुए कहा, वह क्या चाहता है? दूसरे, जो काफी बुजुर्ग थे, जवाब दियावह जो कर रहा है सोच-समझकर कर रहा है, गलत नहीं हो सकता।
पहली बात तो यह कि ईश्वर है या नहीं इस पर ही सन्देह है, भारतीय मनीषा में ईश्वर के होने होने, दोनों ही धारणाओं को अनेक तरह से व्याख्यायित किया गया है। ऊपर के संवाद में ही देख लें, ईश्वर को यह नहीं 'वह' कहा गया। जिनकी धारणाओं में ईश्वर को सर्वव्यापी माना जाता है उन्हें मानने वाले 'यह' कहते। ऐसी ही अन्य आपदाओं को ईश्वर की इच्छा के साथ, प्रारब्ध यानी पिछले जन्म की देनदारी या कर्मों का फल यानी इस जन्म में किए का फल आदि-आदि मान आस्थावान-भाग्यवान अपने जी की तसल्ली कर लेते हैं। किसी की आस्था को कोई चुनौती नहीं है। लेकिन इस तरह की तसल्लियां असल सावचेती से हमें वंचित कर देती हैं।
केदारनाथ और कश्मीर घाटी में भारी बारिश की त्रासदियों के बाद पिछले एक पखवाड़े से ज्यादा समय से उत्तर भारत के अधिकांश हिस्से में भारी बारिश हो रही है। तेज हवाओं और ओलों के साथ रही बेरुत और बिना जरूरत की इस बरसात से उगती, खड़ी-पकी सभी तरह की फसलें नष्ट हो रही है। नहरी खेती की ही तरह बारानी क्षेत्र में खेती भी नलकूपों से होने लगी है और साल में दो-दो-तीन तीन फसलें ली जाने लगी हैं। ये फसलें ज्यादातर व्यावसायिक होती हैं यानी जिन फसलों की बाजार में कीमत ज्यादा मिलेगी, वही बोया जाता है। इस जानकारी को साझा करने का मकसद ऐसे किसानों को भुंडाना नहीं है। जब दूसरे धंधों में लगे लोग दो पैसे अधिक कमाने की जुगत में हों तो किसानों से उम्मीद करना कि वे इस लोभ में पड़ें, उचित नहीं।
जाहिर है जिस फसल के दाम ऊंचे मिल सकते हैं उसकी बोआई और सार-सम्हाल भी महंगी होगी। यानी लागत ज्यादा आयेगी। ऐसे में फसल नष्ट होगी तो नुकसान भी ज्यादा होगा। वे लोग जो अन्य करतूतों से कमाए अवैध धन को वैध करने के वास्ते सिंचित भूमि खरीद कर किसान बने हैं या बन रहे हैं, ऐसी आपदाओं से उनकी खाल नहीं उधडऩी। इस तरह की अतिवृष्टियों में मरता वह है जो अपने बूते कुछ कर रहा हो या वे जिनके पास में कुछ नहीं भी हो तो कर्जा लेकर बोआई करते हैं। उनके लिए यह आपदाएं मौत से कम नहीं होती। ऐसे असल किसानों द्वारा आत्महत्या करने के समाचार आए दिन पढ़ते-देखते हैं। ऐसी भीषण विपदा में अपने यहां के किसान नहीं हैं लेकिन महाराष्ट्र, तेलंगाना, छत्तीसगढ़ के कुछ इलाकों के अलावा उत्तरप्रदेश और बिहार में किसानों द्वारा आत्महत्या की घटनाओं का लगातार बढ़ता आंकड़ा कम चिन्ताजनक नहीं। दूसरा, हमारे इधर के इलाके में गैर सरकारी ऋणों की ब्याज की अदायगी उक्त उल्लेखित इलाकों जैसी नहीं है। इसलिए भी किसान बचा रहता है। हालांकि जुए-सट्टे में पड़ा शहरी नासमझ भयानक ब्याज दरों के चंगुल में फंसने लगा है।
किसानों का एक वर्ग ओर भी है, वे किसान जो अवैध धनाढय लोगों के खेतों को बटाई पर लेते हैं, यानी जमीन साधन अवैध धन को वैध करने वालों के और मेहनत और रख-रखाव मजदूर किसान का। ऐसी विपदाओं में परेशानियां ऐसों को भी कम नहीं होती लेकिन मरने की नौबत इसलिए नहीं आती कि दावं पर इनका केवल श्रम ही लगता है, अपनी आजीविका ये अतिरिक्त मेहनत-मजदूरी से चला लेते हैं।
यह चर्चा तो दीखती दिक्कतों की है। लेकिन चाहे आपदाएं पहाड़ों पर आती हों या मैदानी इलाकों में, इसके लिए जिम्मेदार हमारी वे अनायासी हरकते हैं जो बदलती जीवन-शैली और सामाजिक धार्मिक कार्यकलाप जिन्हें आर्थिक लालच के चलते हम करते रहते हैं। ईश्वर यदि है तो वह निर्दय है और प्रकृति स्वयं गुस्से में आकर कुछ करती है। हम प्रकृति के साथ लगातार ऐसा कुछ करने लगे हैं कि प्रकृति और पारिस्थितिकी खुद डगमगाने लगे हैं। उनका कार्यक्रम गड़बड़ाने लगा है। गांधी ने कहा है, यह धरती जरूरतें सबकी पूरी कर सकती है, लालच किसी एक का पूरा करने का सामर्थ्य इसका नहीं है।  धरती के मानी जमीन, पेड़, पौधे, हवा आदि सभी से है। थोड़ा आत्मावलोकन करें कि हम जब से विकास के शहरी मॉडल के गुलाम हुए हैं तब से हम इन्हें किस तरह बरत रहे हैं। दोष खुद में ढूंढेंगे तो समाधान पर मनन की गुंजाइश बनेगी अन्यथा ईश्वर, भाग्य, प्रारब्ध और कर्मों पर डालना पलायन करना कहलाएगा या कबूतर की उस मुद्रा में होना जिसमें वह बिल्ली को सामने पाकर यह मानकर आंखें मूंद लेता है कि इस तरह बिल्ली उसे  नहीं देख पायेगी।
आज की बात अलग आयाम से करने का ये मानी कतई लें कि इन आपदाओं के लिए शासन-प्रशासन को बरी किया जा रहा है। उनकी जिम्मेदारियां अपनी जगह हैं और अकर्मण्यता लापरवाहियों के उनके दोष कायम हैं।

4 अप्रेल, 2015

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