Thursday, March 20, 2014

स्वांग भरतीं पार्टियां और चाक पर आडवाणी

लोकसभा चुनावों का उच्च स्तरीय ड्रामा जारी है। कांग्रेस और भाजपा दोनों मुख्य दलों के साथ क्षेत्रीय दलों में आवाजाही, उठा-पटक और बट निकालने का दौर चल रहा है। बचाव या लगभग अस्तित्व बचाने की जद्दोजेहद में लगी कांग्रेस की सुप्रीमो सोनिया गांधी को देवरानी मेनका प्रभाव से पहले के सर्कस रिंगमास्टर की मुद्रा में आना पड़ा। पार्टी के सभी शेरों ने गीदड़ की भूमिका अपना ली। सोनिया ने हंटर फटकारना शुरू किया तो खीजते हुए ही सही सब अपनी-अपनी पोजीशन लेने लगे हैं।
वहीं राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ, भारतीय जनता पार्टी और उनकी पार्टी से घोषित 'पीम इन वेटिंग' नरेन्द्र मोदी सूत्र को शहर के परिवार की आपबीती से समझना आसान होगा। अठारह-बीस साल पहले की बात होगी। एक शिशु चिकित्सक के यहां एक परिचित से भेंट हुई जो अपने परिचित के ढाई-तीन साल के कृशकाय बच्चे को दिखाने आए थे। निढ़ाली का लगभग स्थाई भाव ले चुकी उसकी मां और लोक में प्रचलित छवि जैसी उसकी सास यानी बच्चे की दादी साथ थीं। बच्चे के साथ उसकी मां और दादी डॉक्टर के चेम्बर में थीं तो परिचित ने उस बच्चे के अवतरण की कथा संक्षिप्त में कुछ यूं बताई-अपनी दादी के दबाव के चलते हुआ यह बच्चा तीन बहनों से छोटा है, जो सोनोग्राफी के बाद तीन-तीन भ्रूण हत्याओं, तीन सन्तान विशेषज्ञ चिकित्सकों, शहर के लगभग सभी पंडितों और झाड़ागर की सेवाओं और कई टोने-टोटकों से हुआ है। हुआ तब से खाया-पीया अंग नहीं लगता। इस पूरी प्रक्रिया में इसकी मां भी स्थाई रूप से बीमार रहने लगी है। संघ परिवार में इन दिनों चल रही चुनावी चक्करबाजी में उक्त प्रसंग याद हो आया। उसी परिचित से उस परिवार की वर्तमान सुध जाननी चाही तो सुनकर मन विषाद से भर गया। दादी अपनी पारी पूरी कर विदा हो लीं। बेटे से धाए पिता अकर्मण्य हो गए, तीनों बहनों और बची-खुची जीर्ण काया वाली मां की नाक में दम किए रहता है कुलदीपक।
गुजरात में संघ और पार्टी की प्रदेश इकाई को परोटने के मोदी के तौर-तरीके मोहन भागवत और राजनाथसिंह दोनों को नहीं दिखे या सत्ता के अंध मोह में उन्होंने नजरअन्दाज किया। मोदी शरणम् गच्छामी का उच्चारण नहीं करने वाले पार्टी में मुरलीमनोहर जोशी, सुषमा स्वराज, लालजी टंडन, कलराज मिश्र जैसे सभी वरिष्ठों को ठिकाने लगवाकर मोदी क्या सन्देश देना चाह रहे हैं? लालकृष्ण आडवाणी की गत तो शायद ऐसी करने पर तुले हैं कि पार्टी में कोई भी गर्दन ऊंची करने का साहस ही नहीं करेगा। पहले जब आडवाणी गांधीनगर से चुनाव लडऩा चाह रहे थे तो उन्हें राज्यसभा में फ्रिज होने का प्रस्ताव दिया गया। नहीं माने तो लम्बी चली खिच-खिच के बाद कल की सूची में गांधीनगर से नाम दिया तो आडवाणी का सशंक होना वाजिब था। माना जा रहा है कि मोदी चाहें तो आडवाणी को गांधीनगर के अपने  घुंभारिए (तलघर) में रोड़ कर मिट्टी खराब करवा दें।
लम्बी खिच-खिच के दौरान आडवाणी ने अपने निष्ठावान शिवराजसिंह पर भरोसा बनाकर भोपाल से चुनाव लडऩे की तैयारी की तो अब पार्टी तैयार नहीं है। पार्टी को आकार देने वाले खुद आडवाणी को ही संघ की शह पर चाक पर चढ़ाकर नये आकार में ढालने को पार्टी आतुर दिख रही है। ये दिन भी देखने थे आडवाणी को। पार्टी नियंता मोदी वशीकरण से इतने ग्रसित लग रहे हैं कि वे उन आडवाणी का राई-रत्ती भी लिहाज करते नहीं दिख रहे जिन्होंने पार्टी को राष्ट्रीय पार्टी के रूप में स्थापित करने के लिए देश की समरसता को दावं पर लगा कर केवल रथयात्रा निकाली बल्कि बाबरी मस्जिद ढांचा विध्वंस के साक्षी भी बने। पार्टी के लिए इस हद तक जानेवाले, उम्र के इस पड़ाव पर भी सामान्य और स्वस्थ मानसिक स्थिति के साथ सक्रिय व्यक्ति की सामान्य इच्छाओं पर नीबू निचोडऩा पार्टी और उसके अपहर्ता की मानसिकता को जाहिर कर देते हैं।
राज चलाने की अब तक की व्यवस्थाओं से धापे और एक लोकतान्त्रिक देश के नागरिक होने की शिक्षा से वंचित आम आवाम को विकल्प चाहिए, फिर वह चाहे कैसा ही हो। आम-आवाम की इस अशिक्षा का भुगत-भोगी वह खुद ही होगा-छासठ वर्षों से वह भुगत ही रहा है। पर संघ, भाजपा और उसके नये सुप्रीमो की भूमिकाओं को ऊपर उल्लेखित बेटा-आकांक्षी उस परिवार के पात्रों के समकक्ष चाहें तो रख कर देख सकते हैं।

20 मार्च, 2014

1 comment:

डॉ दुर्गाप्रसाद अग्रवाल said...

बहुत सटीक विश्लेषण! अस एक ही असहमति है, और वो यह कि विकल्प की अंध तलाश पूरे देश को नहीं है. यह तो इन उस्तादों का बनाया हुआ माहौल है कि 'देश विकल्प चाहताहै.' इस देश में बहुत सारे विवेकशील जन भी हैं जो ऐसा विकल्प स्वीकार करने को तैयार नहीं हैं. यह बात अलग है कि इस नक्कारखाने में उनकी आवाज़ सुनाई नहीं देती है.