Tuesday, March 11, 2014

कांग्रेसी माजरा

कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी कल बीकानेर जैसे आए थे वैसे ही लौट गए, बिना कोई असर छोड़े, असर छोडऩे जैसी समझ लगती भी नहीं है उनमें। मानों इनके ही हेलीकॉप्टर के उड़ते बने भतूलिए में उनके पगलिए भी मिट गए। आजादी बाद के इन छासठ सालों में कांग्रेस संभवत अपने सबसे बुरे दौर से गुजर रही है। 1977 में हुए चुनावों से भी बुरे, तब दक्षिण भारत ने लाज रख ली थी, अब तो वहां भी कुछ हासिल होता नहीं दिखता है। 1977 में बदली राजनीतिक करवट में कई क्षेत्रीय दल पनपे जिनका असर अपने-अपने प्रदेशों में ठीक-ठाक बन गया है।
अनुगामियों को पता लग जाए कि नेतृत्व को कुछ लखाव नहीं पड़ता तो वे उसका उपयोग अपनी अनुकूलताएं बढ़ाने में करने से नहीं चूकते। लगभग एक माह बाद लोकसभा के चुनाव होने हैं, प्रदेश में कांग्रेस पार्टी का सारा जिम्मा अकेले सचिन पायलट का मान लिया लगता है। दिखती भूंड की छाया से हर कोई अपने को बचा के रखना चाहता है। छनकर जो बातें रही हैं उसके अनुसार खुद पायलट अपने वर्तमान लोकसभा क्षेत्र अजमेर को अपने लिए ही सुरक्षित नहीं मान रहे, वह किसी नये क्षेत्र की ताक में है। सचमुच ऐसा है तो प्रदेश अध्यक्ष का यह क्षेत्र बदलाव पार्टी के निष्ठावानों को हतोत्साहित ही करेगा। माना तो यही जा रहा था कि पायलट ने अपने संभावित नये लोकसभा क्षेत्र टोंक-सवाईमाधोपुर के देवली से प्रदेश में राहुल से चुनाव अभियान की शुरुआत इसी मद्देनजर करवाई। ठीक ऐसे ही राहुल का कल का दूसरा कार्यक्रम प्रदेश विधानसभा में प्रतिपक्ष के नेता रामेश्वर डूडी के लिए चुनौती बन गए बीकानेर क्षेत्र में था। यह सब लोक में प्रचलित उस कैबत जैसा ही लगता है जिसमें कहा गया है कि- 'भूआ पुरसगारी अर भतीजा जीमण वाळा।'
यह तो सब बातें हुई सुनती-दिखतीं पर कांग्रेस और उसके शुभचिन्तक यह परखी भी लगा रहे हैं कि नहीं कि राहुल के इन जतनों का पार्टी को कुछ फायदा भी हो रहा है क्या? राजस्थान के सन्दर्भ से ही बात करें तो बट्टे लगी साख की केन्द्र सरकार का नेतृत्व करने वाले साफ-सुथरे मनमोहन सिंह और राहुल गांधी पिछले विधानसभा चुनाव अभियान के दौरान जहां-जहां भी गये वहां बंटाधार ही हुआ। सभी समर्थ राजनीतिक पार्टियां फीडबैक लेने के लिए कई युक्तियां अपनाती हैं जिनमें सैम्पल सर्वे से लेकर यदि सरकार में हैं तो उसके खुफिया बेड़े का दुरुपयोग करने से भी नहीं चूकतीं। अवसर और सुविधा मिलने पर ऐसा सभी पार्टियां करती हैं। केन्द्र में तो कांग्रेस की सरकार है, जिनके पास सत्ता नहीं है वह भी रणनीति को पुख्ता करने के लिए ऐसा करती ही हैं। पर क्या कांग्रेस इस तरह का फीडबैक लेने का साहस भी करेगी कि उनके खेवनहार राहुल में पार्टी को तारने की कूवत भी है या नहीं। ऐसे साहस को दुस्साहस भी कहा जा सकता है, पर इसे अगर नहीं आजमाएंगे तो हो सकता है बेड़ा गर्क हो जाने पर मलाल ही बाकी रहे! केवल युवाओं से उम्मीद बांध चुके राहुल पार्टी में वरिष्ठों के साथ अपने चाचा संजय गांधी जैसी हरकतें तो नहीं कर रहे हैं पर कई वरिष्ठों को नाकारा मान लेना उनकी अपरिपक्वता की ही पुष्टि करती है। नतीजे पार्टी को ही भुगतने होंगे, इन विपरीत समय में जो ज्यादा घातक हो सकते हैं।

11 मार्च, 2014

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