Friday, March 14, 2014

संप्रग के बहाने चुनाव की बात

लोकसभा चुनाव सिर पर हैं, बावजूद इसके जिन पार्टियों को जिन-जिन अखाड़ों में जोर करने वाले उतारने हैं वह सभी अजीब अमूजणी में घिरे हैं। वे भी जिन्हें लगता है यह चुनाव उनका है और वह भी जो किसी तरह आत्म-विश्वास बटोरने में इसलिए लगे हैं कि अखाड़े से बाहर ही हार मानने वालों की फेहरिस्त में उन्हें गिन लिए जाएं।
केन्द्र में मनमोहनसिंह के नेतृत्व में संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन की सरकार है। मनमोहनसिंह की स्थिति उस नाविक के जैसी है जिसकी नाव के शेष अधिकांश सवार नाव को  जर्जर करने और छेदने में लगे रहे। आजादी बाद के इन छासठ सालों में राजनीति को ऐसा बना दिया गया कि जैसे बिन भ्रष्टाचार के उसका अस्तित्व ही खत्म हो जायेगा। सभी प्रकार की बुराइयां नशे की तरह होती है-जिसकी मात्रा लगातार बढ़ाए बिन बेअसर लगने लगती है। भ्रष्टाचार भी इसी तरह बढ़ता जा रहा है।
मनमोहनसिंह की भलमनसाहत ने अपने सहयोगियों पर पूरा भरोसा करके कर गुजरने की छूट क्या दी अधिकांश हीकछडि़ंदे हो गये। चूंकि सिंह मन और अनुभव दोनों से एक राजनेता नहीं हैं सो, प्रदर्शन व्यवसाय में तबदील हो चुकी राजनीति में विफलतम साबित हुए। इसी के चलते उनकी पार्टी अपने इतिहास के संभवत: सबसे बुरे दौर से गुजर रही है। मनमोहनसिंह के अपने हिसाब से उनकी सरकार के काम और सामाजिक-आर्थिक आधारभूत ढांचे की पुख्तगी हुई हो पर इस होने का एहसास वे आम आवाम को करवाने में पूरी तरह असफल रहे हैं। ऊपर से विभिन्न संशोधनों और व्यापारिक अनुबन्धों में लूट के भागीदारों में राजनेताओं के चौड़े आने से सप्रंग सरकार की साख पूरी तरह से बट्टे खाते दर्ज हो चुकी है।
इन्हीं सब के चलते आसन्न चुनावों के मद्देनजर कांग्रेस पार्टी विचित्र स्थितियों से घिरी दिख रही है। पार्टी को अपने जिन उम्मीदवारों से चुनावी साख बचा पाने का भरोसा है उनमें से अधिकांश बगलें झांक रहे हैं और जिन पर भरोसा नहीं किया जा सकता वे इसे अवसर मानकर उम्मीदें जताने लगे हैं। इस चुनाव में हो सकता है कई दिग्गज लेखे लग लेंगे तो कइयों के लिए बिल्ली के भाग का छींका भी टूटेगा।
बिल्ली के भाग का छींका तुड़वाने में स्थानानुसार प्रतिद्वंद्वी ही सहयोगी बन रहे हैं। भाजपा की ही बात करें तो इस सर्वाधिक अनुकूल भाजपाई समय में भी उसके दिग्गज तो अपने क्षेत्रों को बनाए रखने या दूसरों के परम्परागत क्षेत्रों को हड़पने की मगजमारी में लगे हैं। 'अभी नहीं तो कभी नहीं' जुमले के दबाव में आकर भाजपा अपने वरिष्ठों को मान दे पा रही है और ही परम्परागत सहयोगियों को। सुषमा स्वराज के एतराज के बावजूद दक्षिण में रामुलु को टिकट और शिवसेना को असहज करने की कीमत पर राज ठाकरे से मेलजोल इसी के उदाहरण हैं।
राजस्थान में भी वसुंधरा राजे के विश्वस्त राजेन्द्र राठौड़ अपनी व्यक्तिगत खुन्नस निकालने के लिए चूरू के सांसद रामसिंह कस्वां का टिकट कटवाकर सर्वथा अविश्वस्त भंवरलाल शर्मा के बेटे की पैरवी करते यह भूल रहे हैं कि हाल ही के विधानसभा चुनावों में पार्टी को ऐतिहासिक जीत में सहयोगी बने जाटों को वह खिन्न कर लेंगे। राठौड़ सफल हुए और खिन्नता ने असर दिखाया तो हो सकता है दंद-फंदों के चलते भंवरलाल अपने पुत्र को भले ही जिता लें पर पड़ोस की जाट प्रभावी बीकानेर, नागौर, सीकर, झुंझुनंू और श्रीगंगानगर सीटों पर पार्टी को गुणियें में ला दें। जिसका सीधा फायदा कांग्रेस को होगा।

14 मार्च, 2014

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