चुनाव आयोग के सूत्रों
से आई जानकारी के अनुसार आगामी आम चुनाव के संभावित चुनावी कार्यक्रम की पुष्टि-होती है तो
मतदान 7 अप्रैल को शुरू होकर अप्रैल के अन्त तक निबट जाएगा और मई के शुरुआती सप्ताह में जिस भी राजनीतिक गिरोह को शासन सम्हालना है सम्हाल लेगा। इन गठबंधनों के लिए गिरोह शब्द का प्रयोग कइयों को अतिवादी लग सकता है लेकिन इन गठबंधनों और उनमें शामिल दलों के तौर तरीकों का छिद्रान्वेषण करें तो अधिकांश उक्त विशेषण से सहमत होंगे।
इस चुनावी
रंगत को देखें तो भाजपा की कहें या मोदी के सन्दर्भ से, इस चुनाव
को सन् 1978 में कर्नाटक के चिकमंगलूर लोकसभा उपचुनाव सा बनाने में सफल होते दिख रहे हैं। 1977 के आम चुनावों में कांग्रेस की करारी हार के बाद पार्टी ने चिकमंगलूर के कांग्रेसी सांसद डी बी चन्द्रगौड़ा से इस्तीफा दिलवा सीट खाली करवाई और 1978 के उपचुनाव में वहां से इन्दिरा गांधी पार्टी प्रत्याशी के रूप में उतरीं और विजयी हुईं। उस चुनाव में तब एक नारा बड़ा प्रसिद्ध हुआ था 'एक शेरनी
सौ लंगूर, चिकमंगलूर-भई-चिकमंगलूर', यानी अकेली इन्दिरा के खिलाफ
बाकी सभी अन्य। एक तरफा से हो गये उस चुनाव में इन्दिरा गांधी भारी बहुमत से जीतीं। हालांकि तब की जनता पार्टी की सरकार ने संसद में अपने भारी बहुमत के चलते इन्दिरा गांधी को सांसदी के लिए फिर से अयोग्य करार देकर बाहर कर दिया था।
आजादी बाद के इन
छासठ सालों में राजनीति के जिन मानकों को कांग्रेस ने पोषण दिया उन्हीं मानकों का बदतर उपयोग करने के लिए भाजपा 'पार्टी विदॅ दॅ डिफरेंस'
के अपने ढकोसले से अब पूरी तरह बाहर आ चुकी है और कांग्रेस और उस जैसी बद-संस्कृति की अन्य
पार्टियों को छकाने के लिए उनसे भी बदतर तौर-तरीकों का इस्तेमाल
करने में संकोच नहीं कर रही।
उधर राहुल गांधी जिस साफ-सुथरी व्यवस्था की जरूरत बताते हैं, वे यह
भूल जाते हैं कि भ्रष्ट व्यवस्था की इस सडऩ-गलन को पोखते
रहने की बड़ी दोषी खुद उनकी पार्टी ही है। केन्द्र और अधिकतर प्रदेशों में अधिकांश समय कांग्रेस की सरकारें ही रहीं। पिछले तीसके सालों से लोककल्याण के नाम पर लोक लुभावन योजनाओं के निर्णय और उनका क्रियान्वयन सरकार में आने वाली सभी पार्टियां होड़ा-होड़ी में एक दूसरे
से बढ़-चढ़ कर करने
लगी हैं। सभी पार्टियों की ये सरकारें इन योजनाओं को लागू करने में इस बात को नजरअन्दाज करती रहीं कि इनका क्रियान्वयन उसी भ्रष्ट तंत्र की भेंट चढ़े बिना नहीं रहेगा जो पूरे शासन तंत्र को जोंक की तरह जकड़े है। राजस्व के विभिन्न तौर तरीकों से इकट्ठा किया गया तथा विदेशों से ऋण के रूप में लिया गया धन भ्रष्ट बेड़े में शामिल राजनेता, दबंग, सरकारी
मुलाजिम, दलाल, ठेकेदार और बेईमान
व्यापारियों के पोषण में ज्यादा काम आता है और यही सभी भ्रष्ट अपने संभावित हितसाधक राजनेताओं को उसी धन से चन्दा-चिट्ठा देकर अगले पांच वर्षों तक अपने
हितों को साधने की गारण्टी ले लेते हैं। इस तरह देश का गरीब और भी गरीब तथा अमीर और अमीर होते जा रहे हैं।
देश को दरअसल
व्यापक सामाजिक हितों का पोषण करने वाले समूह की जरूरत है और फिलहाल ऐसा कोई राजनीतिक समूह सक्रिय नहीं दिख रहा है। ऐसे में आम आवाम (मतदाता) को
अंधकार में प्रकाश की एक किरण नोटा (कोई उम्मीदवार उपयुक्त नहीं) के
रूप में उच्चतम न्यायालय ने दी है। उस का उपयोग जमकर करें। मनुष्य समाज या कहें लोकतंत्र में उपेक्षा या नकार बड़े कारगर तरीके से काम करती है। आशंका यह भी है कि देश की बागडोर किसी तानाशाही मानसिकता वाले व्यक्ति को बहुमत के साथ मिल गई तो हो सकता है वह संविधान संशोधन के जरीए इस 'नोटा' के
हक को आपसे छीन ले। इसलिए नोटा को प्रतिष्ठ करने और उसे निर्णायक बनाने के लिए तत्पर होने की जरूरत है।
3 मार्च,
2014
No comments:
Post a Comment