Monday, July 29, 2013

पीबीएम के बहाने खरी खरी

बीकानेर शहर के अखबारों में कुछ मुद्दे स्थाई जगह बना चुके हैं। चाहें तो यहां के अखबार प्रतिदिन के कॉलम के रूप में इन्हें स्थान दे सकते हैं। या कुछ मुद्दों को जब चाहें तब लोगो लगाकर खबरों में स्थापित कर दें। इसमें पीबीएम अस्पताल का कॉलम प्रतिदिन स्थाई रह सकता है। वहां अब तो आए दिन कुछ ऐसा बड़ा घटित होने लगा है कि वह खबर बने बिना नहीं रह पाता। पीबीएम के वे दिन लद गये लगते हैं जब इसके हवाले से सुकून भरी खबरें आया करती थीं। पिछले कई वर्षों का स्मरण करें तो शायद ही कोई सकारात्मक खबर याद आए। व्यवस्था को लेकर आए दिन होने वाली बदमजगियां खबर तभी बनती हैं जब मरीज के परिजन आपा खो देते हैं। ठीक इसके उलट अनगिनत वाकिये ऐसे होते हैं जिन्हें मरीज और मरीज के परिजन गिट लेते हैं या किनारा कर लेते हैं। जिला-संभाग-शहर के मरीजों के इलाज के लिए बना और सालाना अरबों रुपये के सार्वजनिक धन से चलने वाला यह अस्पताल लगता है अब लाइलाज स्थिति में है तभी तथाकथित ऊपर की भारी भरकम कमाई के बावजूद कोई डॉक्टर इसका अधीक्षक बनने को तैयार नहीं होता।
अस्पताल की बड़ी खबरों में छोटी-मोटी खबरें तो बनती ही नहीं है, जैसे सुना है भारी उमस के इस मौसम में अस्पताल की आपात इकाई के एयर कंडीशर पिछले दिनों हटा लिए गये। इससे पहले हार्ट हॉस्पिटल में हुए भारी रसीदी घोटाले में वह बात दब गई,जिसकी सुगबुगाहट शुरू हुई थी, वह यह कि इस हार्ट हॉस्पिटल का म्युजिक सिस्टम गायब हो गया। पता नहीं वह अब भी गायब है या फिर से अपनी स्वर लहरियों से मरीजों-तिमारदारों को सुकून देने लगा है।
गये शुक्रवार को शहर से निकलने वाले एक अखबार के सम्पादक ने फेसबुक नाम पर लिखा किपिछले तीन दिन तक पीबीएम अस्पताल में रहा। पत्नी का ऑपरेशन था। लोग कैसे इस नरक में रहते हैं, अव्यवस्था का दूसरा नाम है पीबीएम अस्पताल।अरे भाई! क्या केवल इतना भर लिख देने से अपनी ड्यूटी पूरी हो जायेगी। इस अस्पताल का यह हस्र फिलहाल में तो नहीं हुआ। पिछले बीस वर्षों में यहां के डॉक्टर प्रबंधक शहर के पत्रकारों, दबंगों और मौजिजों का अतिरिक्त ख्याल रख-रखकर अपना उल्लू सीधा करते रहे और इस अस्पताल का भट्टा बिठाते रहे। तब हमारे ये पत्रकार कहां थे। वे इसलिए नहीं बोलते थे कि उनका काम तो वीआइपी ट्रीटमेंट के साथ हो जाता और इसकी बदत्तर होती जा रही व्यवस्था से वे आंखें मूंद लेते। अब जब इस अस्पताल की व्यवस्था किसी के बूते नहीं रही और नौबत यहां तक गई कि अब वीआइपीयों की ही फीत उतरने लगी तो वेत्राहीमाम त्राहीमामकरने लगे। इसके लिए शहर में कैबत हैपहला रहता यूं तो तबला जाता क्यूं।यानी पत्रकारी पेशा जिसकी जिम्मेदारी ही चौकसी और निगरानी करना था जिसे उसने पूरा नहीं किया, इसलिए अस्पताल की बदतर परिस्थितियों के लिए वह भी कम जिम्मेदार नहीं है। किस पत्रकार को नहीं पता कि इस अस्पताल में आये दिन आम मरीजों के साथ क्या-क्या नहीं होता। चौबीसों घंटे मरीजों और उनके परिजनों के साथ होने वाले छोटे-मोटे भ्रष्ट और अमानवीय आचरण को अखबारों ने सुर्खियां देना क्यों बंद कर दिया। अभी भी केवल हाकों की ही खबर बनती है। नेताओं और जनप्रतिनिधियों से तो उम्मीदे करना इसलिए संभव नहीं कि इस तरह की अव्यवस्थाएं उनके अनुकूल होती हैं, लेकिन लोकतंत्र का चौथा खम्भा कहलाने वाला पत्रकारीय पेशा भी अव्यवस्थाओं में अनुकूलताएं ढूंढ़ने लगे तो, क्या कहा जा सकता है।

29 जुलाई,  2013

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