शहर कांग्रेस की गत बताई तो पेशे के नाते जिम्मेदारी बनती है कि लगे हाथ कांग्रेस की यहां मुख्य विकल्पी पार्टी शहर भाजपा की गत का बखान भी कर दें। शहर भाजपा की अध्यक्षी पर फिलहाल शशि शर्मा विराजित हैं। उनकी पार्टी और पार्टी के बाहर के वे जिनकी ताका झांकी की आदत है, सभी मानते हैं कि वे गोपाल गहलोत के आदमी हैं। कांग्रेस राज के इन वर्षों में शहर भाजपा ने संगठित तौर पर कोई उल्लेखनीय भूमिका दिखाई हो, याद नहीं पड़ता। वैसे भी आजकल की पार्टियां क्षत्रपों-ठिकानेदारों की होकर रह गई हैं। सबके अपने-अपने ठाये-ठिकाने हैं, कुछ के छोटे तो कुछ के बड़े। जिले के भाजपाई ठिकानेदारों में देवीसिंह भाटी अव्वल हैं, कोलायत, खाजूवाला तो सीधे उनकी मनसबदारी में आते हैं। गप्पड़-चौथ तो शेष पांच सीटों में हैं जिनमें से एक (बीकानेर पूर्व की) सीट को अपना ठिकाना बनाने की कुव्वत सिद्धीकुमारी में कितनी है, अगले चुनावों में कुछ आभास मिल जायेगा। बीकानेर (पश्चिम) में एक समय लगभग ठिकानेदार बन चुके नन्दू महाराज अपनी राजनीतिक चतुराई के अभाव में बेदखल होते रहे हैं। पिछले विधानसभा चुनाव में मिजाज से भी अौर परम्परागत कांग्रेसी गोपाल जोशी ना केवल भाजपा में आ गये बल्कि टिकट भी ले आये और विधायक भी बन गये। डॉ बीडी कल्ला की प्रतिकूलता के चलते नन्दू महाराज विद्रोही नहीं हुए अन्यथा कल्ला मुख्यमंत्री शायद ना भी बनते तो कैबिनेट में तो होते ही।
कमोबेश 2008 जैसी स्थितियां ही फिर बीकानेर (पश्चिम) में बनती दीखती हैं। नन्दू महाराज अस्वस्थ हैं, पर चुनाव लड़ने का जीवट उनमें अब भी कम नहीं हुआ है। शरीर ने थोड़ा भी साथ दिया तो वे लंगोट में नजर आएंगे। दूसरी ओर गोपाल जोशी भी पूरी उम्मीद से हैं। खुद नहीं तो जुगाड़ वे अपने पोते के लिए भी करेंगे। उधर मक्खन जोशी के पोते अविनाश जोशी भी वसुन्धरा के दीवाने-खास में अपनी पहुंच के चलते उम्मीद पाले हैं तो राजनीति में फिस्स हो गये ओम आचार्य के भतीजे विजय आचार्य भी कुछ-कुछ मंशा बनाए हैं। इन सब में शहर भाजपा अध्यक्ष की कोई भूमिका काम करेगी, संदेह है। वे गोपाल गहलोत के आदमी हैं और खुद गोपाल गहलोत की छवि उनके समाज में और दूसरे लोगों में भी लगातार धूमिल होती जा रही है। छवि को सहेजने का जतन गोपाल गहलोत करते दिख नहीं रहे हैं, अन्यथा वे बीकानेर (पूर्व और पश्चिम) की दोनों ही सीटों से भाजपा के सशक्त उम्मीदवार हो सकते थे। चुनाव केवल बटबटी से नहीं लड़े जाते हैं, कि बटबटी उठी और लड़ लिया चुनाव। गोपाल गहलोत ने बिना तैयारी के चुनाव लड़ा तो बची-खुची राजनीति भी खत्म कर लेंगे अपनी। संगठन कब्जे में होने भर से कुछ नहीं होता है, संगठन तो पूरी तरह कब्जे में पिछले चुनाव में कल्ला बन्धुओं के भी था और वे उन्नीस हजार मतों से चुनाव हार गये थे।
जिस तरह की राजनीति हो गई है उसमें स्थानीय संगठनों की भूमिका पिछ-लग्गुओं से ज्यादा रही ही कहां है? गिरोहों की तरह इलाके बांट रखे हैं और शीत युद्धों के बीते दौर की तर्ज पर इन इलाकों के राजनीतिक गिरोहों में भी शीत युद्ध चलता रहता है। कौन-कब, किसे और कैसे पटकनी देगा कोई जान-समझ नहीं सकता। जिसे-जैसे-जहां बल पड़ेगा टिकट ले पड़ेगा। शहर भाजपा संगठन पर काबिज होने की जद्दोजेहद इन दिनों नीचे से ऊपर तक चल रही है, कौन कितना सफल होगा समय बताएगा। हां, नन्दू महाराज ठीक देवीसिंह भाटी की तरह संगठन को ठेंगे पर रखते हैं और यह हैसियत दोनों ने अपने बूते हासिल की है।
17 जुलाई, 2013
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