Saturday, July 13, 2013

हाईकोर्ट का जाति खिलाफ फैसला

इलाहाबाद हाईकोर्ट की लखनऊ बेंच का एक फैसला आया है जिसमें उसने जाति आधारित रैलियों पर रोक लगा दी है। यह फैसला उत्तरप्रदेश में राजनीतिक पार्टियों द्वारा जातीय आधार पर आयोजित सम्मेलनों के मद्देनजर आया है। खास तौर से उस बहुजन समाज पार्टी द्वारा आयोजित सम्मेलनों के सन्दर्भ में, या जिस पार्टी की स्थापना उच्च जातियों कोडंडा मारनेके नारों के साथ हुई थी। हाईकोर्ट के इस फैसले को प्रथमदृष्टया समाज को आदर्श स्थिति की ओर ले जाने वाला कह सकते हैं। लेकिन समाज में इस धारणा के लगातार पुष्ट होते जाने से कि इस समय में आदर्शतम स्थितियों को हासिल करना संभव ही नहीं है, ऐसे में हाईकोर्ट का यह आदेश कितना कारगर होगा, देखने वाली बात है।
भारतीय समाज के बड़े हिस्से का सामाजिक-राजनीतिककारोबारका मुख्य आधार जब जाति ही है तो यह उम्मीद कैसे की जा सकती है कि राजनीति में जाति का कोई हस्तक्षेप ना हो। उच्च समर्थ जातियों के या पढ़े-लिखे वर्ग, जो कहने भर को अपने को जाति से ऊपर उठा होने की गाहे-बगाहे घोषणा करते हैं-वे भी जब मौका देखते ही जातीय दड़बे में घुसते देर नहीं लगाते तो देश के शेष उन तमाम लोगों से कैसे उम्मीद कर सकते हैं कि वे रोटी, कपड़ा, मकान की अपनी जद्दो-जेहद के बीच जाति से ऊपर उठने का अवकाश निकाल पाएंगे? जब धर्म और सम्प्रदाय जैसा कारक भी इस जाति पर कोई असर नहीं दिखा सका है तो कोर्ट-कचहरियों के ऐसे फैसलों से हम-आप क्या उम्मीद करेंगे! कोर्टों के ऐसे फैसलों की लम्बी फेहरिस्त हैं जो उन्हें लागू या क्रियान्वित करने वाले महकमों में काबिज लोगों की यथास्थितिवादी मानसिकता के चलते प्रभावी नहीं होते।
13 जुलाई,  2013


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