Tuesday, February 3, 2015

पंचायतीराज चुनावों का अंतिम दौर

गांधी की ग्राम राज की कल्पना को साकार करने के लिए प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने 1959 में प्रदेश के नागौर जिले से इसकी शुरुआत की। हिचकोलों की शिकार इस व्यवस्था को पुनर्नव करने के लिए नेहरू के नाती राजीव गांधी ने अपने शासन के दौरान इसके ढांचे में आमूल परिवर्तन किए। बावजूद इसके शासन का आदर्श कहा जाने वाली यह ढांचा आदर्श नहीं हो पाया। कहने को शहरी लोग यह कहने से नहीं चूकते कि शहरी राजनीति से गांवों की राजनीति ज्यादा गंदी है। लेकिन, सच तो यह है कि गांव के लोग अपने स्वार्थों के लिए सचेत तो शहरियों जितने ही होंगे। लेकिन, अपने किये को छुपाने में वे लापरवाह हैं, उनका किया-धरा चौड़े जल्दी आता है। अपनी हरकतों को छुपाने में वे सचेष्ट नहीं रहते। अन्यथा देश और राजनीति का जैसा कबाड़ा हुआ है उसके लिए शहरी भी कम जिम्मेदार नहीं हैं।
2013 के उत्तरार्द्ध में विधानसभा चुनावों से शुरू हुई चुनावी प्रक्रिया मोटामोट 2015 के फरवरी माह में समाप्त होनी है। इस दौरान प्रदेश की विधानसभा, लोकसभा, आधे स्थानीय निकायों के चुनावों के बाद पिछले एक माह से पूरे प्रदेश में पंचायतीराज के लिए चुनावी प्रक्रिया चल रही है। प्रदेश में लगभग सवा सौ स्थानीय निकायों के चुनाव भी इस वर्ष होने हैं, जो वर्ष के उत्तराद्र्ध में सम्पन्न होंगे। हमारा राज और शासन इन्हें इस तरह की लम्बी-चौड़ी समयसारिणी में अंजाम देकर क्या लोकतांत्रिक ढांचे से आम-अवाम में ऊब पैदा करना चाहता है। प्रत्येक पांच वर्षों में होने वाले इन विभिन्न चुनावों को किसी एक सीमित समय में करवाने का मुद्दा 'विनायक' ने पहले भी उठाया जिस पर विचारने की जरूरत है। अन्यथा इस लम्बी चुनावी प्रक्रिया के चलते हो सकता है देश अधिनायकवाद में विकल्प ढूंढऩे लगे। पंचायतीराज चुनावों के अंतिम दौर में इस मुद्दे पर आज बात करना पुन: जरूरी लगा, इसलिए करली है।
बीकानेर के सन्दर्भ से बात करें तो पंचायतीराज के अंतिम दौर में प्रधान और जिलाप्रमुख चुने जाने के बाद इस प्रक्रिया की इतिश्री होनी है। जिला परिषद सदस्य और पंचायत सदस्य क्रमश: जिलाप्रमुख और प्रधान को चुनेंगे। इस प्रक्रिया में यहां हमेशा से मारा-मारी ज्यादा होती है। केवल प्रभावी जाति हावी रहती है बल्कि जाति में भी प्रभावी समूह का बोलबाला रहता है। प्रभावी कौन है, कौन नहीं यह समय परिस्थिति अनुसार बदलता भी रहता है! अन्यथा 'पार्टी विद डिफरेंस' का दावा करने वाली भारतीय जनता पार्टी में गैर प्रभावी जाति के जिलाप्रमुख पद के लिए पार्टी के अधिकृत प्रत्याशी जितेन्द्र सुराणा जिला परिषद में पार्टी का बहुमत होते हुए भी चुनाव हार जाते हैं और पार्टी इस पर कोई कार्यवाही नहीं करती। ऐसा बीकानेर की जिला परिषद में हो चुका है।
जिला परिषद और पंचायत सदस्यों की बाड़ेबंदी का काम कल से शुरू हो चुका है। कहने को इसे प्रशिक्षण का नाम दिया जाने लगा है। लेकिन, पंचायतीराज की चुनावी प्रक्रिया में जीते हुओं को डांगरों की जूण में पहुंचाने का काम इसी दौरान  होता रहा है। फिर वह चाहे प्रशिक्षण के नाम पर बाड़ेबंदी हो या प्रलोभनों और कीमत कूंत कर इन जीते हुओं की खरीद- फरोख्त। नियति डांगरों से ज्यादा की नहीं होती इनकी। कांग्रेस हो चाहे भारतीय जनता पार्टी, दोनों की चाल और चरित्र में अन्तर राई-रत्ती का भी नहीं रहा। गांवों की राजनीति में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का प्रभाव भी न्यूनतम रहता है सो जैसा-तैसा भी उनका विचार है उसकी प्रतिबद्धता की लाज-शर्म भी गांवों में नहीं रहती। कौन कब कांग्रेस में है और कौन कब भाजपा में, इसके लिए लगातार पुष्टि करते रहना होता है।
वैसे गांव के राजनीतिज्ञों को एक बात अच्छी तरह समझ में आयी हुई है कि हमें पार्टी से कोई लेना-देना नहीं, हित किस तरह सध सकते हैं उनका लक्ष्य यही रहता है। सभी जानते हैं कि जिस तरह के हित साधने हैं वे तभी सध सकते हैं जब प्रदेश में जिसकी सरकार हो उसी के संग हो लें। ऐसे में अब तक चलन यही देखा गया है कि गांवों का पार्टी रुझान वही रहता है जिसकी सरकार सूबे में होती है।
यदि सभी तरह के चुनाव एक माह में सिमट जाएं और सभी तरह के मतदान की प्रक्रिया सम्पन्न होने के बाद ही परिणाम घोषित हों तो ऐसी अवसरवादिताओं से एक हद तक छुटकारा मिल सकता है। इसके लिए चुनावी सुधार की व्यापक नीति बनानी जरूरी है अन्यथा शासन के इस गड़बड़झाले को भुगतने की नियति मान भुगतते रहना होगा।

3 फरवरी, 2015

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