Monday, February 9, 2015

पुष्करणा सावा, पुष्करणा समाज और मीडिया

शहर के अखबारों में पिछले पखवाड़े पंचायत राज चुनाव और पुष्करणा समाज के सावे की सुर्खियां सर्वाधिक रही। पुष्करणा ब्राह्मण समाज नगर स्थापना से ही यहां अपनी महती उपस्थिति में है। तब भी जब इस समाज की आजीविका का मुख्य आधार यजमानी था और आजादी बाद अब जब नगर की सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक क्षेत्र की वह मुख्य धुरी बन चुका है। पुष्करणा समाज ही क्यों एक शताब्दी पहले तक समाज के अन्य सभी समूह यथा मर्यादाओं में न केवल जीवन-यापन करते थे बल्कि अवसरों और तय संस्कारों के लिए भी उन्होंने मर्यादाएं तय कर रखी थीं। यह चर्चा का अलग विषय हो सकता है कि निम्न, दलित और पिछड़े कहे जाने वालें वर्गों तक की मर्यादाएं तय करने का जिम्मा प्रभावी या कहें समाज के उच्च वर्गों ने ही हासिल कर रखा था।
बात आज पुष्करणा सावे के सम्बन्ध में कर रहे हैं सो वहीं लौट आते हैं। शहर के पुष्करणा समाज ने अपनी हैसियत अनुसार विवाह जैसे महती सामाजिक दायित्व के निर्वहन के लिए प्रति चार वर्ष से सावे की परम्परा सदियों से बना रखी थी। चूंकि विश्‍वस्तरीय ऑलम्पिक खेल भी चार वर्षों से होते हैं अत: प्रकारान्तर से इसे भी ऑलम्पिक सावा कहा जाने लगा। इस सावे की खासीयत यह थी कि इसमें न कोई दिखावे की गुंजाइश थी और न ही धन की। बरात में दुल्हे का तन मात्र एक पिताम्बर से ढंका होता था तो सिर ढकने को खिड़किया पाग होती थी, बराती ही कुछ गाकर आनन्द की मुनादी करते चलते थे। कम-से-कम विवाह वाले दिन कोई भोजन नहीं होता था। बिना घोड़ी-बाजे और बिना जीमण के होने वाले इन विवाहों की सादगी उल्लेखनीय थी। कन्या पक्ष वालों को अपनी बेटी के लिए जो देना होता था वह बन्द पेटी में बाद में कभी पहुंचा दिया जाता था। इन आदर्श रीति-रिवाजों का निर्वहन कई करते अब भी हैं, लेकिन रस्मी तौर पर ही। समाज में धन के साथ आई दिखावे की लालसा से पुष्करणा समाज भी कैसे अछूता रहता और तब तो हरगिज नहीं जब यह समाज शहर की पावर कास्ट की हैसियत पा चुका हो,  अच्छे व्यवसाय करने लगा हो और छठे आयोग के वेतन के साथ सरकारी नौकरियां करने लगा हो। इस सबके बावजूद इसी समाज के एक बड़े हिस्से को उक्त समृद्धियों में से आंशिक ही हासिल है, ऐसे लोगों के लिए सावे की यह परम्परा अनुकूलता जरूर देती होगी। अब प्रत्येक दो वर्ष बाद थरपे जाने वाले इस सावे का असल भाव सिरे से गायब है।
बावजूद सावे के न केवल दिखावे का बोल-बाला बढ़ा है बल्कि देखा-देखी में सावे वाले दिन बड़े भोज आयोजित होने लगे है, अन्य आम समाजों की तरह यहां भी जितना खाया नहीं जाता उतना फिकने लगा है। बरातियों की कण्ठ-लहरियों की जगह बेसुरे बैण्ड बाजों और दहाड़ते डीजे ने ले ली, जिनमें बजने वाले गीत थिरका तो सकते हैं पर स्थानीयता का आनन्द नहीं दे सकते।
पुष्करणा समाज की त्रिस्तरीयता की फांक आजादी बाद से जो महसूस की जाने लगी थी, इन सावों पर उसे अब साफ देखा जा सकता है। उच्च और मध्यम उपजातियों के अलावा निम्न उपजातियों को ओबीसीकहा जाने लगा। ओबीसीका यहां अभिधा और लक्षणा, दोनों अर्थ हैं यानी पुष्करणा समाज की पिछड़ी जातियां या सीधे कहें तो औझा, भादाणी, छंगाणी। सामान्यत: पुष्करणा समाज की उच्च और मध्यम उपजातियां मजबूरी में इन ओबीसीउपजातियों से बेटियां लाते तो रहे हैं पर देने का चलन कभी बना ही नहीं। प्रकारान्तर से यही ओबीसीउपजातियां समाज में कमजोर मानी जाती हैं। यह सावा भी मुख्यत: अब इन्हीं उपजातियों के लिए रह गया है। शेष उच्च और मध्यम उपजातियों ने एकल सावों की ओर रुख कर लिया। पहले ऐसा नहीं था, रिश्ते वे चाहे अपने हिसाब से करते रहे हों लेकिन चंवरी वे सावे में ही थरपते थे। मजे की बड़ी बात तो यह है कि इन सावों को थरपने की चौधर करने वाली उपजाति और सावे पर विवाह करने वालों को सम्मानित करने वाले पुष्करणा समाज के सामाजिक संगठनों से जुड़े लोग और धनाढ्य अपनी सन्तानों का विवाह इस सावे में नहीं करते। इस तरह कहने को तो वे सावे को प्रतिष्ठा दिलवा रहे हैं लेकिन असल मकसद उनका खुद को प्रतिष्ठ करने का ही रह गया है। सचमुच समाज के लिए कुछ करना हो तो अन्य कई पिछड़े समाजों में आजकल जो सामूहिक विवाहों का आयोजन होने लगा है, पुष्करणा समाज को भी उस ओर विचारना चाहिए। अपने प्रभावों का उपयोग करके परकोटे को एक छत के रूप में मान्यता सरकारी लाभ के लिए तो ठीक पर वह तार्किक तौर पर सही नहीं है।
इस सावे की चर्चा में अखबारों में लगातार बताया जा रहा है कि इस बार डेढ़ सौ विवाह हो रहे हैं। क्या सचमुच डेढ़ सौ हो रहे हैं या किसी एक ने लिख दिया या कह दिया कि डेढ़ सौ हो रहे है और मीडिया वाले लगे टेर देने! पुष्करणा समाज के लोग ही दबी जबान कह रहे हैं कि पचास से सत्तर के बीच ही कल पुष्करणाओं के विवाह हुए हैं। ऐसे में मीडिया की जिम्मेदारी नहीं बनती है कि वह ठिठक कर असलियत को जानने की कोशिश करे? और यह भी कि इस सावे को मीडिया जितनी सुर्खियां दे रहा है या स्थान दे रहा है वह पक्षपात नहीं कहलाएगा। क्या मीडिया अन्य समुदायों द्वारा आयोजित सामूहिक विवाहों के सचमुच के आदर्श आयोजनों को इतनी ही सुर्खियां देता रहा है या भविष्य में देगा?

09 फरवरी, 2015

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