सोशल नेटवर्किंग साइट्स पर पिछले कुछ महीनों से प्रधानमंत्री मोदी के लिए एक विशेषण काम में लिया जाने लगा है- 'फेंकू'
या
'फेकू'। कहने को इसके प्रयोग को हलकापन कहा जा सकता है और उनके लिए तो और भी हलका जो देश के प्रधानमंत्री हों। पिछले बीस वर्षों में भारतीय राजनीति में भाषा का यह हलकापन लगातार बढ़ता जा रहा है। खासतौर से पिछली दो सरकारों में प्रधानमंत्री रहे शालीन मनमोहनसिंह के लिए किन-किन हलके विशेषणों का प्रयोग किया गया, और यह भी कि ऐसे शब्दों का प्रयोग करने वाले और उन्हें हवा देने वाले किस राजनीतिक सोच से प्रतिबद्ध लोग थे, यह किसी से छुपा नहीं। मनमोहनसिंह को चाहे विफल प्रधानमंत्री कहा जा सकता है, कुछ मायनों में वे घोर विफल थे भी। लेकिन, उनके लिए जिन शब्दों का प्रयोग किया जाता था वह उनके साथ ज्यादती ही थी। वर्तमान प्रधानमंत्री खुद तब मनमोहनसिंह के लिए अनर्गल शब्दों का प्रयोग करते रहे और आश्चर्य है कि ऐसी ही नकारात्मक भाषा के चलते वे जनता में अपनी पैठ भी बनाते चले गये।
राष्ट्रपति, उपराष्ट्रपति, प्रधानमंत्री और राज्यपाल यहां तक मुख्यमंत्रियों तक के लिए किए जाने वाले सम्बोधनों में शालीनता को नहीं लांघा जाना चाहिए। खैर, लोक में प्रचलन में आ गई आदतों का बदला जाना मुश्किल होता है। सामान्यत:, यह माना जाता है कि हर क्रिया की प्रतिक्रिया होती है। अब जब मोदी खुद देश के प्रधानमंत्री जैसे गरिमामय पद पर आसीन हो लिए हैं तो उम्मीद की जाती है कि उनके लिए भी गरिमापूर्ण शब्दों का प्रयोग किया जाना चाहिए। लेकिन, लोक में एक कै'बत भी प्रचलित है 'जैसा बोएगा, काटेगा भी वही'। बावजूद इसके यह सुखद है कि 'फेंकू'
को छोड़ दें तो सोशल साइट्स पर मनमोहनसिंह के साथ हुई छिछालेदर जैसी अभी नरेन्द्र मोदी की होनी शुरू नहीं हुई है। इससे मनमोहनसिंह के विरोधियों और नरेन्द्र मोदी के विरोधियों के मानसिक स्तर का एक तरह का आकलन किया जा सकता है।
'फेंकू' या 'फेकू' का सामान्य शाब्दिक अर्थ फेंकने वाला माना जा सकता है और मोदी के सन्दर्भ में 'मरजी आए जो' या 'बिना तथ्यों के' बोलने वाले के रूप में 'फेंकू' कहा जाता रहा है। प्रधानमंत्री बनने से पहले एक राजनेता के रूप में मोदी के बोलने के तौर तरीकों नजरअन्दाज किया जा सकता है लेकिन प्रधानमंत्री बनने के बाद भी यदि वे अपनी आदत ऐसी ही बनाए रखते हैं, तो यह विचारणीय है।
गुरुवार को मोदी प्रधानमंत्री बनने के बाद पहली बार राजस्थान आए और उन्होंने ने जिस तरह से यहां व्यवहार किया, उससे लगता है कि क्या वे इस गरिमामय पद के योग्य हैं। वे अपनी पुरानी शैली में कह गये कि 'मुझे गुजरात का सीएम रहते दक्षिणी राजस्थान को नर्मदा का पानी पहुंचाने का सौभाग्य मिला था। तब के सीएम भैरोंसिंह शेखावत कहते थे कि राजस्थान को कोई चाहे सोना दे दे, पूजा पानी देने वाले की होती है।' पहली बात तो यह कि राजस्थान के जिन जिलों में नर्मदा का पानी आया वे दक्षिणी राजस्थान के नहीं बल्कि दक्षिण-पश्चिमी राजस्थान के हैं। चलो, इसे छोटी चूक मान सकते हैं। लेकिन, भैरोंसिंह के उल्लेख को फेंकने में न माना जाए तो किसमें माना जाए। भैरोंसिंह राजस्थान के मुख्यमंत्री नवम्बर 1998 तक ही रहे। उनके बाद पांच साल अशोक गहलोत रहे। शेखावत अगस्त 2002 में भारत के उपराष्ट्रपति बन चुके थे। मोदी गुजरात के मुख्यमंत्री अक्टूबर 2001 में बने। इन्हीं सन्दर्भों में मोदी के उक्त वक्तव्य को पाठक कृपया दुबारा पढ़ लें। दूसरी बात जो बताई जा रही है कि मोदी ने औपचारिक तौर पर शब्दों में मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे की भले ही तारीफ की लेकिन न केवल पूरे कार्यक्रम में बल्कि सूरतगढ़ के पूरे प्रवास के दौरान उन्होंने वसुंधरा को कोई भाव नहीं दिया। बल्कि टीवी में देखा कि प्रधानमंत्री मोदी अपने चिरपरिचित खिलन्दड़ अन्दाज को छोड़ मुंह फुलाए बैठे रहे। सभी जानते हैं कि वसुंधरा के इस बार मुख्यमंत्री बनने के बाद से मोदी कई बातों को लेकर उनसे नाराज हैं। इसका खमियाजा भी प्रदेश भुगत रहा है। मुख्यमंत्री, केन्द्र और पार्टी हाइकमान दोनों से नहीं मिल रही अनुकूलताओं के चलते उस तरह काम नहीं कर पा रही है जिस तरह उन्होंने अपने पिछले कार्यकाल में किया था। क्या यह सब प्रधानमंत्री पद पर बैठे मोदी को शोभा देता है।
जैसा कि 'विनायक'
ने एक बार पहले भी जिक्र किया था कि मोदी अंग्रेजी भाषा से आतंकित हैं और अब तो यह साबित भी हो गया है कि वे न केवल खोटी और भद्दी अंग्रेजी बोलते हैं बल्कि उनकी जबान लडख़ड़ा भी जाती है। इसी सप्ताह श्रीलंका के राष्ट्रपति सिरिसेना सपत्नीक भारत आए, उन्होंने अपनी सिंहली भाषा में सम्बोधित किया जिसे वहां उपस्थित अधिकांश नहीं समझते थे। वहीं उत्तर सम्बोधन में हमारे प्रधानमंत्री ने अदृश्य स्क्रीन पर पढ़ते हुए अंग्रेजी बोलने की घसकाई लगाई और मिसेज सिरिसेना की जगह एमआरएस सिरिसेना बोल गये। जबकि वहां उपस्थित अधिकांश हिन्दी समझने वाले थे। हिन्दी प्रेमियो! मोदी उसी वैचारिक-राजनीतिक समुदाय से आते हैं जो सोनिया गांधी की खिल्ली उसकी टूटी-फूटी हिन्दी बोलने पर उड़ाते रहे हैं।
मोदी को शासन संभाले नौ माह हो गये हैं और वे आम अवाम की जिन उम्मीदों को जगाकर इस पद तक आए हैं अब उनमें से कुछ को तो पूरा करने में उन्हें लग जाना चाहिए। वे यह समझ लें कि मतदाता का ऋण बहुत बड़ा है, जिसे उन्होंने अभी चुकाना भी शुरू नहीं किया है।
21 फरवरी, 2015
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