प्रदेश
की कम विद्यार्थियों वाली सरकारी स्कूलों को उसके नजदीकी स्कूल में समाहित करने का कार्य चल रहा है। इस कार्य ने शिक्षक संघों, कर्मचारी
संघों से लेकर नेताओं और जनप्रतिनिधियों तक को चेतन कर दिया है। लगने लगा है कि प्रदेश की स्कूली शिक्षा की धुरी ये सरकारी स्कूल ही हैं। ऐसा नहीं है कि सभी सरकारी स्कूलों का ढर्रा बिगड़ा हुआ हो, अपवादस्वरूप
कुछ भले मानुषों के चलते कई स्कूल धुरी की भूमिका में हैं भी, लेकिन
जो माहौल है उसमें इस साख को वे भी कब तक बचा पाएंगे, कह
नहीं सकते।
पिछले
एक-दो
महीनों से सिलसिला शुरू हुआ कि ग्रामीण क्षेत्रों के विद्यार्थी जिला मुख्यालयों पर पहुंच कर कलक्टर से गुहार लगाते हैं कि उनकी स्कूल में अध्यापक नहीं है, जिससे
उनकी शिक्षा में बाधा आ रही
है-ग्रामीण
क्षेत्र की सरकारी स्कूलों के बारे में सुना जाता रहा है कि इनमें अधिकांश में अध्यापकों और कर्मचारियों ने पहुंचने की बारी बांध रखी है कि किस वार को किसे पहुंचना है ताकि स्कूल का ताला तो कम से कम खुल जाए, यानी
बच्चों को ढंग से पढ़ाया जाना चाहिए इसकी न उन्हें
चिन्ता रही, न
ही अभिभावकों को और न ही
गांव के जनप्रतिनिधियों को। ऐसी सुर्खी देखी-सुनी
कम ही याद पड़ती है कि गांव की स्कूलों में इस बारी-बंधी
के खिलाफ कोई उद्वेलन हुआ हो। ये स्कूलकर्मी न केवल
पंचों-सरपंचों
को बल्कि गांव के हाका-बाजों
को भी मैनेज किए रखते हैं ताकि उनकी यह फरलो चलती रहे। सरकारी स्कूलों की इस फरलेबाजी के सहयोगियों में कहीं-कहीं
उस गांव-शहर
के निजी स्कूलों के मालिकों की भी गिनती होती है। यानी सरकारी स्कूलों में पढ़ाई ढंग से नहीं होगी तो अभिभावक मजबूरन और झक मराकर निजी स्कूल में अपने बच्चे को भेजेंगे ही।
उदारीकरण
और नई आर्थिक नीतियों की आंच से सभी सरकारी सेवाएं कैसे बच सकती थी और अनार्थिक शब्द तो ये तथाकथित 'लोककल्याणकारी' सरकारें कम से कम अस्पताल व स्कूलों
के सम्बन्ध में काम नहीं ले सकतीं सो 'एकीकरण' ले आया गया। रही सही कसर इन सरकारों ने अपनी स्कूलों को पूरे अध्यापक और कार्मिक नहीं देकर वर्षों से बंटाधार करवाने में सहयोगी रही है।
सरकारी
स्कूलों की साख पिछले पैंतीस-चालीस
वर्षों से लगातार गिरते पेंदे तक पहुंच गई है। इस दौरान न अभिभावक
चेते और न ही
जनप्रतिनिधि। सरकारी स्कूलों की साख गिराने की इन करतूतों से लाभान्वित लोग इन नेताओं-जनप्रतिनिधियों
की नाड़ दबाते रहे और पंच-सरपंचों
से लेकर विधायक-सांसद
तक भी इससे आंखें मूंदे रहे।
परसों
डॉ. बीडी
कल्ला इस 'एकीकरण' पर चेतन हुए और एकीकरण की प्रक्रिया पर शिक्षा के अधिकार कानून के उल्लंघन का आरोप लगा दिया। डॉ. कल्ला
लम्बे समय तक प्रदेश के शिक्षामंत्री रहे हैं और प्रदेश कांग्रेस के अध्यक्ष जैसे प्रभावी पद पर भी रहे हैं। उन्नीस सौ अस्सी से प्रदेश की राजनीति में प्रभावी भूमिका निभाने वाले कल्ला ने इन पैंतीस वर्षों में क्या कभी यह चिन्ता की कि इन सरकारी स्कूलों की गत ऐसी क्यों हो रही है। अब ये सब इस दबाव में चेतन हो रहे हैं कि बन्द होने वाली स्कूलों में जमे अध्यापक और कार्मिकों को अब इधर-उधर
फेंका जाएगा, जगह
उनके अनुकूल होगी या प्रतिकूल, कह
नहीं सकते। ज्यादा प्रतिकूल हुई तो फिर अनुकूलता के लिए क्या-क्या
नहीं करना पड़ेगा, कितने
दाम लग जाएंगे। यह सब हाय-तौबा
इसलिए नहीं है कि स्कूलों में अध्यापन कार्य सुचारु हो। उसका कबाड़ा तो चालीस सालों से हो ही रहा है, कोई
बोला क्या? और
यह मीडिया भी जिसमें अखबार और खबरिया चैनल दोनों आते हैं जो ऐसे ही समूहों को सुर्खियां देते हैं। अन्यथा मीडिया इस ओर सचेत रहता तो बिगाड़ा इतना न होता।
कभी-कभार
या कुछेक अपवाद छोड़ दें तो मीडिया हमेशा आंखें मूंदें ही रहा है। अभी तो देखते जाओ यह एकीकरण स्वास्थ्य केन्द्रों और अस्पतालों पर भी मंडरायेगा। अन्यथा निजी अस्पतालों और डॉक्टरों की चलेगी कैसे?
22 अगस्त, 2014
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