Saturday, August 2, 2014

माध्यमिक शिक्षा अभियान के बहाने

विभिन्न रियासतों के विलय के साथ 1949 में राजस्थान ने प्रदेश का स्वरूप लिया। कुछ सामन्तों ने सहर्ष तो कुछ ने टेढ़े होकर सरदार वल्लभभाई पटेल के प्रयासों को मान दे दिया। कहते हैं कि विलय दस्तावेजों पर हस्ताक्षर करने वालों में बीकानेर के शासक अग्रणी रहे। प्रदेश की राजधानी जयपुर में बननी तय थी सो दूसरी लगभग समान रियासतों का मान रखना ही था। जोधपुर को उच्च न्यायालय और बीकानेर को शिक्षा सम्बन्धी प्रशासकीय और शैक्षिक मुख्यालय मिला। शुरू में विद्यालयी-महाविद्यालयी सभी की कमान यहीं थी, प्रदेश में शिक्षा के ढांचे का विकास हुआ तो प्रशासनिक सुविधा के हिसाब से महाविद्यालयी शिक्षा को अलग करके उच्चाधिकारियों ने बड़ी सफाई से इसे जयपुर स्थापित करवा लिया। हालांकि महाविद्यालयी शिक्षा का निदेशक का पद आज तलक विभागीय है लेकिन उसके जयपुर में होने से प्रशासकीय पहुंच के हिसाब से सुविधा महसूस करते होंगे।
आबादी बढ़ी-स्कूल बढ़े तो बेड़ा भी बढ़ता गया, फिर विभक्ति की जरूरत पड़ी। प्राथमिक को अलग किया गया। चूंकि ग्रामीण शिक्षा पर केन्द्र से धन मिलने लगा तो पिछले कई वर्षों से कवायद यह चल रही है कि ग्रामीण इलाकों के प्राथमिक स्कूल शिक्षा मंत्रालय से लेकर ग्रामीण मंत्रालय के अन्तर्गत इनकी कमान पंचायतों को दे दी जाए। इसमें पेचीदगियां इतनी पेश रही हैं कि कई सरकारों के पलटने के बाद भी निर्णय नहीं हो पा रहा।
इसी तरह माध्यमिक शिक्षा अभियान के नाम पर केन्द्र से अनाप-शनाप धन मिलने लगा तो इसकी प्रशासनिक व्यवस्था जयपुर में स्थापित कर दी गई ताकि जयपुर में टिकने का तर्क मिल जाए। निदेशक, माध्यमिक और निदेशक, प्राथमिक-दोनों ही पद चूंकि भारतीय प्रशासनिक सेवा अधिकारियों के हैं और इनमें से अधिकांश की इच्छा जयपुर में ही रहने की होती है। अधिकांशत: तय भी इन्हीं को करना-करवाना होता है सो बस पड़ते ये जयपुर छोडऩा ही नहीं चाहते। इनको यदि कलक्टर बनने का लालच हो या ये संभव कर सकते कि जिलों की कलक्टरियां जयपुर में ही लगा करेंगी तो इनकी तत्परता देखने योग्य होती।
यह सब कौथिणा आज इसलिए कि सरकार ने यह निर्णय किया है कि माध्यमिक शिक्षा के अधीन चलने वाले माध्यमिक शिक्षा अभियान के कार्यकलापों को बीकानेर स्थित निदेशालय से ही अंजाम दिया जायेगा। पता नहीं यह कैसे संभव हो गया अन्यथा निदेशक का मुख्यालय से नदारद रहने का एक माकूल बहाना था। समन्वय के नाम पर राधाकृष्णन संकुल का कैम्प कार्यालय तो था ही। खैर, उम्मीद की जानी चाहिए कि निदेशक बदलने पर व्यवस्था नहीं बदलेगी और निदेशक महीने में कम-से-कम बीस दिन तो यहीं बैठा करेंगे।
संचार साधनों में हुए विस्फोट के बाद यह तर्क पौचा लगता है कि निदेशालय राजधानी से दूर बीकानेर में होने पर प्रशासनिक क्षमताएं शिथिल होती हैं। आज इंटरनेट के माध्यम से चुटकियों में दस्तावेज इधर-उधर हो सकते हैं और वीडियो कान्फ्रेंसिंग ने रू-बरू चर्चा बातचीत के अवसर दे दिए हैं। केन्द्रीयकरण की आकांक्षा या कहें लालच शासकीय स्तर पर हो या प्रशासकीय-अन्तत: अमानवीय और समानता के खिलाफ है, बरगलाने के लिए तर्क चाहे कुछ भी घड़ लिए जाएं। उम्मीद की जानी चाहिए कि राज ऐसी पुख्ता व्यवस्था करेगा कि शिक्षा सम्बन्धी दोनों निदेशालयों के सभी कार्यकलापों को यहीं से निर्देशित किया और निबटाया जायेगा। इन पदों पर आने वाले प्रशासनिक अधिकारियों को भी यह मानकर तसल्ली कर लेनी चाहिए कि वे इस पद पर भी कलक्टरी का रुतबा ही भोग रहे हैं। वैसे भी दो-तीन साल से ज्यादा इन्हें कहीं रहना नहीं होता।

2 अगस्त, 2014

No comments: