Saturday, August 16, 2014

अच्छे दिनों का अच्छा भाषण !

स्वतंत्रता दिवस पर लालकिले की प्राचीर से मनमोहनसिंह के लिखित, कम प्रभावी नीरस पिछले दस सम्बोधनों के बाद प्रधानमंत्री मोदी का कल का सम्बोधन चर्चा में है, इस सम्बोधन को पहले से ही यह कह कर चर्चित किया गया कि मोदी पहली बार बिना पढ़े बोलेंगे, हालांकि मोदी बोले लिखे हुए नोट्स के आधार पर ही। जिन्होंने नेहरू और इन्दिरा गांधी के ऐसे ही सम्बोधनों को सुन रखा है उन्हें नहीं लगता कि मोदी का कल का भाषण ज्यादा प्रभावी है। मोदी ने भी पूरी सावचेती बरती उन्होंने ऐसा कोई नाम लिया जिस पर विवाद हो सकता था और ही कोई नकारात्मक मुद्दे उठाए। मोदी ने आधिकारिक सम्बोधनों और वक्तव्यों में ऐसी सावचेती बरतनी तब से शुरू कर दी जब आम चुनावों के आखिरी दौर में उन्हें यह लग गया कि आम-आवाम को भ्रमित करने में वे कांग्रेस से ज्यादा सफल हो लिए हैं। ऐसा लगते ही उन्होंने साक्षात्कार प्रायोजित करवाए और इनके जवाबों और वक्तव्यों में आम सभाओं के सम्बोधनों से अलग लाइन पकड़ी। किसी एंकर ने हिम्मत दिखाकर इस ओर ध्यान दिलाया तो मोदी ने तभी स्वीकार कर लिया था कि आम सभाओं में कहने का मकसद अलग है। जो यहां जो कह रहा हंू वही अधिकृत है। इसीलिए मोदी ने मीडिया के विभिन्न रूपों में पिछले कुछ दिनों से राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के घोषित कुछ पूजनीय के नामों का उल्लेख तक नहीं कियामहंगाई, धारा तीन सौ सत्तर, भारत-पाक की वास्तविक नियंत्रण रेखा पर होने वाली नापाक हरकतें और चीनी घुसपैठ का स्मरण तक नहीं किया जबकि यह सब बदस्तूर जारी है। ऐसा करना मोदी की दुविधा नहीं चतुराई है। वे जानते हैं इन सब समस्याओं से पार पाना आसान नहीं। लेकिन कल के मोदी के भाषण के बाद यह देखने को जरूर मिला कि सोशल मीडिया पर जिन मोदीनिष्ठों की पिछले दो महीनों से बोलती बन्द थी वह केवल सुगबुगाने लगे वरन् जो बचाव की मुद्रा में गए थे वे पुन: आक्रामक हो गए। उम्मीद करते हैं आगामी परिस्थितियां उनके ये तेवर कायम रखने में मदद करेंगी।
खैर, इसको छोड़ते हैं। मोदी ने कल कई अच्छी बातें कींमहिलाओं-युवतियों के लिए घर-घर, स्कूल-स्कूल में 'शौचालयों' का आह्वान किया, माता-पिताओं से कहा कि बेटों की अच्छी परवरिश करें ताकि वे महिलाओं पर अत्याचार नहीं करें। कन्याभ्रूण हत्या पर भी वे बोले और डाक्टरों से इसे रोकने की 'गुजारिश' की। हालांकि बराबरी के दर्जेे के लिए संसद और विधानसभाओं में महिलाओं के तैंतीस प्रतिशत आरक्षण के अटके बिल पर वे कुछ नहीं बोले। प्रत्येक स्कूल में शौचालय की योजना तो दी पर सरकारी स्कूलों की प्रतिष्ठा कैसे लौटेगी, इस बारे में कुछ नहीं बताया।
मोदी ने साम्प्रदायिक हिंसा का जिक्र करते हुए इसकी भत्र्सना जरूर की लेकिन पिछले दो माह के उनकी पार्टी के निर्णय और कई सहयोगियों की प्रतिक्रियाओं पर और चुप्पी, प्रश्न खड़े करती हैं। उन्होंने सांसदों और विधायकों से कहा कि वे प्रतिवर्ष एक-एक गांव को चुनें और उसका आदर्श विकास करें। सब बातें उन्होंने अच्छी-अच्छी कहीं। ऐसा सब कुछ हो जाये तो फिर कहना क्या! लेकिन इन सब को दक्षता से होने देने में जो सबसे बड़ी बाधा भ्रष्टाचार है, उसे मोदी ने कल के अपने सबसे जरूरी सम्बोधन में छुआ तक नहीं। हां, पिछले सप्ताह लद्दाख में जरूर यह कहा था कि मैं (रिश्वत) खाऊंगा और खाने दूंगा। यदि उसी सम्बोधन को इस भाषण का सप्लीमेंट मानें तो मोदी ये बताएं कि क्या यह संभव है कि नेता, मंत्री और बड़े अधिकारी तो बड़ी छूटें, इजाजतें देने के लिए अपने लिए और पार्टी के लिए भी सब लेना-देना करें पर नीचे के 'बेचारेÓ छुटभैय्या नेता-अधिकारी और बाबू आदि-आदि इससे वंचित रहें, यह कैसे संभव है। सभी जानते हैं कि नेता और मंत्री चाहे वे किसी भी पार्टी के हो उनके अनाप-शनाप खर्चें हैं। चुनाव लडऩा महंगी खीर है, मोदी इनमें सुधारों की कुछ घोषणा करते तो कुछ दूरी तो तय करते, उनको जनता ने पांच साल ही दिए हैं। 'साठ साल कुछ करने वाले हमसे साठ दिनों का हिसाब पूछ रहे हैं—' सप्ताह भर पहले ही पार्टी अधिवेशन में कांग्रेस को कहकर हड़काने वाले मोदी कल अचानक इतने विनम्र कैसे हो गये कि पिछली सभी सरकारों और प्रधानमंत्रियों को अब तक के विकास का श्रेय दे गए।
नहीं लगता कि प्रधानमंत्री मोदी यह समझ नहीं रहे हैं कि भ्रष्टाचार पर बिना अंकुश लगाए वे कुछ अच्छा कर पाएंगे। इसीलिए वे देश को पीपीपी (निजी-सरकारी साझेदारी) मोड को सुपुर्द करने पर उतारू हैं। यह पीपीपी मोड  देश के लिए उतना ही खतरनाक है जितनी इबोला, एड्स जैसी महामारियां आदमी के लिए। समय रहते नहीं चेते तो प्रत्येक सबल और समर्थ अपने से कम सबल और समर्थ का शोषक होगा। और इससे पूरी तरह बचने के लिए सबसे समर्थ और सबल होने की होड़ में लगना होगा और होड़ अब जब खेलों में भी सकारात्मक नहीं रही तो शेष क्षेत्रों में कैसे रह सकेगी। जब बात प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (एफडीआई) की करेंगे तो 'कम, मेक इन इण्डिया' कहना जितना आसान है, उसे भुगतना उतना ही मुश्किल होगा क्योंकि बाजार इस दुनिया से बाहर नया अभी ढूंढ़ नहीं पाएं हैं। जब सभी देश इस जुमले को आजमाने लगेंगे तो जरूरत दूसरी दुनिया के बाजारों की पड़ेगी ही।
देखना यही है कि मोदी अपने दिए भ्रमों को पांच वर्षों तक बनाए रख पाते हैं या नहीं, अन्यथा देश कुएं से निकल कर खाईं में और खाईं से निकल कर वापस कुएं में गिरने को मजबूर होता रहेगा।

16 अगस्त 2014

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