Tuesday, August 12, 2014

रघुराम राजन का वक्तव्य

भारतीय रिजर्व बैंक के गवर्नर रघुराम राजन के बारे में कहा जाता है कि 2008 की वैश्विक आर्थिक मन्दी के पूर्वानुमान उन्होंने 2005 में यानी तीन वर्ष पहले ही दे दिए थे। इस मन्दी ने सम्पन्न कहलाने वाले यूरोपीय देशों के साथ अमेरिका को भी हिला कर रख दिया था। भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान (आइआइटी) दिल्ली से इलैक्ट्रिकल्स में स्नातक और भारतीय प्रबन्ध संस्थान (आइआइएम) अहमदाबाद से व्यवसाय प्रबन्धन में अधिस्नातक तमिल मूल के रघुराम राजन को आधुनिक आर्थिक और वित्तीय मामलों का विशेषज्ञ माना जाता है।
इस संक्षिप्त परिचय के उल्लेख की आज जरूरत इसलिए कि राजस्थान पत्रिका के स्थानीय संस्करण के मुखपृष्ठ के आठवें कालम में सबसे नीचे एक छोटी खबर लगी है, रघुराम राजन के वक्तव्य के हवाले की इस खबर को मीडिया ने कोई खास सुर्खिया देना पता नहीं क्यों जरूरी नहीं समझा।
मुम्बई में कल दिए एक व्याख्यान में रघुराम ने कहा कि 'जनहित के बजाय कुछ खास लोगों के हितों को तरजीह देना लोकतांत्रिकता के लिए हानिकारक है। देश में जनसुविधाओं का तंत्र गरीबों के लिए है ही नहीं। भ्रष्ट नेता वोट इसलिए पाते हैं, क्योंकि जन सुविधाएं उपलब्ध कराने वाला तंत्र अपना काम सही से नहीं करता और ये नेता लोगों के थोड़े बहुत काम करवा कर आसानी से वोट पा जाते हैं।' उन्होंने अपने इसी व्याख्यान में यह भी कहा कि 'पूंजीपतियों की नेताओं के साथ सांठगांठ अर्थव्यवस्था और स्वतंत्र उद्यम के विकास को नुकसान पहुंचा रही है।'
सरकार में बेहद जिम्मेदारी और महती पद पर कार्यरत रघुराम के इस बयान को मीडिया में कुछ खास सुर्खिया मिलने से दो स्थितियों की पुष्टि होती है, एक तो यह कि भारतीय मीडिया तंत्र को पूंजीपतियों ने अपनी जेब में रख लिया है और दूसरा रघुराम का यह कहा पूंजीपति-समूहों को असहज करता है।
रघुराम राजन की इस महती पद पर नियुक्ति कांग्रेसनीत पिछली संप्रग सरकार के समय हुई थी लेकिन उनके इस वक्तव्य से मनमोहनसिंह सरकार को बरी किया जा सकता है और ही मोदी सरकार को। बल्कि मोदी जिस पूंजीवादी अर्थतंत्र से अभिभूत हैं और जिस तरह से शासन को वे हांकते हैं उसमें इस तरह के वक्तव्य दुस्साहसी कहे जाएंगे। आधुनिक कहें या वैश्विक, अर्थतंत्र में पिछले डेढ़ दशक से लगभग बड़े पुर्जे के तौर पर कार्यरत रघुराम का उक्त वक्तव्य उनके मानवीय होने की साक्षी देता है। लगभग अमानवीय हो चुके इस आधुनिक अर्थतंत्र के अन्य विशेषज्ञ ऐसी समझ तो रखते होंगे लेकिन हो सकता है बजाय मानवीयता के वे अपने तंत्र के अनुशासन को ज्यादा महत्त्व देते रहे हों।
ऐसा नहीं है कि रघुराम राजन ने अपने उक्त वक्तव्य में ऐसा कुछ नया बरामद कर लिया हो जैसा कोई अन्य सोचता भी नहीं। अध्ययन, स्वाध्याय और मनन में मानवीय दृष्टिकोण वाले तथा देश और दुनिया में हजारों लोग ऐसा और ऐसा-सा ही विचारते और अभिव्यक्त करते रहते हैं लेकिन उनके कहे कि भूमिका नक्कारखाने में तूती से ज्यादा की नहीं होती। रघुराम के कहे का असर भोंपू-सा हो और जैसी-तैसी भी इस वर्तमान अर्थव्यवस्था में उनकी बात को वजन दिया जाय तो 'अच्छे दिनों' की थोड़ी-बहुत उम्मीद बांध सकते हैं। मोदी सरकार और उनके नियन्ताओं की समझ से सचमुच के अच्छे दिन क्या लाए जा सकते हैं? लग तो नहीं रहा। प्रकारान्तर से ये मनमोहन सरकार के आर्थिक तौर-तरीकों को ही ज्यादा चतुराई से लागू करते दीख रहे हैं। मोदी की प्रशासनिक चुस्ती या अन्य कवायदों का असली मकसद छोटे-बड़े सभी पूंजीपतियों को दक्ष सेवाएं देना ही है। इसी सन्दर्भ में पाठकों से फिर आग्रह है कि इस आलेख के शुरू में दिए रघुराम के वक्तव्य को एक बार और पढ़ लें। इस वक्तव्य में अन्तिम समाधान नहीं है लेकिन ये उस चौराहे तक तो ले जा ही सकता है जहां से सचमुच के 'अच्छे दिनों' की ओर प्रस्थान किया जा सकता है।

12 अगस्त, 2014

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