Wednesday, August 20, 2014

छात्रसंघ चुनावों की जरूरत ?

छात्रसंघ चुनावों को विनायक की 'अपनी बात' का मुद्दा लगातार तीसरे दिन इसलिए बनाया जा रहा है कि कल ही सम्भाग के हनुमानगढ़ जिले के संगरिया कस्बे में चुनावी रैली में गोलियां और पत्थर चले जिसमें दो युवकों की मौत और चार के घायल होने का समाचार है। इन छात्रसंघ चुनावों की अनिवार्यता की सिफारिश के साथ जेएम लिंगदोह ने चुनावी आचार संहिता जैसी सख्त सिफारिशें भी अपनी रिपोर्ट में की थी। उच्चतम न्यायालय के आदेश के बाद विश्वविद्यालय अनुदान आयोग के माध्यम से इस सम्बन्ध में सभी उच्च शिक्षण संस्थानों को अवगत करवाया गया। सिफारिशें लागू होने के शुरू के एक-दो साल को छोड़ दें तो प्रकारांतर से वे सब हथकंडे छात्रसंघों के चुनावों में भी अपनाए जाने लगे जो लोकसभा और विधानसभा के चुनावों में अपनाए जाते रहे हैं। राजनीति को पेशे के रूप में अपना चुकों में यह भय तो काम करता ही है कि चुनाव लडऩे के अयोग्य ठहरा दिए गए तो इस अच्छे-खासे धंधे से बाहर हो जाएंगे। लेकिन छात्रसंघ चुनावों में ऐसा कोई भय नहीं है। ज्यादा से ज्यादा छात्रसंघ का चुनाव लडऩे के अयोग्य ठहरा दिए जाएंगे, संस्थान से निकाल भी दिया गया तो पहले तो कहीं और दाखिला ले लेंगे, अन्यथा कुछ तो दाखिला लेते ही है चुनाव लडऩे के लिए ताकि इस माध्यम से चर्चित होकर राजनीति में दबदबे वाली एंट्री ले सके।
छात्रसंघ के चुनावों को शुरू करने का मकसद तो यही था कि इस महती लोकतांत्रिक प्रक्रिया से भविष्य के इन कर्णधारों को अवगत करवाया जा सके। यह विचार जब बना तब आम चुनावों में वोट देने की न्यूनतम उम्र इक्कीस वर्ष थी। लेकिन अब तो इसे अठारह कर दिया गया है। कोई विद्यार्थी इन महाविद्यालयों, विश्वविद्यालयों में दाखिला लेता है तो उसकी उम्र वैसे भी सत्तरह-अठारह वर्ष की हो चुकी होती है। ऐसे में उक्त विचार का महत्त्व कम हो लेता है। देश में राजनीतिक पेशे को जिस तरह से अंजाम तक अब पहुंचाया जाने लगा है और उसी का लघु-बीभत्स रूप यदि इन छात्रसंघ चुनावों में देखने को मिलने लगा है तो इस लोकतांत्रिक प्रशिक्षण बन्द कर दिया जाना ही अच्छा है। बल्कि बजाय चुनावों के, इन संस्थानों के लिए नागरिकता की शिक्षा का पाठ्यक्रम तैयार करवाकर एक प्रश्न पत्र प्रत्येक स्नातक और डिप्लोमा शिक्षा में अनिवार्य कर दिया जाना चाहिए।
जो छात्र नेता जितने ज्यादा पैसे बहाकर और अधिक दबंगई से जीतता है उसका राजनीतिक पेशे में प्रवेश आसान हो जाता है, अन्यथा वहां स्थापित होने के लिए सबसे कठिन प्रतिस्पर्धा का सामना करना पड़ता है। इसे हम बीकानेर के सन्दर्भ में इस तरह भी समझ सकते हैं कि मान लें शहर की कुल आबादी सात लाख है। अब शहर के हिसाब से राजनीति के सफल धंधेबाजों की फेहरिस्त बनाएं तो मेयर सहित साठ वार्ड पार्षद, एक नगर विकास न्यास के अध्यक्ष, दो विधायक और आधा सांसदकुल जमा कितने हुए। इस हिसाब से सफलता कितनों को मिली, मात्र साढ़े तिरेसठ को, कुछ और राजनीतिक नियुक्तियों को शामिल कर कुल सत्तर मान लेते हैं। यानी प्रत्येक दस हजार पर इस राजनीतिक धन्धे में मात्र एक के सफल होने की गुंजाइश है। वह भी स्थाई नहींपांच वर्ष बाद बाहर कर दिए गये तो! बाहर कर दिए गयों के हालात देख-समझ लें।
यह सब बताने का मकसद इतना ही है कि जिस भाव और मंशा से इन छात्रसंघ चुनावों को शुरू किया गया वह सिरे से ही गायब है। वैसे भी, अधिकांश सरकारी विश्वविद्यालयों और महाविद्यालयों में पढऩे-पढ़ाने की नीयत कम ही देखी जाती है। ऐसे में इन छात्रसंघों के चुनावों को यदि बंद ही कर दिया जाय तो यह लाभ तो जरूर होगा कि जीवन की इस शुरुआती उम्र में उन सब हथकंडों में फंसने से विद्यार्थी बच सकते हैं, जो 'अलोकतांत्रिक और अमानवीय' हैं।

20 अगस्त, 2014

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