Thursday, July 31, 2014

पैली रहता 'यूं' तो तबला जाता क्यूं

प्रदेश के निगमों के कार्मिकों, सरकारी कर्मचारियों और शिक्षकों के असंतोष, धरना-प्रदर्शन आदि-आदि खबरों के बारामासी हेतु हो गए हैं। इन दिनों विद्युत वितरण निगमों, राज्य पथ परिवहन निगम और शिक्षा विभाग के कर्मचारी शिक्षक विशेष तौर पर उद्वेलित हैं। कारण, विद्युत निगम और पथ परिवहन निगम के कई कार्यकलापों को निजी हाथों में सौंपने की बजटीय घोषणा एवं सरकारी स्कूलों का समानीकरण और एकीकरण है। इनके हितसाधक कर्मचारी और शिक्षक संघों को लग रहा है कि इस नई व्यवस्था से उनके हितों पर कुठाराघात होगा।
इन सार्वजनिक और सरकारी सेवाओं की कार्यक्षमता, तत्परता एवं दक्षता से प्रत्येक वह नागरिक परिचित और छुट-पुट तौर पर पीडि़त होगा जिसका काम इनसे पड़ा होगा। अपवादस्वरूप कुछ भले लोग सभी महकमों में मिलते  ही हैं, उनके उदाहरणों से काम चलता तो आज निजीकरण और एकीकरण की नौबत नहीं आती। 'विनायक' को यह फिर लिखने में कोई झिझक नहीं है कि इन समूहहित-संघों ने हमेशा अधिकारों की बात की, कर्तव्यों की नहीं।
पथ परिवहन निगम जिसे बोलचाल में रोडवेज कहते हैं-निजी बसों से ज्यादा किराया वसूलती है और सेवाओं का स्तर बहुत हलका है। पिछले बीस वर्षों में यात्री रोडवेज का सफर विकल्पहीनता की स्थिति में ही करता है क्योंकि अधिक किराया देने के बावजूद इसमें यात्रा करके असुविधा तो भोगनी ही होती है, अकसर टिकट खिड़की पर बैठे व्यक्ति या चालक-परिचालक के अपमानजनक व्यवहार को भी भुगतना होता है। लोक में प्रचलित है कि ग्राहक भगवान होता है लेकिन इस भगवान का हश्र सरकारी और सार्वजनिक सेवाओं में क्या होता है, किसी से छुपा नहीं है। निजी क्षेत्र की बसों में जहां पहले यात्रियों को अच्छी सेवाएं और अच्छा व्यवहार मिलता था वहीं अब कई बार देखा गया है कि वह भी अब रोडवेज कर्मचारियों से भी बदतर व्यवहार अपने इस 'भगवान' से करने लगे हैं। निजी बस सेवा वाले आपस में जूतम पैजार करते हैं वह अलग। इस सब से पीडि़त यात्री ही होता है जो इन सेवाओं के लिए भुगतान करता है।
कमोबेश ऐसी ही स्थिति विद्युत निगमों की रही है। इसके कर्मचारी दक्ष होने के बावजूद कोई--कोई बहाना बना कर अपने उपभोक्ता की सेवा में तत्पर रहे हैं और ही चाक-चौबन्द। छीजत को काबू में या खत्म करने की निगम ने कभी परवाह की हो, याद नहीं पड़ता बल्कि इसके लिए प्रेरित करते ही देखे गये हैं। इन्हें कभी इसकी ग्लानि ही नहीं हुई कि जिस थाली में खा रहे हैं उसी में छेद कर रहे हैं। नतीजा यह कि नया काम और रखरखाव तो ठेके पर दे ही दिया गया, रहा-सहा वितरण का काम यदि निजी क्षेत्रों को सौंप दिया गया तो क्या ठन-ठन गोपाल बचेगा?
सरकारी स्कूलों की दुर्दशा पर यह बताने की जरूरत नहीं कि दक्ष अध्यापकों के बावजूद अभिभावक यहां तक कि स्वयं सरकारी शिक्षक भी इन स्कूलों में अपने बच्चे को भरती करवाना इसलिए जरूरी नहीं समझता कि या तो 'गुरुजी' स्कूल आएंगे ही नहीं- गये तो कक्षा में नहीं जायेंगे, और कक्षा में जाने का एहसान कर दिया तो कैसा पढ़ायेंगे किसी से छुपा नहीं है। नतीजा स्कूलों में दाखिले बन्द हो गये, निजी स्कूलों को बढ़ावा मिला गया।
निजी स्कूल किस तरह चलते हैं यह भी किसी से नहीं छुपा है लेकिन सरकारी स्कूलों से फिर भी ठीक हैं। सो अभिभावक ठगीजने और विद्यार्थी जैसे-तैसे शिक्षण को मजबूर हैं। सरकारी शिक्षक निजी स्कूलों के शिक्षकों से चार-पांच गुणा तनख्वाह अधिक लेकर भी ड्यूटी आधी नहीं बजाते। यहां भी नतीजा वैसा ही कि जनता की गाढ़ी कमाई से प्राप्त करों और राजस्व से प्राप्त धन से से शिक्षा विभाग जैसे महकमे को चलाना राज के लिए भी अब भारी हो गया।
इन सबकी अकर्मण्यता का नतीजा हमारी अगली पीढ़ी को भुगतना होगा। सरकारी सेवाओं में रोजगार के अवसर लगातार सिमटते जा रहे हैं और उन्हें निजी क्षेत्र में शोषण करवाने को मजबूर होना पड़ेगा।
आज से तीस-चालीस वर्ष पहले इन कर्मचारी और शिक्षक संघों की हड़तालों के साथ जनता की सहानुभूति होती थी जो लगातार कम होते-होते अब एकदम समाप्त हो गयी है। अब इन हड़तालों का आह्वान करने वालों के मुंह पर सही पसवाड़े से तो दुत्कार ही मिलती है। अब भी मौका है ये संघ अपनी तासीर बदल लें अन्यथा कुछ भी नहीं बचेगा और अन्तत: भुगतना आम-आवाम को ही पड़ेगा।

31 जुलाई, 2014

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