प्रधानमंत्री
नरेन्द्र मोदी ने अपने अंतरंग सहयोगी रहे अमित शाह को भाजपा का राष्ट्रीय अध्यक्ष बनवा लिया है। अमित शाह मोदी की ही तरह बचपन से राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से जुड़े रहे हैं और राजनीति की शुरुआत उन्होंने अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद, भारतीय
जनता युवा मोर्चा जैसे प्रारम्भिक पायदानों से गुजर कर ही की। 1982 में
अपनी किशोरावस्था से ही मोदी की संगत पा गये शाह मोदी के लगभग वैसे ही विश्वस्त हैं जैसे हिन्दी फिल्म 'मुन्नाभाई
एमबीबीएस' में
मुन्नाभाई के सरकिट होते हैं। इस तुलना को पाठक सकारात्मक लेते हैं या नकारात्मक, वे
ही जानें पर जिन्होंने इस फिल्म को देखा है उनके लिए निर्णय करना ज्यादा आसान होगा। इस फिल्म में नायक संजय दत्त को मासूम अराजक बताया गया। सरकिट की भूमिका में अरशद वारसी मुन्नाभाई की भूमिका निभा रहे संजय दत्त के हर किए को सही ठहराते है और हर कहे को करने को बिना किन्तु-परन्तु
तत्पर रहते हैं।
नरेन्द्र
मोदी अपनी जिद का भारत बनाना और देखना चाहते हैं। पिछले आम चुनावों में आम जनता से उन्होंने साठ महीने चाहे थे। जनता ने भी बकरी की भूमिका न निभाते
हुए बिना मींगणियां मिलाए दूध दिया यानी पूर्ण बहुमत से मोदी को शासन सौंपा है। पदभार ग्रहण करते ही मोदी को लगा कि अधिकतम मांगा गया, जनता
ने दे भी दिया, लेकिन
इन साठ महीनों में वो मन की न कर
पाएंगे, बनते
ही तो एक बार 120 महीनों
की बात उनकी जबान से इस तर्क के साथ फिसल ही गई थी कि साठ महीनों में तो 'पिछले
बिगाड़ों' को
सुधारना और नया आधारभूत ढांचा खड़ा करना है। इसलिए परिणाम वे अगले साठ महीनों में ही दे पाएंगे। जिस तरह आजादी की लड़ाई में कांग्रेस ने गांव-गवाड़
तक जड़ें जमा ली थीं, वैसा
ही अवसर अब भाजपा को मिल गया है।
उन्नीस
सौ बयासी में एक साथ आए मोदी और शाह ने गुजरात में यह कर दिखाया था। देश में सबसे मजबूत गुजरात के सहकारिता आंदोलन से कांग्रेस को बेदखल किया और फिर गांवों से भी। मोदी की योजना और शाह की सांगठनिक क्षमता से यह संभव हो पाया। परिणाम सामने है पिछले बीस सालों में कांग्रेस की जड़ें वहां लगातार कमजोर ही होती गईं।
मोदी
की मंशा है कि पूरे देश में पार्टी वैसी ही प्रभावी हो जैसी गुजरात में हो गई है। शाह जनमे चाहे मुम्बई में हों पर उन्होंने शिक्षा-दीक्षा
और तरक्की उन महात्मा गांधी के गुजरात में हासिल की जिनका तर्क है कि गलत साधनों से अच्छा हासिल कर ही नहीं सकते यानी शुद्ध साध्यों को पाने के लिए साधन भी शुद्ध होने चाहिए। पर मोदी और शाह दोनों की कार्यशैली से लगता है कि उनके संस्कार गांधी के संस्कार नहीं। संघ भी दिखावे के तौर पर ही गलत तरीकों का निषेध उपदेशों में तो करता ही है। चूंकि जिस कांग्रेस से उनकी प्रतिस्पर्धा है जो गांधी का नाम भी ढोए फिरती है, जब
वही संस्कार भूल गई तो भाजपा भी नैतिकता को क्यों ढोए?
तमाम
आरोपों के बावजूद जनता ने मोदी और शाह को इस चुनावी व्यवस्था में स्वीकार किया ही है। अमित शाह गुजरात रणनीति को उत्तरप्रदेश में भी अपनाकर सफल हो चुके हैं, अब
देश पर आजमाने की तैयारी है। कांग्रेस ने सबक अभी भी नहीं लिया है, वह
अभी भी उन राहुल गांधी से अलग नहीं हो पा रही जिन्होंने बालिग न होना
लगभग तय ही कर रखा है। ऐसे में संघ, भाजपा
और शाह का काम आसान है। हासिल करने के तौर-तरीकों
की बदतरी में मोदी के नेतृत्व में भाजपा ने कांग्रेस को पछाड़ दिया है। एक अरसे से देश बकरे की अम्मा की भूमिका में ही है, राज
कांग्रेस का हो या भाजपा का, खैर
मनाने की गुंजाइश लग नहीं रही है।
10 जुलाई, 2014
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