एक अफसोसनाक
खबर जिसके कल शाम बाद ही फ्लैश होने के बावजूद अखबारों की हेडलाइन नहीं बनाया गया। हैदराबाद के एक तकनीकी महाविद्यालय के 24 विद्यार्थी अपने दो प्राध्यापकों
के साथ हिमाचलप्रदेश के मंडी जिले में व्यास नदी में बह गये। कहा जा रहा है कि ये विद्यार्थी जब अपने शिक्षकों के साथ व्यास के किनारे पर थे तभी अचानक बांध का पानी छोड़ दिया गया। इन विद्यार्थियों के समूह में से कुछ बचे भी हैं लेकिन अचानक से आया बहाव इतना तेज था कि वे संभल ही नहीं पाए और नदी उन्हें बहा ले गई। इन बांधों को संचालित करने की तकनीकी, विधि तय है, और इनसे प्रभावित क्षेत्रों में बिना मुनादी करवाए अचानक पानी नहीं छोड़ा जाता, बावजूद इसके यह लापरवाही
हुई जिससे 24 घर किस
कदर प्रभावित हुए होंगे, अन्दाजा लगाना दर्दनाक होगा।
मुलाजिम सरकारी हो या
निजी कॉरपोरेट हाउसों में काम करने वाले, अपनी ड्यूटी को दक्षता
से अंजाम नहीं देते तो इस तरह की लापरवाहियां समाज में कैसे पनपी? क्या इसके जिम्मेदार हम सभी
नहीं। सामान्यत: मनुष्य की ऐसी
लापरवाहियों को मानवीय भूल कह कर जिम्मेदार लोगों को बचाने की मुहिम घटना के साथ ही शुरू हो जाती है। कुतर्क के साथ भावनात्मक भयादोहन (इमोशनली ब्लैकमेलिंग) में कहा जाने लगता है कि
उसने गलती करदी, घर-परिवार उजड़ जाएगा, छोटे-छोटे
बच्चे हैं, उसे सजा मिलने से गए
हुए तो लौटेंगे नहीं। अलावा, इसके दोषी को बचाने
के लिए साम दाम, दण्ड-भेद
की सभी युक्तियां अपनायी जाने लगती है। गवाहों, अपीलार्थियों को धमकाया
भी जाता है, जांच को इतना
लम्बा खींचा जाता है कि बहुत से प्रमाण और सन्दर्भ गड्ड-मड्ड हो जाते
हैं। जैसे तैसे जांच पूरी हो भी जाती है तो अदालतों में लटका दिया जाता है। आजादी बाद के इन छासठ सालों में ऐसे हादसों की जिम्मेदारी इसी गत को प्राप्त होती अकसर देखी गई है। इस तरह की अक्षम्य लापरवाहियों का एक बड़ा पोषक और दुष्प्रेरक भ्रष्टाचार है जो न केवल इस देश को बल्कि मानवीयता को भी लगातार खोखला किए जा रहा है। मानवीय लापरवाहियों और लालच में होने वाले ऐसे हादसों के बहुत कम मामले मिलेंगे जिनमें जिम्मेदार को कानून सम्मत सजा मिली हो। अंत-पंत,
जैसे-तैसे और ले-देकर छूट जाने का भरोसा
समाज में जब तक बना रहेगा तब तक ऐसी लापरवाहियां और हादसे होते रहेंगे।
कल व्यास
नदी में बह गये बाइस छात्र-छात्राओं और दो
शिक्षकों के परिजनों का दु:ख घड़ी-दो घड़ी भी यदि आम भारतीय महसूस करे और ऐसे हादसों की तह में जाए तो हो सकता है कुछ सकारात्मकता के बीज प्रस्फुटित हों। लेकिन सामाजिक और जीविकोपार्जन की परिस्थितियां ही ऐसी बना ली गई हैं कि दूसरों की तो छोड़ो ऐसे हादसों से जो परिवार सीधे प्रभावित होते हैं, थोड़े समय बाद वे भी
इसे नियति मान कर उसी ढर्रे पर लौट आते हैं, जिस भ्रष्ट और लापरवाह
ढर्रे पर शेष चल रहे होते हैं। सुख के जिन साधनों को जुटाने के लिए अंधी-दौड़ में जो शामिल
हैं उन्हें यह भान ही नहीं है कि दरअसल वे दु:ख का
सामान ही सहेज रहे हैं। चिंता इस बात की है कि कल के हादसे के शिकार शैक्षणिक भ्रमण पर आए विद्यार्थी और उनके शिक्षक जिस लापरवाही के शिकार हुए हैं वैसी लापरवाही जीवनचर्या में वह कम नहीं हो रही बल्कि लगातार बढ़ती जा रही है।
9 जून,
2014
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