Monday, June 2, 2014

भंवरलाल शर्मा की राजनीति

कांग्रेस के इस काळ समय में विधायक भंवरलाल शर्मा कोई चौळका नहीं करते तो अचम्भा होता। शर्मा ने सोनिया गांधी का पूरा और राहुल का अधूरा लिहाज करते दो दिन पहले दैनिक भास्कर के त्रिभुवन को दिए चतुराई पूर्ण साक्षात्कार में राजस्थान के किसी शीर्षस्थ कांग्रेसी को शायद ही बख्शा था। सोनिया के लिहाज का कारण भी अपरोक्ष तौर पर बता ही दिया कि उन्होंने, उन्हें मिलने का समय दे दिया था।
कांग्रेस के साथ जो कुछ हुआ वह सब अचानक 16 मई को ही नहीं हुआ। इस दिन तो उस नेपथ्य का परदा भर उठा था जिसे होने देने की छूट साल-सवा साल से आशंकित कई कांग्रेसियों ने दे रखी थी। जिस तरह की व्यावहारिक राजनीति का आयोजन कांग्रेस आजादी बाद से करती आई है उसमें, एक नहीं अनेकों भंवरलाल अपने को फलने-फुलाने में लगे रहते हैं।
भारतीय समाज हमेशा से तीन-चार तथाकथित उच्चवर्गीय समूहों से प्रभावित संचालित होता रहा है, अन्यों की अनुकूलता-प्रतिकूलता इसी में है कि प्रभावी समूहों से आने वाले नेतृत्व की मन:स्थिति मानवीय या फिर कितनी अमानवीय है।
आजादी बाद के व्यावहारिक राजनीति के इतिहास को देखें तो पहले तीस वर्षों में चुनाव जीत कर राज करने वालों में अधिकांश उन उच्च जातीयवर्गों से थे जो कुल मतदाताओं का 12-15 प्रतिशत ही थे, और है। इनमें अधिकांश भले थे और आजादी के आन्दोलन से उनका दूर-नजदीक का वास्ता तो रहा ही था। बावजूद इसके उनकी मानवीय कमजोरियों के चलते भ्रष्टाचार पनपा, राज से लाभान्वित अधिकांशत: वही हुए जो किसी किसी रूप में उनके नजदीकी थे। आजादी के बाद समानता की आकांक्षा असल में यहीं से दम तोडऩे लगी। यदि ऐसा नहीं होता तो 1977 बाद के अगले तीन दशकों में जातिवाद इस तरह नहीं मुंह दिखाता। हमारे राजनेताओं में ऐसी संकीर्ण मानसिकता नहीं होती तो देश में जातिवाद ऐसी कुरूपता से आज दिखाई नहीं देता। उच्चवर्गीय समूहों के चतुर अपनी इन्हीं करतूतों को आड़ देने के लिए आरक्षण को दोषी ठहराते रहते हैं। आरक्षण यदि सद्इच्छा से क्रियान्वित किया जाता तो परिणाम दूसरे होते।
भंवरलाल शर्मा हमेशा स्वकेन्द्रित राजनीति करते आए हैं, यूं कहना ज्यादा उचित होगा कि राजनीति का उपयोग उन्होंने अपने लिए और अपनों को सबल और समर्थ करने में ही किया। हमारे यहां 'काचर का बीज' की उपमा प्रचलित है। काचर जो चटनी की स्वादिष्टता बढ़ाता है पर दूध में गिर जाए तो उसे फाडऩे में देर नहीं लगाता। दोनों भूमिकाओं में से कौनसी निभानी है, शर्मा खुद ही तय करते हैं, पैसा और प्रभावी जातीय समूह से होने के चलते वे चुनाव जीतते आए हैं। भाजपा, कांग्रेस सिम्बल भी दे तो अनुकूलता देख कर निर्दलीय भी चुन लिए जाने की कूवत रखते हैं। दुस्साहसी पराकाष्ठा का परिचय 1996-97 में वे भैरोंसिह शेखावत जैसों की नींद हराम करके दे चुके हैं तो देवीसिंह भाटी जैसों की अकल काढऩे की चतुराई भी तभी दिखा चुके हैं। इन लोकसभा चुनावों में शर्मा अपने पुत्र से राजनीति का 'डेबू' चूरू से करवाना चाहते थे, पार नहीं पड़ी।
चुनावों में पछाड़ खाई कांग्रेस के साथ तब तक ऐसा ही होता रहेगा जब तक सुधरने और संभलने की इच्छाशक्ति वह अपने में नहीं जगाएगी।

2 जून, 2014

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