Friday, June 6, 2014

हर मौसम का अपना आनन्द होता हैं

शहर का तापमान अपने मापक में अड़तालीस डिग्री छूने को है। मौसम विभाग के हवाले अखबारों में शाया होने वाले इस तापमान पर लोग अब संशय इसलिए भी करने लगे हैं कि अधिकांश आधुनिकों के पास अपने व्यक्तिगत तापमापक हैं जो इससे भिन्न परिणाम दिखाते हैं, हो सकता है व्यक्तिश: उपयोग में लिए जाने वाले सभी तापमापक खरे नहीं हों। दूसरा यह भी कि मौसम विभाग जिन यंत्रों और उन्हें उपयोग में लेने की अन्तरराष्ट्रीय मानकों अनुसार विशेष परिस्थितियां तय होती है। हालांकि मानवीय भूल और लापरवाही की गुंजाइश से इनकार यहां भी नहीं किया जा सकता।
मौसम पर आम चर्चा में खासतौर से तापमान को लेकर मौसम विभाग द्वारा प्रसारित गर्मी में अधिकतम और सर्दी में न्यूनतम तापमान के आंकड़ों पर अविश्वसनीयता का आक्षेप लगाने वाले कम नहीं होते पर खुद उनके कहे की विश्वसनीयता का ठोस आधार भी कहां होता है। इनमें से अधिकांश को मापने के लिए सृजित की जाने वाली उन विशिष्ट परिस्थितियों की जानकारी ही नहीं होती। सूचनाओं के अधूरेपन या अज्ञानता के अभाव में तापमान मापने का जिसको जैसा भी मापक हाथ लगा हुआ है उसके लिए वही प्रामाणिक होगा। ऐसे में यह अफवाह भी अकसर सुनते ही हैं कि अधिकतम तापमान को लेकर आमजन में भय का संचरण हो इसलिए यह सरकारी मौसम विभाग दो-एक डिग्री का गुल-गपाड़ा किए बिना नहीं रहता। चर्चा एक और भी होती है कि तापमान यदि बावन से ऊपर चला जाए तो उस क्षेत्र में सरकार को केवल अस्थाई आपातस्थिति लगानी होती है बल्कि राहत के उपाय भी तत्परता से करने होते हैं, हालांकि ऐसे प्रावधानों की अधिकारिता जानने की जरूरत किसी ने शायद ही की हो, हमने भी नहीं!
मौसम में बदलाव प्राकृतिक है, तीन सौ पैंसठ दिन के इस समयमान में वर्ष को छह मौसमों में बांटा हुआ है-ग्रीष्म, प्रावृट (वर्षाकाल), शरत, हेमंत, शिशिर और वसंत। प्रकृति से सम्बन्धित सभी कारोबारों को इन : ऋतुओं के आधार पर ही व्याख्यायित किया जाता है। हो सकता है हजारों वर्ष पूर्व जब तीन सौ पैंसठ दिन का समयमान रहा हो तब ऋतुओं का क्रम भी अब से भिन्न रहा होगा पर फिलहाल तो हमें इन्हीं को आधार मान कर बात करनी होगी। लगभग ज्ञात इतिहास में मौसमों के क्रम और तापमान यही रहे हैं, तब एसी, पंखे, कूलर, हीटर जैसे वातानुकूलन के साधन नहीं थे तो दिनचर्या भी वैसी ही थी, भरी गर्मियों में तड़के उठकर काम लगना, दोपहर में कुछ सुस्ताना, शाम निबटाना और रोशनी के अभाव में रात को जल्दी सोने की आदत थी। यहां तक कि चालीस-पचास साल पहले तक बीकानेर में ही दोपहर में दुकानों के दरवाजे ओडाल कर दुकानदारों ने पौढऩे की आदत बना रखी थी।
इस अजब-गजब समय में स्वास्थ्य संबंधी सुविधाओं के सुलभ होने के बाद औसत आयु बढ़ रही है, फिर भी आदमी के पास समय कम होता जा रहा है, लालच और लोभ की चकरी चढ़े लोग भागमभाग में ही लगे देखे जाते हैं। मौसमों को 'मैनेज' करने की मनुष्य की कूवत ने इनके असल आनन्द को ही समाप्त कर दिया है। अन्यथा कुछ बुजुर्ग ऐसे भी मिल जाएंगे जो बता सकते हैं कि भरपूर गर्मी और भरपूर सर्दी का आनन्द वे कैसे लेते थे, तब उनके पास केवल मौसमानुसार अपनी समय-सारिणी थी बल्कि खान-पान भी मौसमानुसार ही थे। इन विविधताओं से वंचित आधुनिक जीवन शैली की ऊब को महसूस करने का समय भी बचा है क्या?

6 जून, 2014

1 comment:

Smart Indian said...

अच्छा आलेख है। वे अजीब-अजीब से तर्क मैंने भी सुने हैं, लेकिन कभी किसी विश्वसनीय व्यक्ति से नहीं।