Friday, June 20, 2014

पीबीएम अस्पताल : अब खाने के दांत भी दिखा दो

शासन को कल जब शहर में होना था। पीबीएम अस्पताल प्रशासन और नगर प्रशासन को भनक लगी कि शासन अस्पताल और रवीन्द्र रंगमंच का दौरा आज ही कर सकता है। फिर क्या था दोनों तरफ हड़कम्प मच गया। सूबे के चिकित्सा एवं स्वास्थ्य मंत्री राजेन्द्रसिंह तो दिखाने के दांत दिखाने पीबीएम पहुंच गये लेकिन रवीन्द्र रंगमंच पर कोई सरकार नहीं पहुंची, चूंकि रंगमंच के इस मुद्दे को मीडिया वालों ने गोद लिया हुआ है या कह सकते हैं धर्मेला निभा रहे हैं सो हो सकता है खुद मुख्यमंत्री सही कोई कोई तो यहां पहुंचेगा ही। वैसे इस बहाने कल रंगमंच परिसर और आसपास की सड़कों पर साफ सफाई जरूर हो गई। रवीन्द्र रंगमंच को लेकर प्रशासन की कोई उच्च मंशा हो-ताजमहल तो शायद वे यहां नहीं बना सकते लेकिन इक्कीस साल से निर्माणाधीन इस रवीन्द्र रंगमंच को लेकर आगरे के दयालबाग के समकक्ष-सा दावा तो कर ही सकते हैं। इस देश में जवाहरलाल नेहरू के बाद किसी भी राजनेता की रुचि साहित्य, संस्कृति और कलाओं में नहीं रही, शायद नेहरू जितनी तो किसी की भी नहीं।
खैर, रंगमंच का जो होना है होगा पर आम-आवाम की पीबीएम अस्पताल से आरोग्य-आकांक्षाएं पिछले बीस-पचीस साल से जरूर दरकती जा रही हैं। दरकती क्या अब तो समाप्तप्राय-सी हैं। सार्वजनिक क्षेत्र की सभी सेवाएं भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ गईं जिसकी बड़ी शिकार शिक्षा एवं स्वास्थ्य सेवाएं हुई हैं। तीस साल पहले तक पीबीएम अस्पताल के रंग-ढंग आज के किसी भी निजी क्षेत्र के अस्पताल से कम नहीं थे। डॉक्टरों की पोस्टिंग छोडऩे की आकांक्षाओं, राजनेताओं की भूख और कर्मचारी यूनियनों पर काबिजों के स्वार्थों ने इन जरूरी सेवाओं का बंटाधार कर दिया। पोस्टिंग और फरले खरीदे जाने लगे तो उसके लिए अतिरिक्त धन की भी जरूरत होती है, केवल तनख्वाहों से काम तो चल नहीं सकता। अस्पताल की रगो में ज्यों-ज्यों भ्रष्टाचार दौडऩे लगा त्यों-त्यों पक्षाघाती अकर्मण्यता अस्पताल व्यवस्था के प्रत्येक अंग को नाकारा करती गई।
ये डॉक्टर सभी तरह की अनुकूलताएं हासिल करने के लिए केवल नेताओं के घोटे पूजते हैं बल्कि प्रत्येक प्रभावी की बेगारें करने से भी नहीं चूकते। जिस सार्वजनिक धन से इन्होंने अपनी चिकित्सीय पढ़ाई पूरी की और जिस  सार्वजनिक धन से ये तनख्वाहें पाते हैं उस सार्वजनिक या आम-आवाम के प्रति ये अपनी कोई जिम्मेदारी महसूस नहीं करते पर प्रत्येक उस प्रभावी और दबंग को विशेष सेवाएं देने से नहीं चूकते जिनसे इन्हें आशंका हो कि ये इनके लिए थोड़ी भी प्रतिकूलता पैदा कर सकते हैं। ऐसों में ये मीडिया वाले भी आते हैं। शिक्षा, चिकित्सा और कानून व्यवस्था--समाज की ये तीनों जरूरी सेवाएं जिनके जिम्मे हैं वे मीडिया वालों को मैनेज करना बखूबी जानते हैं, अन्यथा पिछले तीस-चालीस सालों से लगातार क्षरित होती इन सेवाओं पर इन मीडिया वालों ने कब और कितनी बार आगाह किया। हां, इन मीडिया वालों की हेकड़ी को कभी इन सेवा प्रदाताओं से हिचकोले मिले तो जरूर चेतन होते हैं, पर 'गलती' का एहसास होते ही तुरन्त मीडिया वालों को पम्पोळ लिया जाता है।
पीबीएम अस्पताल में कल पहुंचे स्वास्थ्य मंत्री द्वारा सभी तरह की अव्यवस्थाओं के लिए हड़काने को दिखाने के दांत इसलिए कहा कि क्या राठौड़ को नहीं पता कि प्रदेश के सभी सरकारी अस्पतालों का कमोबेश ऐसा ही हाल है, क्या उन्हें यह भी नहीं पता कि ऐसा क्यों है। सब पता है लेकिन मीडिया में सुर्खियां पाने और आम-आवाम की क्षणिक तसल्ली के लिए ऐसा करना जरूरी होता है। शासन और प्रशासन की सभी अव्यवस्थाओं को जिस भ्रष्टाचार की डोर में पिरोया हुआ है उसे बदलना जरूरी है। ये राजनेता इसे बदलने की सोच भी नहीं सकते, बदलेंगे तो खुद भरभराकर ढह जाएंगे। राठौड़ तो क्या कोई भी राजनेता अपने खाने के दांत दिखाने का साहस नहीं कर सकता, केवल दिखाने के दांत दिखाकर ये काम चला लेते हैं। इसीलिए कहते हैं कि जैसे ये शासन आपके द्वार आया है वैसे ही चला जायेगा। राजी करने को कुछ कर भी जाए तो उसे शंका की दृष्टि से ही देखना कि इसमें इनका क्या 'इंटरेस्ट' है। इन दिनों टीवी पर एक विज्ञापन बहुत चलता है 'नो उल्लू बनाविंग' लेकिन हम बनने से फिर भी नहीं चूकते।
20 मई, 2014


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