Wednesday, April 9, 2014

अर्जुन मेघवाल को नहीं पता : कळदार आडे नहीं खड़े लेते हैं भाटी

भाटियों के नखरों को लेकर स्थानीय लोक में एक कथा प्रचलित रही है। पिछली सदी की शुरुआत में जब रेलगाड़ी हमारे इस भू-भाग में पहुंची तब यहां राजवी राठौड़ वंश के विरासती गंगासिंह का शासन था और पड़ोस की जैसलमेर रियासत में भाटियों का। जोधपुर के शासकों ने अपना इलाका रेल लाइन से कराची जोड़ लिया। रेल बीकानेर आई तो गंगासिंह इसे उत्तर में पंजाब तक ले गये, पर उन्हें लगा कि सिन्ध तक रेल से पहुंच बन जाए तो रियासत को लाभ ज्यादा होगा। प्राचीन काल में पूरब से पश्चिम की ओर आने-जाने वाले परम्परागत व्यापारिक रास्तों में एक बीकानेर रियासत से होकर गुजरता था, पर बीच में जैसलमेर रियासत थी। कहते हैं गंगासिंह को पता था कि भाटी सौरे-सांस रेल सेवा के लिए तैयार नहीं होंगे सो प्रस्ताव में प्रलोभन दे दिया कि जैसलमेर रियासत यदि रेललाइन जैसलमेर तक डालने की इजाजत देती है तो वहां के शासक को बीकानेर से जैसलमेर तक रेललाइन पर कतार में पट (आडे) रखे कळदार (एक रुपये का चांदी का रियासती सिक्का) भेंट में देंगे। रेललाइन डालने का पूरा खर्चा तो बीकानेर रियासत को उठाना ही था। जैसलमेर शासक को प्रस्ताव मिला तो कई दिन चिन्तन-मनन, विचार-विमर्श किया गया। निष्कर्ष में उन्होंने यह पाया कि गंगासिंह को इस रेल सेवा से जरूर कोई बड़ा फायदा होने वाला है। उन्होंने वापसी सन्देश में कहलवाया कि प्रस्ताव मंजूर है पर कळदार आडे (पट) नहीं खड़े ही लेंगे। एक को दूसरे से सटाकर खड़े रखे सिक्के, यानी जैसलमेर की इस स्वीकृति को स्वीकार करने का मतलब प्रस्ताव से सत्तरह गुना ज्यादा भुगतान करना। तब के रियासती प्रचलित सिक्के को पट रखकर उस पर सटाकर सिक्के खड़े करेंगे तो लगभग सत्तरह सिक्के हो जाते हैं, कहते हैं गंगासिंह जवाब सुनकर लाजवाब हो गये। रेलगाड़ी जैसलमेर आजादी बाद ही पहुंच सकी। इस कथा के प्रचलन के बाद से भाटी गौत्र के लोग जब कभी सामाजिक आचार-व्यवहार में कहीं अड़ जाते हैं तो पुराने लोग बाग अब भी कहे बिना नहीं रहते कि 'हां भई, अे तो भाटी हैं, सिक्को खड़ो ही लेयसी' इस कथा को घड़ा कर प्रचलित कराए जाने का मकसद शासक ही जानें। गंगासिंह को लेकर कई कथाएं लोक में प्रचलित हैं जिसमें एक वह भी है जिसमें बीकानेर का व्यक्ति कोलकाता पहुंचा और स्टेशन से उतरते ही हावड़ा ब्रिज देखा और डाफाचूक होकर बोल पड़ा कि 'वाह रे गंगासिंह कांई पुळ बणवायो है'-
बीकानेर लोकसभा क्षेत्र के भारतीय जनता पार्टी उम्मीदवार अर्जुनराम मेघवाल की कोलायत में कल आयोजित चुनावी आमसभा में देवीसिंह भाटी नहीं पहुंचे और जब मेघवाल से इस बाबत पूछा गया तो सिवाय आकळ-बाकळ होने के उनसे जवाब देते नहीं बना। पिछले कई दिनों से देवीसिंह भाटी की मान-मनौअल कई स्तरों पर चल रही है। शनिवार को लूनकरणसर क्षेत्र की चुनावी सभाओं में प्रदेश भाजपा सुप्रीमो वसन्धुरा राजे खुद अपने उडऩ खटोले में भाटी को लेकर पहुंची तो लोगों को लगा कि भाटी ने अपने बट खोल दिए हैं पर 'विनायक' ने अपने सोमवार के सम्पादकीय में इस पर संशय को प्रकट कर दिया था।
कोलायत की भाजपाई चुनावी सभा के समाचार सुबह के अखबारों में पढ़े तो भाटियों के नखरे से सम्बन्धित उक्त कथा का स्मरण हो आया। पर सींथल मूल के कांग्रेस प्रत्याशी शंकर पन्नू को बाहरी बताने वाले भाजपा के उम्मीदवार अर्जुनराम मेघवाल को स्थानीय लोक में प्रचलित उक्त कथा का ज्ञान होता तो शायद वे पिछले पांच साल में देवीसिंह भाटी से खैबी नहीं लेते और खैबी नहीं ली होती तो उन्हें यह दिन देखने नहीं पड़ते। भाटी अपनी साख के अनुसार 'खड़े सिक्के के लिए अड़े रहे' तो लगभग बराबरी का यह चुनाव मेघवाल को भारी पड़ सकता है। मेघवाल भूल रहे हैं कि पिछले चुनाव में वे मात्र साढ़े उन्नीस हजार वोटों से ही जीते थे। साथ यह भी कि पिछले विधानसभा चुनावों में अपने क्षेत्र के आठ में से जीते-हारे छह उम्मीदवार उनके साथ या तो बेमन से लगे हैं या फिर सिद्धीकुमारी जैसे चुनाव अभियान से नदारद हैं। ऐसे में नरेन्द्र मोदी की केवल आंधी से काम नहीं चलेगा। उन्हें जीतने के लिए इस क्षेत्र में मोदी तूफान की जरूरत होगी।

9 अप्रेल, 2014

1 comment:

Unknown said...

Shandar aur sateek vishleshan...