Saturday, April 12, 2014

बीकानेर के अब तक के सांसद : काम के न काज के-एक

उन्नीस सौ सैंतालीस में भारत आजाद हुआ और उन्नीस सौ उनचास में बीकानेर रियासत का विलय। विलय के बाद ही उन्नीस सौ पचास में तत्कालीन शासक शार्दूलसिंह का निधन हो गया। आजादी के बावजूद उनके पुत्र डॉ. करणीसिंह को उनका रियासती उत्तराधिकारी घोषित किया गया। उन्नीस सौ बावन में पहला आम चुनाव होना था। विलय की शर्तों में विशेषाधिकार तो मिल गये पर राज में भागीदारी और उसमें हैसियत हासिल करने की मंशा से बीकानेर लोकसभा क्षेत्र के पहले चुनाव में डॉ. करणीसिंह उम्मीदवार हो लिए। अब तक जिनके पूर्वज जागीरें बख्शा करते थे, वे नये शासक आम-आवाम से सांसदी रूपी जागीर मांगने चुनाव में खड़े थे। लोग बताते हैं कि डॉ. करणीसिंह ने अपने रुतबे और ठसक को कायम रखते हुए चुनाव जीता। आम-आवाम सामन्ती समर्पण का आदी था। एक हद तक आज भी है। अब तक जिनके सामने खमाघणी अन्नदाता कहने की मुद्रा में खड़े रहते थे, पहली बार उन्हें कुछ देने के हासिल हुए सुख से जनता का बौराना लाजमी था। कोई चुनौती भी नहीं थी, कांग्रेस ने मैदान छोड़ दिया और तब समाजवादियों का गढ़ कहलाने वाले बीकानेर के समाजवादियों ने कुछ किया-धरा नहीं। ऐसी पोल चार चुनावों तक चली।
पिछली सदी के सातवें दशक के अन्त में नई सोच के साथ इन्दिरा गांधी ने कांग्रेस और देश की कमान संभाली। वह अपने पिता नेहरू से कुछ अलग कर दिखाना चाहती थीं। उन्होंने समाजवाद को अपनाया। बड़े उद्योगों का राष्ट्रीयकरण किया एवं पूर्व शासकों के विशेषाधिकार खत्म किए। अब तक सांसदी भोग रहे डॉ. करणीसिंह में पहली बार कुछ सक्रियता देखी गयी- वह भी अपने हितों के लिए, विशेषाधिकारों को समाप्त करने के विरोध में वे सर्वाधिक मुखर थे। यहीं से उनके और कांग्रेस के बीच का याराना खत्म हुआ। इंदिरा गांधी ने अवसर देख कर 1971 में मध्यावधि चुनावों की घोषणा कर दी। जाट प्रभावी इस बीकानेर में जाट केवल इसलिए पूर्व शासक परिवार पर मुग्ध थे कि इनके सभी का 'राजतिलक' उनसे ही करवाया जाता है। कांग्रेस ने उनकी राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं को जगाया। 1971 के चुनाव में पहली बार कांग्रेस ने बीकानेर से उम्मीदवार खड़ा किया। जाट भीमसेन चौधरी, वीरेन्द्र बेनीवाल के पिता। डॉ. करणीसिंह को एहसास हो गया कि अब राह आसान नहीं है। सच भी था जाट वोटों में फंटवाड़े के लिए भारतीय क्रांतिदल के दौलतराम सारण और शहरी जननेता मुरलीधर व्यास द्वारा निजी स्वार्थों के चलते समाजवादी पार्टी और कांग्रेस के राष्ट्रीय स्तर के समझौते के विपरीत कांग्रेस का विरोध और डॉ. करणीसिंह का समर्थन नहीं किया होता तो डॉ. करणीसिंह की जीत संभव नहीं थी। बीकानेर के समाजवादियों के इस निर्णय को हास्यास्पद इसलिए कहा जा सकता है कि समाजवाद से प्रेरित इन्दिरा गांधी के जिन निर्णयों को डॉ. करणीसिंह ने चुनौती दी, यहां वे उसी कांग्रेस के विरोध में और विशेषाधिकारों के पक्षधर थे। समाजवादियों और समाजवादी विचारधारा से स्थानीय जन का मोहभंग संभवत: यहीं से शुरू हो गया। उधर इन्दिरा गांधी पर भी 1971 की बड़ी सफलता का नशा सिर चढ़कर बोलने लगा। 1975 आते-आते उन्होंने आपातकाल का सहारा लिया और उन्हें 1977 के हश्र को भोगना पड़ा।
डॉ. करणीसिंह ने जैसे-तैसे वह चुनाव जीत लिया, लेकिन उनकी समझ में गया कि केवल राजतिलक करने के सामंती लॉलीपॉप से यहां के जाटों की राजनीतिक महत्त्वाकांक्षाओं की पूर्ति नहीं होने वाली है। कहते हैं चुनाव अभियान के दौरान ही उन्होंने तय कर लिया था कि यह उनका अन्तिम चुनाव होगा।
डॉ करणीसिंह ने सांसदी के पचीस साल केवल स्टेटस सिम्बल के रूप में भोगे। नागौर, चूरू, श्रीगंगानगर तक फैले इस लम्बे चौड़े क्षेत्र में डॉ. सिंह के कार्यकाल का ऐसा एक भी उल्लेखनीय काम नहीं जिसे गिनाया जा सके। देश आजाद हुआ तब राजस्थान में बीकानेर का तीसरा नम्बर था। जयपुर, जोधपुर बीकानेर सहित पांच संभागों में बंटे इस प्रदेश में विकास के मामले में धीरे-धीरे बीकानेर पांचवें स्थान पर लुढ़क गया। वो तो पांच के बाद का नम्बर ही नहीं था, नहीं तो पूरी आशंका थी कि और नीचे जाता। बाद के सभी सांसदों का भी रिकार्ड डॉ. करणीसिंह से कोई बहुत बेहतर नहीं है। उन पर अगली कड़ी में बात करेंगे और चाहेंगे कि केवल स्टेटस सिम्बल हासिल करने के लिए ही सांसद बनने वालों को जनता नकारना सीखे। अब तो आपके पास 'नोटा' का बटन भी है।

12 अप्रेल, 2014

1 comment:

Unknown said...

बहुत ही सटीक विश्लेषण..