रेलवे ने कल बीकानेर-रतनगढ़ पैसेन्जर शुरू की। नेताओं की सहूलियत के लिए गाड़ी रवानगी के तय असली समय 5-10 सुबह से अलग अपराह्न एक बजे समारोह रखा। मुख्यअतिथि केन्द्रीय राज्य मंत्री सचिन पायलट समय से सिर्फ दस मिनट देरी से पहुँचे, सिर्फ इसलिए लिखा कि तय समय से आधे-पौने घण्टे देरी से पहुँचना नेताओं के लिए सामान्य बात है, बावजूद इसके वे सिर्फ दस मिनट की देरी करके पहुँच तो गये। पायलट को लगा होगा कि दस मिनट की देरी भी गड़बड़ है सो ‘आव देखा ना ताव’ आते ही हड़बड़ी में झण्डी दिखादी, यह भूल गये कि प्रोटोकॉल ना सही सामान्य शिष्टाचार के नाते ही सही इस एढ़े उनके साथ होने वाले क्षेत्रीय सांसद अर्जुन मेघवाल पहुँचे कि नहीं। वैसे शिष्टाचार कहता यह भी है कि मेघवाल को मुख्यअतिथि से पहले पहुँच जाना था, किसी कारणवश नहीं पहुँच पाए तो कम से कम वहां ‘सीन’ तो क्रिएट नहीं करते, पर राजनीति जो करवाए वह ठीक है। अन्यथा सभी जानते हैं कि विभिन्न दलों के ये नेता सार्वजनिक तौर पर चाहे एक दूसरे के मुखातिब बाहें चढ़ाते रहें, कोथली में गुड़ फोड़ने के समय एका करते देर नहीं लगाते।
जैसा कि जिक्र किया कि लेट-लतीफी राजनेताओं की फितरत में है, आज से नहीं, वर्षों से। 1984 की बात है तब अपने बीडी कल्ला मंत्री (राज्य मंत्री) बने-बने ही थे। एक उद्घाटन समारोह में उन्हें मुख्यअतिथि बनाया गया, अध्यक्षता मनीषी डॉ. छगन मोहता की थी। डॉ. छगन मोहता समय से पूर्व पहुँच गए। चूंकि फीता कल्ला को काटना था सौ आमन्त्रित सभी मोजिज उनका इन्तजार करते रहे। आधा-पौना घण्टा बीत जाने पर कल्ला नहीं आए तो मेजबान सर्किट हाउस पहुँच गये जहां कल्ला ठहरे हुए थे। कोई व्यस्तता नहीं केवल देर से पहुँचने का इन्तजार भर कर रहे थे। नेताओं को दीक्षा में पता नहीं कौन गुरु मंत्र देता है कि समय पर पहुँचे तो रुतबा कम हो जायेगा।
अब अपने सांसद अर्जुन मेघवाल पाग पहनना भले ही कल्ला के मोसे के चलते ना छोड़ते हों पर देर से पहुँचने के मामले में उनसे होड़ करते ही दीखते हैं। इन नेताओं में से किसी को भी इस बात का भान नहीं है कि उनके देरी से पहुँचने के बाद भी लोग-बाग इन्तजार करते हैं तो अपनी-अपनी बायड़ से ही करते हैं ना कि उनको सुनने के लिए। कोई आयोजकों का लिहाज करके उडीकता है तो कोई इस बहम में कि इसी बहाने अपना थोबड़ा नेताजी को दिखा दें ताकि वक्त-जरूरत काम आए। कुछ राखपत रखायपत के चलते तो कुछ के पास ऐसे आयोजनों में शरीक होने के अलावा कोई काम ही नहीं होता।
अर्जुन मेघवाल ने पांच साल सिर्फ और सिर्फ ठुंगाई में निकाल लिए हैं, जनसम्पर्क में नियुक्त उनके कारकून मुस्तैद रहे सो बिना कुछ किए धरे मीडिया में बने रहे। उन्हें यदि लगता है कि केन्द्र सरकार की बट्टे खाते साख के चलते अपनी नैया पार लगा लेंगे तो खुद उनकी पार्टी की उस रिपोर्ट पर गौर कर लेना चाहिए जिसमें प्रदेश की पचीस लोकसभा सीटों में भाजपा के लिए सबसे कमजोर मानी जानी वाली दो लोकसभा सीटों में एक बीकानेर की भी है? नेता प्रतिपक्ष रामेश्वर डूडी यदि इस सीट को नाक का प्रश्न बना लेते हैं तो कांग्रेस के इस सबसे बुरे वक्त में भी अर्जुन मेघवाल को लोकसभा में पहुँचना मुश्किल हो जायेगा। चुनावी खेल इतना आसान नहीं है, ना समझ आए तो राम की सलाह पर रावण से मंत्र लेने गए लक्ष्मण प्रसंग से मेघवाल को प्रेरणा लेकर कल्ला और खुद उनकी पार्टी में उनके विरोधी देवीसिंह से इसे समझ लेना चाहिए। सुन रहे हैं अर्जुन मेघवाल की बान भराई का काम गोपाल जोशी और सिद्धीकुमारी भी सलीके से करेंगे और बिहारीलाल बिश्नोई और सुमित गोदारा भी मौके की फिराक में हैं।
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फरवरी 2014
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