Wednesday, February 12, 2014

वैश्वीकरण और स्वदेशी के नाम पर यह क्या?

देश के लोकतांत्रिक परिदृश्य में आए दिन कुछ नया घटित होने लगा है। कुछ लोग इन्हेंअजूबेकहने में संकोच नहीं करते, लेकिनअजूबेहैं नहीं। लोकतांत्रिक व्यवस्था में वैसी प्रतिक्रियाओं का भी अपना महत्त्व होता है, जैसी अरविन्द केजरीवाल दे रहे हैं। महत्त्व बताने के मानी यह कतई नहीं है कि केजरीवाल के तौर-तरीकों से शत-प्रतिशत सहमत हैं। विचारशील समाज में शत-प्रतिशत सहमति को अवगुण कहा जा सकता है, ऐसा धर्म और सम्प्रदायों में तो संभव है या कहें सौ टका अनुगमन का दिखावा धर्म और साम्प्रदायिक समूहों की प्राणवायु है।
कल केजरीवाल ने पूरी व्यवस्था को धक्का मारने का प्रयास किया है। उन्होंने दिल्ली के भ्रष्टाचार निरोधक ब्यूरो को आदेश दिया कि केन्द्र सरकार के मंत्रियों और रिलायंस इण्डस्ट्रीज के मालिक मुकेश अंबानी के खिलाफ गैस कीमतों के निर्धारण में कथित अनियमितता की एफआइआर इस बिना पर दर्ज करवाई जाय कि यह सब कुछ दिल्ली क्षेत्र में घटित हुआ था।
मुकेश और अनिल अंबानी में बंटवारा होने के बाद से ही या कहें 1998 में भाजपानीत राजग सरकार आने के साथ ही मुकेश ने केन्द्र के आर्थिक फैसलों को अपने हित में सजवाना शुरू कर दिया, जिसमें भाजपा नेता प्रमोद महाजन की शह भी थी और बड़ी भूमिका भी। मुकेश अंबानी समूह देश की दोनों बड़ी पार्टियों (कांग्रेस और भाजपा) को करोड़ों रुपयों का चन्दा तो ऑन रिकार्ड देता है लेकिन इन पार्टियों और भ्रष्ट नेताओं को अन्य तौर-तरीकों से कितना दिया जाता रहा है, कह नहीं सकते।
केजरीवाल की उक्त एफआइआरी प्रतिक्रिया पर भाजपाइयों और कांग्रेसियों दोनों की भौंहे तन गई हैं। पार्टियों का कोई सामूहिक चेहरा हो सकता तो फिलहाल देखने लायक होता। केजरीवाल ने कोई गैर लोकतांत्रिक या गैर वैधानिक सवाल उठाए हों तो उनके तार्किक जवाब देकर चुप करवा देना चाहिए अन्यथा इस बिना पर कि केजरीवाल का ऐसा करना देश की वर्तमान आर्थिक नीतियोंके लिए उचित नहीं होगा, ऐसा कहना ना ही उचित और ना ही देश के हित में। केजरीवाल ने आंकड़े देकर जानना चाहा है कि देश की गैस निकालने वाले स्वदेशी है तो लेन-देन की मुद्रा विदेशी क्यों? (रिलायंस गैस कम्पनियों को गैस डॉलर मुद्रा में भेज रहा है) लागत और विक्रय मूल्य में भारी अंतर से अंबानी के मुनाफे को कई गुना करने की छूट क्यों? अलावा इसके देश के कानूनी सलाहकारों की राय को नजरंदाज क्यों किया जा रहा है। इन सब बातों का जवाब केजरीवाल ही नहीं पूरे देश को जानने का हक है।
मोहनदास करमचन्द गांधी इसीलिए ग्राम और कुटीर उद्योगों के पक्षकार थे और जरूरत में कोई बड़ा उद्योग लगाना भी पड़े तो उसकी व्यवस्था ट्रस्टीशिप के आधार पर करने के भी पक्षधर रहे। उस औद्योगिक इकाई में होने वाले मुनाफे के साझीदार उसमें काम करने वाले सभी होंगे उस मुनाफे के एक हिस्से पर समाज का भी हक होगा। इस व्यवस्था के एक अन्य आदर्श विकल्प के रूप में 1971 में इन्दिरा गांधी ने राष्ट्रीयकरण की आड़ में सार्वजनिक क्षेत्र को बढ़ावा दिया था लेकिन दुर्भाग्य से उसका भट्टा बिठा दिया गया। इसमें बड़ी दोषी ट्रेड यूनियनें भी थीं जिन्होंने लालच में तबदील कर्मचारी हितों की तो बात की लेकिन कर्तव्यों का भान उन्हें कभी नहीं करवाया। इन यूनियनों को भ्रष्ट करने में नेता, उनके दलाल और ब्यूरोक्रेट्स भी बड़े जिम्मेदार थे। इसी तरह भाजपाइयों की स्वदेशी की धारणा है, उनका कुल लबोलवाब यही है कि इस लूट के हकदार बजाय विदेशी समूहों के केवल देश के औद्योगिक घराने ही हों। नई औद्योगिक नीति में देशी-विदेशी सभी घरानों में इस लूट में हिस्सेदारी की जंग छिड़ी हुई है, कांग्रेस, भाजपा और अन्य प्रभावी पार्टियों को दो बिल्लियों की लड़ाई में चतुर बंदर की भूमिका में देख सकते हैं जो न्याय के नाम पर अपने लालच की पूर्ति में लगी हैं।

12 फरवरी, 2014

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