Thursday, October 31, 2019

देश दो भाइयों की दुकान नहीं कि एक धमका और दूसरा बेवकूफ बना कर चला ले

सामाजिक, भौगोगिक, सांस्कृतिक और धार्मिक तौर पर विविधताओं वाला अपना देश एक तभी रह सकेगा जब हम इन सभी विविधताओं का न केवल ध्यान रखेंगे बल्कि उन्हें उचित मान भी देंगे। लेकिन ना केवल सत्ता लोलुपता से सनी राजनीतिक लिप्साएं इसमें बाधक हैं, बल्कि दूसरी विविधता से अपनी विविधता को श्रेष्ठ मानना भी बड़ी बाधा है। उत्तर भारतीय या जिसे हिन्दी पट्टी कहा जाता है, आजादी बाद से यहीं के समर्थ सत्ता में प्रभावी रहे हैं। लेकिन शुरुआती समय में ऐसे लोग सत्ता में प्रभावी रहे, जो उक्त समग्र भारतीय तासीर को ना केवल समझते थे बल्कि उसे उचित मान भी देते थे। हालांकि नयी बनी भाषा हिन्दी को लेकर उनके अनुचित आग्रहों ने दक्षिणी राज्यों में आशंकाएं जरूर पैदा कीं, लेकिन धीरे-धीरे यह सब उन्हें भी समझ आ गया। बावजूद इसके ना केवल दक्षिणी राज्यों, बल्कि उत्तर-पूर्व के सभी राज्यों और उत्तर के जम्मू कश्मीर और कुछ समय के लिए पंजाब में भी असंतोष कम या ज्यादा हमेशा रहा है।
इस बीच अपने श्रेष्ठ होने के वहम और पूरे भारत को अपने हिसाब से चलाने की जिद वाले सत्ता पर काबिज हो लिए, जिनमें समग्र भारतीयता की भावना के नाम पर अपनी भावनाएं और अपनी सोच ही हावी है। उनमें भी अमित शाह और नरेन्द्र मोदी जैसे सत्तासीन ऐसे हैं जिन्हें अपनी जंची और अपनी जिद के अलावा कुछ भी उचित नहीं लगता बल्कि सभी तरह के लोकतांत्रिक मूल्यों को वे ताक पर रखे हुए हैं।
जिस विचारधारा के लोग वर्तमान में केन्द्रीय सत्ता पर काबिज हैं, उसका आधार ही मुख्यत: मुस्लिम और कुछ ईसाइयों के प्रति घृणा है। इनसे भलमनसात की उम्मीदें पालना गलत साबित हुआ। सीमाई क्षेत्र का विवाद चीन के साथ ज्यादा गंभीर हमेशा से रहा है, लेकिन प्रचारित पाकिस्तान के साथ ज्यादा है। देश का एकमात्र मुस्लिम बहुल राज्य जम्मू कश्मीर इन्हें हमेशा रड़कता रहा है। उत्तर-पूर्व के सभी राज्यों, पं. बंगाल का दार्जिलिंग, सिक्किम, उत्तराखण्ड और हिमाचल प्रदेश में भी जम्मू कश्मीर के अनुच्छेद 370 और धारा 35 ए जैसे प्रावधान स्थानीय प्राकृतिक-सांस्कृतिक विशेषताओं को बचाए रखने के लिए लागू है। लेकिन केवल कश्मीर से संबंधित अनुच्छेद 370 को खुर्दबुर्द किया गया और 35ए को हटाया गया। ऐसा करना भारत जैसे देश के संदर्भ में घटिया सोच की मिसाल है।
नतीजतन जिस कश्मीर के लिए ऐसा माना जाने लगा था कि वहां की 60 प्रतिशत जनता अपनी नियति भारत के साथ तय कर चुकी थीइसमें शेख अब्दुला परिवार की महती भूमिका थीउस आबादी के बड़े हिस्से को अमित शाह की इस कारस्तानी ने पूरी तरह बिदका दिया। इनमें से शेष 30 प्रतिशत उस आबादी के साथ गये हैं, जो कश्मीर की आजादी के पक्षधर हैं या उन 10 फीसदी के साथ जो पाकिस्तान परस्त हैं, कह नहीं सकते। शाह की करतूत को तीन माह हो रहे हैं, पूरी कश्मीर घाटी खुली जेल में तबदील है। कुछ उलट या बिकाऊ मानसिकता वालों को छोड़ पूरी दुनिया में भारत की इस करतूत पर थू-थू हो रही है। यदि ऐसा नहीं होता तो केन्द्र सरकार को यूरोपीयन देशों के समान विचार के 28 सांसदों को भाड़े पर कश्मीर दौरा करवाने की नौबत नहीं आती। इन 28 में से 5 इनकी नीयत जान पहले ही बिदक गये। लेकिन वाट्सएप जैसी सोशल साइट्स के माध्यम से यहां सब उलट पुरसा जा रहा है। 70 वर्षों तक किसी अन्य देश को कश्मीर पर बोलने की छूट भारत ने नहीं दी। अमरीकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प ना केवल खुले आम अपनी चौधर लगाता है, बल्कि वैसी बातें भी करता है जिससे हमारे देश की सम्प्रभुता पर आंच आती है।
नरेन्द्र मोदी और अमित शाह भारत जैसे देश को उस दो भाइयों की दुकान की तरह चला रहे हैं जिनमें एक बिना कुछ डिलिवर किये केवल बेवकूफ बनाकर काम चलाता है, तो दूसरा धमका कर। भ्रष्टाचार जैसी बुराई को छोड़ हमारा देश हर तरह से खूबसूरत है, इसे वैसा ही रहने दें। भ्रष्टाचार से छुटकारे की उम्मीद ऐसों से क्या तो करें जो खुद कांग्रेस के मुकाबले कहीं ज्यादा गुंडई व बेधड़की से भ्रष्टाचार करने में विश्वास रखते हैं।
—दीपचन्द सांखला
31 अक्टूबर, 2019

Thursday, October 17, 2019

बाजार और सड़कों पर हक केवल समर्थ दूकानदारों का ही नहीं

ये विकास के शहरी मॉडल के दुष्परिणाम हैं या कुछ और कि शासन-प्रशासन तो छोड़ियेआम आदमी भी निष्ठुर हो लिया है। हम स्वार्थ के संकुचित होते वलय में फंसते जा रहे हैं। आर्थिक उदारीकरण और वैश्विक व्यापार ने जहां रोजगार के अवसर लगातार घटाये हैं, वहीं समर्थ होता प्रत्येक नागरिक निज और अपनों में ही सिमटता जा रहा है।
बीकानेर के सन्दर्भ से बात करे तों स्ट्रीट वेन्डर्स एक्ट 2014 के बावजूद जूनागढ़ के सामने वाले चाट बाजार को पहले अचानक बन्द किया गया। संगठित विरोध हुआ तो इसे अन्यत्र स्थापित कर दिया। इससे पूर्व भी महात्मा गांधी रोड (जिसे केइएम रोड के नाम से भी जाना जाता है) पर महीने के आखिरी रविवार को लगने वाले फुटपाथ बाजार को अव्यवस्था के नाम पर बन्द करवा दिया गया। माह में मात्र एक दिन लगने वाला यह बाजार इतना रोशन हो लिया था कि वह हजारों के रोजगार का ना केवल माध्यम बन गया था बल्कि सुनते यह भी हैं कि कुछ दुकानदारों और पुलिस वालों के लिए भी अतिरिक्त कमाई का माध्यम था। हालांकि सभी दुकानदार ऐसी अनैतिक वसूली नहीं भी करते होंगे। अनैतिक इसलिए कहा कि फुटपाथ और सड़क पर लगने वाले हाट बाजारों से कुछ वसूलने का हक बनता है तो केवल नगर निगम कावह भी तब जब उसकी जाग खुले।
दरअसल व्यापारियों को यह परेशानी तब होने लगी जब उनके स्वार्थ लालच में बदलते गये। श्रम कानून के अनुसार दुकानों के लिए साप्ताहिक अवकाश का प्रावधान है। लेकिन मॉल और 24×7 की नयी आयी व्यापार संस्कृति ने उसमें से इस बिना पर छूट का रास्ता निकाल लिया कि वे बिना व्यवसाय को बन्द किये कार्मिकों को बारी बारी से अलग-अलग दिन अवकाश देंगे और 24 घंटे की पारी व्यवस्था में किसी कर्मचारी से 8 घण्टे से ज्यादा काम नहीं लेंगे। कॉरपोरेट कल्चर ने प्रतिदिन के काम का लक्ष्य तय कर राज की मॉनीटरिंग को ही धता बता दिया। इस सब के चलते हुआ यह कि श्रम विभाग की जरूरत ही खत्म हो गई, श्रम निरीक्षकों की अतिरिक्त कमाई भी।
महात्मा गांधी रोड के मासिक बाजार के बन्द होने की बात करना और बताना जरूरी लगा इसलिए उक्त जानकारी दी है। महात्मा गांधी रोड पर कुछेक दुकानों को छोड़ दशकों से रविवार को ही बाजार बन्द रहता आया था। लालच की लपेट में छूट का दायरा बढ़ता गया। हुआ यह कि तीसों दिन बाजार खुलने लगा। इससे उक्ताए व्यापारियों ने तय किया कि माह में कम से कम एक आखिरी रविवार को पूर्ण बन्द रखेंगे। बेरोजगारों ने इसी एक दिन में अपनी गुंजाइश देखी और आखिरी रविवार को पूरे रोड पर बाजार सजने लगा। ना केवल शहरी बल्कि आसपास के गांवों के लोग भी खरीददारी के लिए एमजी रोड पर इस दिन जुटने लगे थे। कुछ लोग परसुख में दुखी होते हैं, लालच में दुकानें खुलने लगी तो फुटपाथी वेण्डर्स और दुकानदारों में बोलचाल होने लगी। थड़ी बाजार वालों ने भी आखिरी रविवार को फुटपाथ पर अपना हक मान लिया! पिछले राज तक तो वे हटे नहीं। सूबे में ज्यों ही नई सरकार आयी, प्रशासन ने सख्ती से इन्हें बेदखल कर दिया। सुनते यही हैं कि डॉ. बीडी कल्ला पर दुकानदारों ने दबाव बनाया और उन्होंने प्रशासन पर। इस तरह हजारों को रोजगार से एक झटके में उजाड़ दिया। जूनागढ़ के सामने के चाट बाजार वालों की तरह एमजी रोड के वेण्डर्स भी एका दिखाते तो ना दुकानदारों की चलती और ना ही कल्लाजी की। कल्लाजी इस बात से शायद वाकिफ नहीं हैं कि महात्मा गांधी रोड के आधे से ज्यादा दुकानदार उनके वोटर नहीं हैं। हों और ना हों तो भी उनके क्या फर्क पड़ताउन्हें चुनावी चन्दा तो व्यापारी ही देते हैं।
अव्यवस्था के तर्क में दम इसलिए नहीं है कि फिर पुलिस प्रशासन की जिम्मेदारियां क्या है? यही ना कि थड़ी बाजार की सीमाएं तय कर उन्हें उसी में रहने को वे पाबन्द करते। देश की राजधानी दिल्ली के व्यस्ततम चांदनी चौक में तथा राजस्थान की राजधानी जयपुर के जौहरी बाजार में भी वर्षों से महीने के तीसों दिन इसी तरह के थड़ी बाजार लग ही रहे हैं।
खैर! आज यह बात कहने की जरूरत इसलिए पड़ी कि कल ही सोशल साइट्स पर किसी ने लिखा है कि कोटगेट, स्टेशन रोड, महात्मा गांधी रोड पर दीपावली के तीन दिनों में सड़कों पर लगने वाले बाजार को इस बार नहीं लगने दिया जायेगा। क्यों भाई? बाजार के फुटपाथ और सड़कों पर हक सभी का और तब और भी ज्यादा जब दीपावली के दिनों में बाजार में दुपहिया वाहनों के आवागमन को भी रोक दिया जाता है। कितने लोग दो पैसे की मजूरी के लिए ऐसे दिनों का इंतजार करते हैं, यहां तक कि दीवाली पर धंधे की गरज से राजस्थान के विभिन्न हिसों के अलावा यूपी, पंजाब, मध्यप्रदेश तक के फेरीवाले बीकानेर पहुंचते हैं और वे दुकान लेकर वहीं तो बैठना चाहेंगे जहां ग्राहक की आमदरफ्त है।
उनकी मजदूरी के यदि सभी रास्ते समर्थों के दबाव में बन्द कर देंगे तो उन्हें अपना और अपने परिवार का पेट पालने के लिए कुछ तो करना होगा। सम्मानजनक नौकरी के अवसर लगातार कम हो रहे हैं। ऐसे में युवा चोरी-चकारी, छीना-झपटी, मारकाट और रंगदारी की ओर प्रवृत्त नहीं होंगे तो जीएंगे कैसे? यह सब कहने का मकसद ऐसी बदमगजियों का समर्थन नहींं। वरन् केवल उदारता से विचारने का निवेदन भर है।
—दीपचन्द सांखला
17 अक्टूबर, 2019

Thursday, October 10, 2019

गांधी की उम्मीदें, अंबेडकर की जद्दोजहद और सच होतीं जिन्नाह की आशंकाएं

कुछ मसलों को समझने की फिराक में जो होगा उसे उनके  अलावा भी कई और मसले समझ आने लगेंगे। डॉ. अम्बेडकर को समझना चाहें तो दलितों के  लिए पृथक् निर्वाचन की मांग की एवज में गांधी के  माध्यम से कांग्रेस ने विधायिका में आरक्षण का प्रस्ताव किया। उसी के  आधार पर आजाद भारत में दलितों को आरक्षण मिला। हालांकि 1932 का कांग्रेस का प्रस्ताव पेचीदा तो था, लेकिन वर्तमान आरक्षण व्यवस्था से ज्यादा कारगर था। उस व्यवस्था में पहले दलित मतदाता प्रति सीट अपने चार प्रतिनिधि चुनते। बाद इसके  आम चुनाव में दलितों सहित सभी मतदाता उन चारों में से किसी एक को चुनकर विधायिका में भिजवाते। डॉ. अम्बेडकर के दबाव में दलितों के पक्ष में इस तरह भी हुआ कि पृथक् निर्वाचन प्रारूप से प्रांतीय एसेंब्ली में दलित समुदाय के लिए जहां 71 सीटों का प्रावधान था, कांग्रेस की सुझाई व्यवस्था में वह बढ़कर दुगुने से भी ज्यादा, 148 हो गया। 
आजाद भारत में आरक्षण से सत्ता और शासन में भागीदार दलितों ने चाहे नव-सवर्ण दलितों ने अपनी अलग श्रेणी बना ली हो, बावजूद इस सबके  आजादी बाद से दलित समुदायों में सम्मान से जीवन-यापन के  अवसर बढ़े हैं। सफाई कार्य में लगे दलित समुदाय को छोड़ दें तो कम से कम शहरों में अस्पृश्यता काफी कम हुई है। हालांकि साथ खान-पान में सवर्ण व अन्य पिछड़े आदि अभी भी कतराते हैं। ग्रामीण-इलाकों की बात करें तो स्थितियां कहीं-कहीं आजादी पूर्व-सी मिलेंगी लेकिन यह मानने में संकोच नहीं कि सवर्णों व अन्य पिछड़ों के  साथ बराबरी का दर्जा दलितों को अभी भी हासिल नहीं है। जो दलित शासन-प्रशासन में बड़े ओहदों पर हैं उन्हें तो कुछ हद तक बराबरी का दर्जा दिया जाने लगा है। कल्पना करें कि आरक्षण यदि नहीं होता तो मतदाता होने के बावजूद दलितों की क्या और कैसी बुरी स्थिति होती।
दलितों की इन स्थितियों से मुसलमानों की स्थिति अच्छे से समझ सकते हैं। अंग्रेजी शासन ने 19वीं शताब्दी की शुरुआत में ही मुसलमानों के लिए प्रांतीय और सेन्ट्रल लेजिस्लेटरी में पृथक् निर्वाचन का प्रावधान चाहे कर दिया हो, लेकिन आजादी बाद मुसलमानों के  लिए ना केवल पृथक् निर्वाचन को समाप्त कर दिया बल्कि धार्मिक अल्पसंख्यक होने के  आधार पर आरक्षण भी नहीं दिया गया। नतीजतन लोकसभा और राज्यों की विधानसभा में मुस्लिम समुदाय का प्रतिनिधित्व लगातार कम होता जा रहा है। राज्य की विधानसभाओं और लोकसभा में आबादी के  अनुपात में मुसलमानों का प्रतिनिधित्व चाहे कभी ना रहा हो, लेकिन एक सम्मानजनक उपस्थिति उनकी हमेशा रही थी। गत लोकसभा चुनाव में सत्ताधारी भाजपा ने तो हद ही कर दी। जम्मू-कश्मीर को छोड़कर देश में कहीं से भी अपनी पार्टी के  उम्मीदवार के तौर पर भाजपा ने किसी मुस्लिम को नहीं उतारा। मुस्लिम बहुल कश्मीर घाटी को अपवाद के तौर पर लेना उनकी मजबूरी मान सकते हैं। लोकतंत्र में सबसे बेहतर मानी जाने वाली इस संसदीय शासन प्रणाली में भी इस तरह की कुछ सीमाएं सामने आयी ही हैं। ऐसी स्थितियों को लोकतंत्र के  भविष्य के लिए अनुकूल नहीं मान सकते।
इन्हीं सब पर विचार करते हुए ना के वल गांधी की भावनाओं-उम्मीदों का स्मरण हो आया बल्कि मोहम्मद अली जिन्नाह की आशंकाओं ने भी आ दबोचा। गांधी की इच्छा से बनने वाले भारत में सभी तरह के  लोगों के लिए एक सम्मानजनक बराबरी होतीगांव आधारित अर्थव्यवस्था में आर्थिक सुरक्षा के  साथ यथायोग्य रोजगार भी सबको हासिल होते। जाति-वर्ग और धर्म के आधार पर बंटता आज का देश गांधी की कल्पना का भारत नहीं है।
मुसलमानों के लिए पृथक् राष्ट्र पर अड़े जिन्नाह को बड़ी आशंका थी कि मुस्लिम यहां साथ रहे तो शासन में उन्हें सम्मानजनक हक हासिल नहीं होगा। वहीं गांधी को ना केवल हिन्दुओं की उदारता और न्यायप्रियता पर उम्मीद थी वरन् उन्हें पूरा भरोसा भी था कि आजाद भारत की संवैधानिक व्यवस्था में ना के वल मुसलमानों को बल्कि दलितों को भी शासन में वाजिब भागीदारी मिलेगी। आरक्षण के  चलते दलितों को तो राज में जैसा-तैसा भी प्रतिनिधित्व मिला हुआ है लेकिन वे मुसलमान, जिन्होंने बजाय पाकिस्तान के भारत में रहना चुना, उनके  साथ लगातार अन्याय हो रहा है। यहां रहे मुसलमानों के  इस निर्णय में गांधी-नेहरू जैसे व्यक्तित्वों में कायम उनका भरोसा भी एक वजह थी। यहां हमें यह नहीं भूलना नहीं चाहिए कि आजादी पूर्व भारत के पक्षकार बंटवारे को साम्प्रदायिक स्वीकृति देते तो ना के वल भारत का वर्तमान भौगोलिक नक्शा वर्तमान वाला नहीं रहता वरन् खून-खराबा कई गुना अधिक होता वह अलग। वैसी स्थिति में भारत के  कितने बंटवारे होते इसकी कल्पना भी भयावह है।
वर्तमान परिस्थितियों में इस सब पर विचार का मकसद इतना ही है कि धार्मिक-सामाजिक और भौगोलिक विविधताओं से भरे हमारे इस भारत देश को बनाये रखना है तो सभी समुदायों को सभी क्षेत्रों में बराबरी के  हक का आपसी सम्मान करना होगा। हमारी ऐसी मंशा यदि नहीं है तो देश के भविष्य को मुश्किल से मुश्किलतर होने से कोई रोक नहीं सकेगा।
—दीपचन्द सांखला
10 अक्टूबर, 2019

Thursday, September 26, 2019

बीकानेर के कोटगेट क्षेत्र की यातायात समस्या : कल्लाजी! गुमराह तो मत कीजिए

'केन्द्र सरकार का पेच फंसा हुआ है। केन्द्र से मंजूरी मिल जाए तो दो साल में बायपास बनवा दूं। रेल बायपास समय की मांग है। डबल लाइन के लिए उसकी जरूरत है। इसी पर शहर का विकास टिका हुआ है। हमारी सरकार ने पूर्व में एक करोड़ रुपये जमा भी करवा दिये थे, लेकिन बाद में बीजेपी ने सत्ता में आते ही ऐसी शर्तें रख दी, जिस पर रेलवे राजी नहीं हुआ! '
—डॉ. बुलाकीदास कल्ला
बीकानेर पश्चिम विधायक एवं मंत्री, राजस्थान सरकार
(21 सितम्बर, 2019 दैनिक भास्कर में प्रकाशित बयान)
रियासत काल में बीकानेर के लम्बे समय तक शासक रहे गंगासिंह के हवाले से बहुत-सी किंवदंतियां प्रचलित हैं। इसमें एक यह भी है कि वे चाहते तो रेलवे लाइन को वर्तमान छावनी एरिया से होते सीधे लालगढ़ तक ले जा सकते थे। रेलवे लाइन को घुमाते हुए कोटगेट के आगे से वे इसलिए लाये ताकि शहर के लोग जब चाहें तब कोटगेट आकर छुक-छुक गाड़ी को देख सकें। इसे तार्किक पुट देने वाले यह कहने से भी नहीं चूकते कि रेलवे लाइन को जूनागढ़ से दूर कोटगेट होते हुए इसलिए ले जाया गया ताकि इंजन की सीटी से जूनागढ़ के बाशिन्दों को कोई खलल ना पड़े। यदि सीधे छावनी क्षेत्र होते हुए ले आते तो तब प्रस्तावित लालगढ़ पैलेस के एकदम पास से रेल गाडिय़ां गुजरती, ऐसा भी गंगासिंह चाहते नहीं थे।
खैर! जितने मुंह उतनी बातें, फिलहाल बीच शहर से दिन में कई-कई बार गुजरने वाली रेलगाडिय़ों से शहर का यातायात दिनभर बाधित होता है। इस परेशानी का अहसास शहरियों को पिछली सदी के नवें दशक में ही होना शुरू हो गया था। तभी आखिरी दशक में एडवोकेट रामकृष्ण दास गुप्ता के नेतृत्व में रेलगाडिय़ों के शहर के बीच से गुजारने के विरोध में लम्बा आन्दोलन चला। सरकार के कान खड़े हुएकेवल इसलिए कि गेज परिवर्तन का काम निर्बाध सम्पन्न हो पाये, क्योंकि आंदोलनकारियों ने धमकी दे रखी थी कि बीकानेर और लालगढ़ जंक्शनों के बीच की मीटरगेज लाइन को ब्रॉडगेज में परिवर्तित करने का कार्य वे नहीं होने देंगे। राजस्थान के तत्कालीन मुख्यमंत्री भैंरोसिंह शेखावत के साथ केन्द्रीय रेलमंत्री सीके जाफर शरीफ बीकानेर आए और बड़ी चतुराई से आंदोलनकारियों के हाथ में बजाने को बायपास का झुनझुना पकड़वाया और गेज परिवर्तन कार्य निर्बाध करवा लिया। 
रेलवे लाइनों के इर्द-गिर्द की 75 फीट तक की जमीनों की मिल्कीयत रेलवे की है। ऐसा बीकानेर ही नहीं पूरे देश में है, तभी रेलवे निर्बाध सेवाएं दे पाता है, अन्यथा आज लगभग सभी शहरों के बीच से गुजरती रेल लाइनों पर रेलवे बजाय गाडिय़ां चलाने के बायपास बनवाने में ही लगा रहता। अपनी मिल्कीयत की जमीन पर रेलगाडिय़ां चलाने वाला रेलवे मंत्रालय शहरी यातायात की समस्या के समाधान का जिम्मा अपना नहीं मानता। यह राज्य सरकार का मसला है और इसके समाधान के लिए अण्डरब्रिज, ओवरब्रिज और एलिवेटेड रोड यदि राज्य सरकारें बनवाती हैं तो रेलवे लाइन के ऊपर या नीचे से सड़कें गुजारने को रेलवे अपनी शर्तों पर स्वीकृति दे देता है। अपवाद स्वरूप रेलवे अण्डरब्रिज निर्माण कार्य खुद अपने खर्चे पर भी करता है, लेकिन वहां जहां रेलफाटकों पर द्वारपालों के स्थाई खर्चे से उसे बचना हो।
यह तो हुई आधारभूत बात, हमारे बीकानेर के संदर्भ में समझें तो इसका इतना ही महत्त्व है कि शहरी यातायात समस्या के समाधान का जिम्मा रेलवे का नहीं है। बाकी तो जिन्हें अपने और अपनों की ही राजनीति करनी है, वे करते रहें।
डॉ. बुलाकीदास कल्ला ने विरोधी सरकारों पर भूंड का ठीकरा फोड़ते यह नहीं बताया कि वर्ष 2004 से 2014 तक केन्द्र में और वर्ष 2008 से 2013 तक राजस्थान में इनकी कांग्रेस की सरकारें थीं। लगभग उन दस वर्षों के दौरान इनकी सरकारों ने या खुद इन्होंने बीकानेर शहर की इस सबसे बड़ी समस्या के समाधान के लिए किया क्या?
उपरोक्त उल्लेखित बयान में डॉ. कल्ला भाजपा की राज्य सरकार की जिन शर्तों का बहाना बना रहे हैं, उस एमओयू का प्रारूप एक करोड़ रुपये रेलवे को देते समय कांग्रेस की सरकार ने तैयार करके रेलवे को क्यों नहीं भिजवाया? दिसम्बर, 1998 में डॉ. कल्ला सूबे की सरकार में जब फिर से कैबिनेट मंत्री बने तब इस समस्या पर शहर का उद्वेलन परवान पर था। डॉ. कल्ला पांच वर्ष ना केवल शहर की नुमाइंदगी करते रहे बल्कि तब सूबे के शासन में हिस्सेदार भी थे। डॉ. कल्ला चाहते तो एमओयू का प्रारूप अपने राज में भिजवा देते।
2003 के अन्त में भाजपा की वसुंधरा सरकार आ गई। भाजपा की राज्य सरकार ने एक वर्ष में एमओयू के इस प्रारूप को रेलवे को भिजवा दिया। नवम्बर 2004 को भिजवाये एमओयू के प्रारूप को अपनी आपत्तियों के साथ जनवरी 2005 में ना केवल रेलवे बोर्ड को भिजवा दिया बल्कि नार्थ-वेस्टर्न रेलवे के जयपुर स्थित जोनल ऑफिस ने अपनी असहमतियों के साथ इसे 'पिंक बुकÓ से हटाने की अनुशंसा भी कर दी।
उस समय भी डॉ. कल्ला विधानसभा में ना केवल शहर की नुमाइंदगी कर रहे थे बल्कि उनकी पार्टी कांग्रेस के नेतृत्व में केन्द्र में गठबंधन सरकार थी जो वर्ष 2014 तक चली। इस बीच सन् 2008 में सूबे में भी कांग्रेस सत्ता में लौट आयी। डॉ. कल्ला बतायेंगे कि उन्होंने इस दौरान इस समस्या के समाधान के लिए क्या किया? 1980 से राजनीति कर रहे और कई बार मंत्री रह चुके डॉ. कल्ला क्या यह कहना चाह रहे हैं कि कुछ करवाने के लिए मंत्री होना जरूरी होता है।
बायपास समाधान को 'पिंक बुक' से हटाने के बाद वसुंधरा सरकार ने इस समस्या के वैकल्पिक समाधान पर गंभीरता से सक्रियता दिखाई। ऐसा इसलिए कह सकते हैं कि रेलवे द्वारा बायपास से इनकार करने के तत्काल बाद राज्य सरकार ने समाधान सुझाने का यह काम आरयूआइडीपी को सौंपा। आरयूआईडीपी ने इस काम को अरबन प्लानिंग के विशेषज्ञ और केन्द्रीय सड़क एवं परिवहन मंत्रालय में सलाहकार रहे सरदार अजितसिंह को सौंपा। जिन्होंने अशोक खन्ना और हेमन्त नारंग जैसे स्थानीय वरिष्ठ अभियन्ताओं के साथ शहर में रहकर सभी संभव विकल्पों पर विचार किया और वर्ष 2005-06 में सर्वाधिक व्यावहारिक मानकर एलिवेटेड रोड की योजना राज्य सरकार को सुझायी। इस योजना पर राजस्थान पत्रिका ने तब जनता की राय भी जानी। 98 प्रतिशत लोगों ने रेलवे फाटकों के चलते कोटगेट क्षेत्र की इस यातायात समस्या के एलिवेटेड रोड से समाधान के पक्ष में राय दी। उसके बाद निहित स्वार्थी तत्त्वों के विरोध के चलते यह योजना खटाई में ऐसी पड़ी कि वह आज भी बदतर स्थितियों में है। इसके बाद की पूरी कथा इसी शृंखला में एकाधिक बार बांच चुका हूं। जरूरत हुई तो आज के दोहराव की तरह फिर बांचूंगा। लेकिन डॉ. कल्ला समझना चाहें या नहींकोटगेट क्षेत्र की यातायात समस्या का व्यावहारिक समाधान 2005-06 की उस एलिवेटेड योजना में ही है। डॉ. कल्ला को बायपास का अंगूठा चुसवाना अब छोड़ देना चाहिए। यह समझाने की हिमाकत उन्हें करना नहीं चाहता कि अधिक चूसने-चुसवाने पर अंगूठे से खून भी रिसने लगता है।
—दीपचन्द सांखला
26 सितम्बर, 2019

Thursday, September 19, 2019

सफेद हाथी सूरसागर और हमारे जनप्रतिनिधि

बीकानेर शहर से संबंधित दो सूचनाएं हैं। बीकानेर पूर्व की विधायक सिद्धिकुमारी ने सूरसागर तालाब की दुर्दशा पर पैदल मार्च की रस्म अदायगी की और बीकानेर पश्चिम से विधायक और सूबे की सरकार में नम्बर तीन के मंत्री डॉ. कल्ला ने सूरसागर समस्या पर अपनी सक्रियता दिखाई। डॉ. कल्ला को राज में आए 9 माह हो गये हैं लेकिन तीस वर्ष पूर्व संज्ञान में आयी बीकानेर के कोटगेट क्षेत्र की यातायात समस्या के समाधान पर उनकी कार्य योजना कहां तक पहुंची, उसकी जानकारी अभी तक नहीं दी। बायपास से समाधान का भूत उनका जब तक नहीं उतरेगा, शहरवासियों को तब तक कोटगेट क्षेत्र की उक्त समस्या को भोगते रहना है। सूरसागर में रुचि उनकी उस छवि को जरूर भंग करती है जो इस आम धारणा से बनी कि डॉ. कल्ला अपने विधानसभा क्षेत्र के बाहर की किसी समस्या के समाधान में कोई रुचि नहीं रखते।
इस शहर की बड़ी प्रतिकूलता यह है कि बीते 60 वर्षों से शहर की राजनीति करने वाले और तीन बार विधायक रहे डॉ. गोपाल जोशी जहां निहित स्वार्थों से ऊपर नहीं उठ पाए तो चालीस वर्षों से यहां की राजनीति करने और शासन में कई बार भागीदारी करने वाले डॉ. बीडी कल्ला ने कभी यह अहसास नहीं करवाया कि उन्हें अपने शहर से खास लगाव है? आमजन के बजाय उन्हें चुनावी चन्दा देने वालों का खयाल ज्यादा रहा है। नाकारा सिद्धिकुमारी के लिए बहुत कुछ कहा जा चुका है। वह जनप्रतिनिधि हैं, इसका दोष उनसे ज्यादा उनके वोटरों का है, जो उन्हें जिता कर भेजते हैं। डॉ. कल्ला और सिद्धिकुमारी का मिलाजुला राजनीतिक व्यक्तित्व उन देवीसिंह भाटी का भी रहा है, जो कल्ला की तरह बीते चालीस वर्षों से शहर और कोलायत की राजनीति में सक्रिय रहे हैं। देवीसिंह भाटी चाहे अब नीमहकीमी में लगे हों, लेकिन उनकी राजनीतिक महत्त्वाकांक्षाएं अब भी हिलोरें मारती है, आमजन और अपने विधानसभा क्षेत्र के लिए सत्ता में रहते हुए भी उन्होंने कुछ किया हो, ध्यान में नहीं आता।
सूरसागर पर पूर्व में भी कई टिप्पणियां की हैं। सरकारें और प्रशासन वहां जो कर रहा है, वह उसके समाधान नहीं हैं। 2008 से आज तक जनता के धन में से वहां कई सौ करोड़ खर्च किये जा चुके हैं। लीक से हटकर कुछ करना ठस शासन-प्रशासन के लिए हमेशा टेढ़ी खीर रहा है। 2014 में पहली बार जब मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे ने इस मुद्दे को समझने का समय दिया तो उन्हें समझ आ गया, यहां से लौटते हुए उन्होंने मरु-उद्यान की घोषणा भी की, लेकिन सूरसागर का उल्लेख उनसे रह गया और सूरसागर में मरु-उद्यान विकसित करने की वह कल्पना प्रशासन की अंधेरी गलियों में खो गई। सूरसागर की दुर्दशा जारी है और जनधन की भी। इन्हीं सब के मद्देनजर वर्तमान के जनप्रतिनिधियों और क्षेत्र से सरकार में नुमाइंदों की जानकारी के लिए सूरसागर और जूनागढ़ क्षेत्र की समस्या पर सुझाये वैकल्पिक समाधान संबंधी दो पुराने आलेखों के सम्पादित अंश साझा कर रहा हूं, हो सकता है इन पर विचार करके अमलीजामा पहनाने की कोशिश पुन: शुरू हो जाए।
सूरसागर और जूनागढ़ क्षेत्र में जलभराव : व्यावहारिक समाधान
सूरसागर को पुराने रूप में लाने की जो कोशिशें पिछले अनेक वर्षों से चल रही हैं, उसे अमलीजामा पहनाना इसलिए संभव नहीं है कि तब इसके उस रूप को प्रकृति सहेजती थीआगोर के माध्यम से आने वाले वर्षा जल से इसे भरा जाता था, आगोर अब रहे नहीं, ऐसे में कभी पांच-पांच ट्यूबवेलों और कभी नहरी पानी से इसे भरने की कवायद की जा रही है। इन कृत्रिम और अव्यावहारिक तरीकों से 15 फीट गहरी इस झील के जलस्तर को 2008 में उसके जीर्णोद्धार के बाद से एक बार भी चार फीट तक नहीं लाया जा सका।  ऐसे में इसे पूरा भरना और यहां पडऩे वाली गर्मी में इसे भरे रखना कितना महंगा सौदा है? यह महंगा केवल धन से ही नहीं बल्कि जिस डार्कजोन को हम जिले में न्योत रहे हैं, उसमें यह विलासिता से कम नहीं है। इस खेचळ को रोककर इसे मरु-उद्यान के रूप में विकसित करवाया जा सकता है, जिसमें मरुक्षेत्र के पेड़ व वनस्पतियां और कुछ सुकून देने वाले प्राकृतिक रूप के फव्वारें हों। इस में थार मरुस्थल के उन जीव-जंतुओं को भी रखा जा सकता है, जिनकी छूट वन विभाग देता हो। इस तरह इसे घूमने-फिरने के एक आदर्श स्थान के रूप में विकसित किया जा सकता है।  (3 जून, 2014)
जलभराव रोकने के उपाय
जेल रोड, सिक्कों की मस्जिद से आने वाले बरसाती पानी के लिए सादुल स्कूल के सामने मल्होत्रा बुक डिपो के पीछे बने चेम्बर से कोटगेट सब्जीमंडी, लाभूजी कटले के नीचे बने रियासती नाले को सट्टा बाजार, मटका गली से रेलवे क्षेत्र के खुले नाले से जोड़ा हुआ था। शहर से आने वाले गंदे और बरसाती पानी की अधिकांश निकासी इसी नाले से होती रही थी। आजादी बाद ढंग से सफाई नहीं रहने के चलते बीते तीस-चालीस वर्षों से यह नाला लाभूजी कटले के नीचे डट गया, सुना यह भी कि लाभूजी कटले के कुछ दुकानदार अपनी दुकानों के नीचे वाले नाले के हिस्से के इर्द-गिर्द दीवारें चिनवा कर उसे अण्डरग्राउण्ड गोदाम के तौर पर काम लेने लगे हैं। 
राज चाहे तो क्या यह नहीं हो सकता
आरयूआईडीपी ने इस भूमिगत नाले को साफ करवाने की 2003 में एक कोशिश की थी, तब पता चला कि नाले के बीच तो दीवारे बन गई हैं। राज की मंशा साथ नहीं थी सो मल्होत्रा बुक डिपो के पीछे के चेम्बर से डाइवर्जन देकर कोटगेट होते हुए सट्टा बाजार लाकर उसे पुराने नाले में मिला दिया। सट्टा बाजार के जाली लगे चेम्बर इसके गवाह हैं। लेकिन 'चेपेÓ के ऐसे उपाय काम कितनाÓक करते, लाभूजी के कटले के नीचे का नाला पर्याप्त लम्बाई-चौड़ाई का है। कटला बनने से पहले के इस पक्के नाले का उल्लेख ना केवल रियासती पट्टे में होगा बल्कि कटले की इजाजत तामीर में भी इस नाले का उल्लेख सशर्त रहा होगा।
यह उपाय तो हुआ उस बरसाती पानी का जो बड़ा बाजार क्षेत्र से जेल रोड और सिक्कों के मुहल्ले से होता हुआ कोटगेट होकर महात्मा गांधी मार्ग से गुजरता है, लेकिन मोहता चौक, तेलीवाड़ा और दाउजी रोड के इर्द-गिर्द का जो बरसाती पानी अभी कोटगेट से महात्मा गांधी रोड होकर पुरानी जेल रोड से आने वाले पानी के साथ मिलकर गिन्नानी, सूरसागर के क्षेत्रों में त्राहिमाम मचाता है, उसका एक हद उपाय यह भी हो सकता है।
कोटगेट रेलवे फाटक पर कोटगेट की तरफ और सांखला फाटक पर नागरी भण्डार की तरफ सड़क पर 2 फीट चौड़ा और चार फीट गहरा नाला बनाकर काऊकेचर जैसी गर्डर चैनल की मजबूत जाली से ढक दिया जाए और शेष रहे खुले नाले को रेलवे की दीवार के साथ होते-होते रेलवे स्टेशन के पहले के खुले नाले में मिला दिया जाए तो इन दोनों तरफ से सूरसागर की ओर जाने वाले पानी को काफी हद तक यहीं से डाइवर्ट किया जा सकता है।
रेलवे, नगर विकास न्यास और नगर निगम में सामंजस्य बिठाकर कार्य को करवाया जाए तो यह काम इतना बड़ा नहीं है कि हो ना सके।
अगर यह हो जाता है तो शहर के भीतरी हिस्से का वह बरसाती पानीजो गिन्नानी-सूरसागर क्षेत्र में पहुंच कर त्राहिमाम मचाता है और फिर आनन-फानन में प्रशासन उस पानी को पुराने नाले के माध्यम से माजीसा का बास, राजविलास कॉलोनी, पीबीएम होते हुए रानी बाजारओवरब्रिज पहुंचाता है, उसे उक्त उपाय से कोटगेट से ही डाइवर्ट कर रेलवे क्षेत्र के नाले से सीधे रानी बाजार रेलवे ओवरब्रिज होते हुए उसके गंतव्य वल्लभ गार्डन तक पहुंचाया जा सकता है। (19 जुलाई, 2018)
—दीपचन्द सांखला
19 सितम्बर, 2019

Thursday, September 5, 2019

घृणा में तबदील होतीं भ्रांतियां

सात-आठ वर्ष पूर्व की बात है, विज्ञान अनुशासन से आए महन्तजी ने बातचीत में बताया कि हिन्दू संस्कृति पर खतरा मंडरा रहा है। जब पूछा कि कैसे? तो उन्होंने उत्तर-पूर्व खासकर असम का तत्काल जिक्र करते हुए बताया कि वहां अब तक तीन करोड़ बांग्लादेशी मुस्लिम घुसपैठ कर चुके हैं जो ना केवल वहां हमारी संस्कृति को नष्ट-भ्रष्ट कर रहे हैं बल्कि आर्थिक ताने-बाने को भी छिन्न-भिन्न कर रहे हैं। जब पूछा कि तीन करोड़ के इस आंकड़े की प्रामाणिकता क्या है, उन्होंने बताया कि यह सरकार इस तथ्य को छिपाये रखना चाहती है। आश्चर्य की बात तो यह है कि जिस असम की कुल आबादी आज भी तीन करोड़ के लगभग है, वहां घुसपैठिये तीन करोड़ ना केवल बताये जाते रहे हैं बल्कि इसे ऐसे स्थापित कर दिया गया कि महन्तजी जैसे समाज को सही मार्ग दिखाने वाले तक भ्रमित हो गये। मुझे उनकी इस तरह की बातचीत से आश्चर्य हुआ और चिंता भी। क्योंकि ये महन्तजी जब स्थानीय मठ पर अधिष्ठ होकर यहीं प्रवास करने लगे, तब के उनके शुरुआती प्रवचन उदार, प्रामाणिक व आध्यात्मिक लगा करते थे। उनमें 'श्रद्धा' की एक वजह भी यही थी।
एक दूसरा उदाहरण और। एक जैन मुनि का प्रसंग भी आज मैं साझा करना चाहता हूं। मेरे पत्नीपक्ष की जैन सम्प्रदाय में आस्था है। इसी वजह से शादी बाद एक सम्प्रदायविशेष के जैन मुनियों के पास अक्सर जाना होता। खासकर एक मुनिविशेष के पास, जिनमें पत्नीपक्ष की विशेष श्रद्धा थी। उनसे लम्बा विमर्श होताशायद इसलिए भी कि वे लगभग हमउम्र हैं। 2002 में गुजरात के मुस्लिम-संहार के समय या तुरंत बाद का उनका चतुर्मास अहमदाबाद ही था, बात तभी की है। उनके सत्संग के लिए हम सपरिवार पहुंचे, गुजरात दंगों पर उनसे बात होना इसलिए भी लाजमी था कि हमारे बीच धार्मिक-आध्यात्मिक विमर्श के अलावा सामाजिक-राजनीतिक बातचीत भी होती थी। उन जैन मुनि ने गुजरात के उस कत्लेआम को न्यायिक ठहराते हुए दबी जबान में सुनी-सुनाई सुना दी कि गोधरा काण्ड के बाद मुस्लिम समुदाय ने हिन्दुओं को बोटी-बोटी कर काटना शुरू कर दिया था इसलिए हिन्दू उग्र हुए और कत्लेआम मचाया। भ्रामक धारणाओं के आधार पर अहिंसा के संवाहक की तथ्यहीन सुनी-सुनाई पर हिंसा की पैरवी करते देख ना केवल आश्चर्य बल्कि चिन्ता हुई, और संभवत एक वजह यह भी रही कि उसके बाद उनके पास जाने की आवृत्ति कम हो गई।
यह तो दो बानगियां हैंलेकिन जिन भी ऋषि-मुनियों, साधु-सन्तों के पास जाएंगे उनकी बातचीत और विमर्श के स्रोत में अधिकांशत: ऐसी ही सुनी-सुनाई, तथ्यहीन और अमानवीय सीखें, प्रसंग और बातें सुनने को मिलती हैं। कसौटी पर कसी प्रामाणिक सीख के लिए समाज जिनके पास जाता है, वे ही अगर ऐसा तथ्यहीन व अधकचरा ज्ञान उसी समाज को वापस पेल देते हैं जहां से वह उपजता है तो ऐसे समाज का भटकाव समाप्त नहीं होगा।
यह दोनों प्रसंग क्रमश: स्मरण तब हो आये जब केन्द्र की शाह-मोदी सरकार ने असम में भारत के राष्ट्रीय नागरिक पंजीयन (हृक्रष्ट) के आंकड़े आखिर जाहिर कर दिए। इससे जाहिर हुआ कि असम में रहने वाले भारत के राष्ट्रीय नागरिकों की इस सूची से बाहर या भारत में तथाकथित अवैध रूप से प्रवास करने वाले 19 लाख लोग हैं, इन 19 लाख में 12 लाख हिन्दू हैं।
कश्मीर के अनुच्छेद 370 और कश्मीरी पंडितों के पलायन से संबंधित भ्रामक धारणाएं फैलाने वाले संघनिष्ठ कई दशकों से असम के बारे में भी यह भ्रम फैलाते रहे हैं कि वहां अब तक तीन करोड़ बांग्लादेशी और उनकी आड़ में पाकिस्तानी मुसलमान मकसद विशेष से घुसपैठ कर चुके हैं, जो लगातार जारी है। संघनिष्ठ इनके अलावा भी झूठी और अनर्गल अनेक धारणाएं फैलाते रहे हैं, वर्तमान में तो वे सारी हदें पार कर चुके हैं।
असम में घुसपैठ के उन्नीस लाख के इस सरकारी आंकड़े पर भी कम विवाद नहीं है। इनमें से अधिकांश का जैसे-तैसे भी प्रमाणों के साथ यह दावा है कि वे बिहारी, झारखण्डी और उत्तरप्रदेशीय हैं जो आजीविका के लिए कई पीढ़ी पूर्व यहां आ बसे हैं। आजादी के समय देश के हुए बंटवारे में भारत और पाकिस्तान दो देश बने, पाकिस्तान दो हिस्सों में थापूर्वी पाकिस्तान और पश्चिमी पाकिस्तान। 1965 के भारत-पाक के युद्ध से पहले तक इन देशों के बीच नागरिकों का आवागमन निर्बाध था। अस्थाई आवागमन के साथ धार्मिक-सामाजिक कारणों के अलावा आजीविका और रोजगार की तलाश भी उस आवागमन का बड़ा कारण रहा है। यहां यह जानकारी भी होना जरूरी है कि नागरिकों के बीच इस तरह का आवागमन 150 वर्षों के इस तथाकथित आधुनिक युग से पूर्व दुनिया भर में बिना पासपोर्ट व वीजा के निर्बाध होता रहा है। असम में भारत के राष्ट्रीय नागरिकों की सूची पर विवाद की एक बानगी यह भी है कि आजादी पूर्व दिल्ली आ बसे असमी मूल के भारत के पूर्व राष्ट्रपति फखरुद्दीन अली अहमद के असम में रहने वाले उनके वारिस इस सूची से बाहर हैं।
सत्ता की हवस इन राजनैतिक लालचियों से जो भी कुकर्म करवाती है उससे प्रत्येक जागरूक नागरिक तो वाकिफ है, लेकिन तथ्यहीन धारणाओं और झूठ का बोलबाला अब इतना हावी हो लिया है कि सत्य-चेतना तक सहमने लगी है।
मीडिया की भांति आज के साधु-संत और ऋषि-मुनि भी धर्मच्युत होते लगने लगे हैं। समाज को सत्य-तथ्य आधारित रास्ता दिखाने की बजाय वे भ्रामक धारणाओं एवं कुत्सित सामाजिक इच्छाओं के पोषण के लिए ना केवल अपने पाठकों-अनुयाइयों के सुर में सुर मिलाने लगे हैं बल्कि ठकुरसुहाती करने में भी संकोच नहीं करते। जो धर्म सनातन है उसका तो कुछ नहीं बिगडऩाजो ऐसा भ्रम फैलाते हैं वे स्वयं या तो भ्रमित हैं या वे अपना स्वार्थ सिद्ध कर रहे हैं।
साधु-सन्तों और ऋषि-मुनियों से अंत में एक प्रश्न? क्या वे अपने लिए या अपने आयोजनों के लिए अवैध रूप से कमाये धन का उपयोग-सहयोग लेने से इनकार करते हैं! यदि नहीं तो उनके कहे का समाज में कोई असर नहीं होना है। धार्मिक आयोजनों की सारी चकाचौंध-अवैध धन के बूते है, ऐसे में धर्म की बात बेमानी है। राजनेता अपने को समाज की प्रतिछाया कह कर छूट ले लेते हैं पर साधु समाज भी यदि इन राजनेताओं का मुखापेक्षी हो ले तो उनके त्याग की सार्थकता क्या बची रहेगी?
भ्रमित धारणायें समाज में समरसता नहीं वरन् घृणा में बढ़ोतरी करती हैं। धर्म का ध्येय घृणा तो हरगिज नहीं है। वर्तमान में भ्रामक धारणाओं पर सावचेती इसलिए भी जरूरी है कि फेसबुक, वाट्सएप जैसे सोशल मीडिया के चलते  यह रोग त्वरित संचारित होने लगा है। सुन रखा है कि बिना अंकुश का हाथी अपनी सेना को भी कुचल सकता है। इसलिए मनुष्य होने के अपने धर्म को सावचेती से धारण किये रखना ऐसे समय में ज्यादा जरूरी है।
—दीपचन्द सांखला
5 सितम्बर, 2019