Thursday, October 10, 2019

गांधी की उम्मीदें, अंबेडकर की जद्दोजहद और सच होतीं जिन्नाह की आशंकाएं

कुछ मसलों को समझने की फिराक में जो होगा उसे उनके  अलावा भी कई और मसले समझ आने लगेंगे। डॉ. अम्बेडकर को समझना चाहें तो दलितों के  लिए पृथक् निर्वाचन की मांग की एवज में गांधी के  माध्यम से कांग्रेस ने विधायिका में आरक्षण का प्रस्ताव किया। उसी के  आधार पर आजाद भारत में दलितों को आरक्षण मिला। हालांकि 1932 का कांग्रेस का प्रस्ताव पेचीदा तो था, लेकिन वर्तमान आरक्षण व्यवस्था से ज्यादा कारगर था। उस व्यवस्था में पहले दलित मतदाता प्रति सीट अपने चार प्रतिनिधि चुनते। बाद इसके  आम चुनाव में दलितों सहित सभी मतदाता उन चारों में से किसी एक को चुनकर विधायिका में भिजवाते। डॉ. अम्बेडकर के दबाव में दलितों के पक्ष में इस तरह भी हुआ कि पृथक् निर्वाचन प्रारूप से प्रांतीय एसेंब्ली में दलित समुदाय के लिए जहां 71 सीटों का प्रावधान था, कांग्रेस की सुझाई व्यवस्था में वह बढ़कर दुगुने से भी ज्यादा, 148 हो गया। 
आजाद भारत में आरक्षण से सत्ता और शासन में भागीदार दलितों ने चाहे नव-सवर्ण दलितों ने अपनी अलग श्रेणी बना ली हो, बावजूद इस सबके  आजादी बाद से दलित समुदायों में सम्मान से जीवन-यापन के  अवसर बढ़े हैं। सफाई कार्य में लगे दलित समुदाय को छोड़ दें तो कम से कम शहरों में अस्पृश्यता काफी कम हुई है। हालांकि साथ खान-पान में सवर्ण व अन्य पिछड़े आदि अभी भी कतराते हैं। ग्रामीण-इलाकों की बात करें तो स्थितियां कहीं-कहीं आजादी पूर्व-सी मिलेंगी लेकिन यह मानने में संकोच नहीं कि सवर्णों व अन्य पिछड़ों के  साथ बराबरी का दर्जा दलितों को अभी भी हासिल नहीं है। जो दलित शासन-प्रशासन में बड़े ओहदों पर हैं उन्हें तो कुछ हद तक बराबरी का दर्जा दिया जाने लगा है। कल्पना करें कि आरक्षण यदि नहीं होता तो मतदाता होने के बावजूद दलितों की क्या और कैसी बुरी स्थिति होती।
दलितों की इन स्थितियों से मुसलमानों की स्थिति अच्छे से समझ सकते हैं। अंग्रेजी शासन ने 19वीं शताब्दी की शुरुआत में ही मुसलमानों के लिए प्रांतीय और सेन्ट्रल लेजिस्लेटरी में पृथक् निर्वाचन का प्रावधान चाहे कर दिया हो, लेकिन आजादी बाद मुसलमानों के  लिए ना केवल पृथक् निर्वाचन को समाप्त कर दिया बल्कि धार्मिक अल्पसंख्यक होने के  आधार पर आरक्षण भी नहीं दिया गया। नतीजतन लोकसभा और राज्यों की विधानसभा में मुस्लिम समुदाय का प्रतिनिधित्व लगातार कम होता जा रहा है। राज्य की विधानसभाओं और लोकसभा में आबादी के  अनुपात में मुसलमानों का प्रतिनिधित्व चाहे कभी ना रहा हो, लेकिन एक सम्मानजनक उपस्थिति उनकी हमेशा रही थी। गत लोकसभा चुनाव में सत्ताधारी भाजपा ने तो हद ही कर दी। जम्मू-कश्मीर को छोड़कर देश में कहीं से भी अपनी पार्टी के  उम्मीदवार के तौर पर भाजपा ने किसी मुस्लिम को नहीं उतारा। मुस्लिम बहुल कश्मीर घाटी को अपवाद के तौर पर लेना उनकी मजबूरी मान सकते हैं। लोकतंत्र में सबसे बेहतर मानी जाने वाली इस संसदीय शासन प्रणाली में भी इस तरह की कुछ सीमाएं सामने आयी ही हैं। ऐसी स्थितियों को लोकतंत्र के  भविष्य के लिए अनुकूल नहीं मान सकते।
इन्हीं सब पर विचार करते हुए ना के वल गांधी की भावनाओं-उम्मीदों का स्मरण हो आया बल्कि मोहम्मद अली जिन्नाह की आशंकाओं ने भी आ दबोचा। गांधी की इच्छा से बनने वाले भारत में सभी तरह के  लोगों के लिए एक सम्मानजनक बराबरी होतीगांव आधारित अर्थव्यवस्था में आर्थिक सुरक्षा के  साथ यथायोग्य रोजगार भी सबको हासिल होते। जाति-वर्ग और धर्म के आधार पर बंटता आज का देश गांधी की कल्पना का भारत नहीं है।
मुसलमानों के लिए पृथक् राष्ट्र पर अड़े जिन्नाह को बड़ी आशंका थी कि मुस्लिम यहां साथ रहे तो शासन में उन्हें सम्मानजनक हक हासिल नहीं होगा। वहीं गांधी को ना केवल हिन्दुओं की उदारता और न्यायप्रियता पर उम्मीद थी वरन् उन्हें पूरा भरोसा भी था कि आजाद भारत की संवैधानिक व्यवस्था में ना के वल मुसलमानों को बल्कि दलितों को भी शासन में वाजिब भागीदारी मिलेगी। आरक्षण के  चलते दलितों को तो राज में जैसा-तैसा भी प्रतिनिधित्व मिला हुआ है लेकिन वे मुसलमान, जिन्होंने बजाय पाकिस्तान के भारत में रहना चुना, उनके  साथ लगातार अन्याय हो रहा है। यहां रहे मुसलमानों के  इस निर्णय में गांधी-नेहरू जैसे व्यक्तित्वों में कायम उनका भरोसा भी एक वजह थी। यहां हमें यह नहीं भूलना नहीं चाहिए कि आजादी पूर्व भारत के पक्षकार बंटवारे को साम्प्रदायिक स्वीकृति देते तो ना के वल भारत का वर्तमान भौगोलिक नक्शा वर्तमान वाला नहीं रहता वरन् खून-खराबा कई गुना अधिक होता वह अलग। वैसी स्थिति में भारत के  कितने बंटवारे होते इसकी कल्पना भी भयावह है।
वर्तमान परिस्थितियों में इस सब पर विचार का मकसद इतना ही है कि धार्मिक-सामाजिक और भौगोलिक विविधताओं से भरे हमारे इस भारत देश को बनाये रखना है तो सभी समुदायों को सभी क्षेत्रों में बराबरी के  हक का आपसी सम्मान करना होगा। हमारी ऐसी मंशा यदि नहीं है तो देश के भविष्य को मुश्किल से मुश्किलतर होने से कोई रोक नहीं सकेगा।
—दीपचन्द सांखला
10 अक्टूबर, 2019

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