Thursday, September 26, 2019

बीकानेर के कोटगेट क्षेत्र की यातायात समस्या : कल्लाजी! गुमराह तो मत कीजिए

'केन्द्र सरकार का पेच फंसा हुआ है। केन्द्र से मंजूरी मिल जाए तो दो साल में बायपास बनवा दूं। रेल बायपास समय की मांग है। डबल लाइन के लिए उसकी जरूरत है। इसी पर शहर का विकास टिका हुआ है। हमारी सरकार ने पूर्व में एक करोड़ रुपये जमा भी करवा दिये थे, लेकिन बाद में बीजेपी ने सत्ता में आते ही ऐसी शर्तें रख दी, जिस पर रेलवे राजी नहीं हुआ! '
—डॉ. बुलाकीदास कल्ला
बीकानेर पश्चिम विधायक एवं मंत्री, राजस्थान सरकार
(21 सितम्बर, 2019 दैनिक भास्कर में प्रकाशित बयान)
रियासत काल में बीकानेर के लम्बे समय तक शासक रहे गंगासिंह के हवाले से बहुत-सी किंवदंतियां प्रचलित हैं। इसमें एक यह भी है कि वे चाहते तो रेलवे लाइन को वर्तमान छावनी एरिया से होते सीधे लालगढ़ तक ले जा सकते थे। रेलवे लाइन को घुमाते हुए कोटगेट के आगे से वे इसलिए लाये ताकि शहर के लोग जब चाहें तब कोटगेट आकर छुक-छुक गाड़ी को देख सकें। इसे तार्किक पुट देने वाले यह कहने से भी नहीं चूकते कि रेलवे लाइन को जूनागढ़ से दूर कोटगेट होते हुए इसलिए ले जाया गया ताकि इंजन की सीटी से जूनागढ़ के बाशिन्दों को कोई खलल ना पड़े। यदि सीधे छावनी क्षेत्र होते हुए ले आते तो तब प्रस्तावित लालगढ़ पैलेस के एकदम पास से रेल गाडिय़ां गुजरती, ऐसा भी गंगासिंह चाहते नहीं थे।
खैर! जितने मुंह उतनी बातें, फिलहाल बीच शहर से दिन में कई-कई बार गुजरने वाली रेलगाडिय़ों से शहर का यातायात दिनभर बाधित होता है। इस परेशानी का अहसास शहरियों को पिछली सदी के नवें दशक में ही होना शुरू हो गया था। तभी आखिरी दशक में एडवोकेट रामकृष्ण दास गुप्ता के नेतृत्व में रेलगाडिय़ों के शहर के बीच से गुजारने के विरोध में लम्बा आन्दोलन चला। सरकार के कान खड़े हुएकेवल इसलिए कि गेज परिवर्तन का काम निर्बाध सम्पन्न हो पाये, क्योंकि आंदोलनकारियों ने धमकी दे रखी थी कि बीकानेर और लालगढ़ जंक्शनों के बीच की मीटरगेज लाइन को ब्रॉडगेज में परिवर्तित करने का कार्य वे नहीं होने देंगे। राजस्थान के तत्कालीन मुख्यमंत्री भैंरोसिंह शेखावत के साथ केन्द्रीय रेलमंत्री सीके जाफर शरीफ बीकानेर आए और बड़ी चतुराई से आंदोलनकारियों के हाथ में बजाने को बायपास का झुनझुना पकड़वाया और गेज परिवर्तन कार्य निर्बाध करवा लिया। 
रेलवे लाइनों के इर्द-गिर्द की 75 फीट तक की जमीनों की मिल्कीयत रेलवे की है। ऐसा बीकानेर ही नहीं पूरे देश में है, तभी रेलवे निर्बाध सेवाएं दे पाता है, अन्यथा आज लगभग सभी शहरों के बीच से गुजरती रेल लाइनों पर रेलवे बजाय गाडिय़ां चलाने के बायपास बनवाने में ही लगा रहता। अपनी मिल्कीयत की जमीन पर रेलगाडिय़ां चलाने वाला रेलवे मंत्रालय शहरी यातायात की समस्या के समाधान का जिम्मा अपना नहीं मानता। यह राज्य सरकार का मसला है और इसके समाधान के लिए अण्डरब्रिज, ओवरब्रिज और एलिवेटेड रोड यदि राज्य सरकारें बनवाती हैं तो रेलवे लाइन के ऊपर या नीचे से सड़कें गुजारने को रेलवे अपनी शर्तों पर स्वीकृति दे देता है। अपवाद स्वरूप रेलवे अण्डरब्रिज निर्माण कार्य खुद अपने खर्चे पर भी करता है, लेकिन वहां जहां रेलफाटकों पर द्वारपालों के स्थाई खर्चे से उसे बचना हो।
यह तो हुई आधारभूत बात, हमारे बीकानेर के संदर्भ में समझें तो इसका इतना ही महत्त्व है कि शहरी यातायात समस्या के समाधान का जिम्मा रेलवे का नहीं है। बाकी तो जिन्हें अपने और अपनों की ही राजनीति करनी है, वे करते रहें।
डॉ. बुलाकीदास कल्ला ने विरोधी सरकारों पर भूंड का ठीकरा फोड़ते यह नहीं बताया कि वर्ष 2004 से 2014 तक केन्द्र में और वर्ष 2008 से 2013 तक राजस्थान में इनकी कांग्रेस की सरकारें थीं। लगभग उन दस वर्षों के दौरान इनकी सरकारों ने या खुद इन्होंने बीकानेर शहर की इस सबसे बड़ी समस्या के समाधान के लिए किया क्या?
उपरोक्त उल्लेखित बयान में डॉ. कल्ला भाजपा की राज्य सरकार की जिन शर्तों का बहाना बना रहे हैं, उस एमओयू का प्रारूप एक करोड़ रुपये रेलवे को देते समय कांग्रेस की सरकार ने तैयार करके रेलवे को क्यों नहीं भिजवाया? दिसम्बर, 1998 में डॉ. कल्ला सूबे की सरकार में जब फिर से कैबिनेट मंत्री बने तब इस समस्या पर शहर का उद्वेलन परवान पर था। डॉ. कल्ला पांच वर्ष ना केवल शहर की नुमाइंदगी करते रहे बल्कि तब सूबे के शासन में हिस्सेदार भी थे। डॉ. कल्ला चाहते तो एमओयू का प्रारूप अपने राज में भिजवा देते।
2003 के अन्त में भाजपा की वसुंधरा सरकार आ गई। भाजपा की राज्य सरकार ने एक वर्ष में एमओयू के इस प्रारूप को रेलवे को भिजवा दिया। नवम्बर 2004 को भिजवाये एमओयू के प्रारूप को अपनी आपत्तियों के साथ जनवरी 2005 में ना केवल रेलवे बोर्ड को भिजवा दिया बल्कि नार्थ-वेस्टर्न रेलवे के जयपुर स्थित जोनल ऑफिस ने अपनी असहमतियों के साथ इसे 'पिंक बुकÓ से हटाने की अनुशंसा भी कर दी।
उस समय भी डॉ. कल्ला विधानसभा में ना केवल शहर की नुमाइंदगी कर रहे थे बल्कि उनकी पार्टी कांग्रेस के नेतृत्व में केन्द्र में गठबंधन सरकार थी जो वर्ष 2014 तक चली। इस बीच सन् 2008 में सूबे में भी कांग्रेस सत्ता में लौट आयी। डॉ. कल्ला बतायेंगे कि उन्होंने इस दौरान इस समस्या के समाधान के लिए क्या किया? 1980 से राजनीति कर रहे और कई बार मंत्री रह चुके डॉ. कल्ला क्या यह कहना चाह रहे हैं कि कुछ करवाने के लिए मंत्री होना जरूरी होता है।
बायपास समाधान को 'पिंक बुक' से हटाने के बाद वसुंधरा सरकार ने इस समस्या के वैकल्पिक समाधान पर गंभीरता से सक्रियता दिखाई। ऐसा इसलिए कह सकते हैं कि रेलवे द्वारा बायपास से इनकार करने के तत्काल बाद राज्य सरकार ने समाधान सुझाने का यह काम आरयूआइडीपी को सौंपा। आरयूआईडीपी ने इस काम को अरबन प्लानिंग के विशेषज्ञ और केन्द्रीय सड़क एवं परिवहन मंत्रालय में सलाहकार रहे सरदार अजितसिंह को सौंपा। जिन्होंने अशोक खन्ना और हेमन्त नारंग जैसे स्थानीय वरिष्ठ अभियन्ताओं के साथ शहर में रहकर सभी संभव विकल्पों पर विचार किया और वर्ष 2005-06 में सर्वाधिक व्यावहारिक मानकर एलिवेटेड रोड की योजना राज्य सरकार को सुझायी। इस योजना पर राजस्थान पत्रिका ने तब जनता की राय भी जानी। 98 प्रतिशत लोगों ने रेलवे फाटकों के चलते कोटगेट क्षेत्र की इस यातायात समस्या के एलिवेटेड रोड से समाधान के पक्ष में राय दी। उसके बाद निहित स्वार्थी तत्त्वों के विरोध के चलते यह योजना खटाई में ऐसी पड़ी कि वह आज भी बदतर स्थितियों में है। इसके बाद की पूरी कथा इसी शृंखला में एकाधिक बार बांच चुका हूं। जरूरत हुई तो आज के दोहराव की तरह फिर बांचूंगा। लेकिन डॉ. कल्ला समझना चाहें या नहींकोटगेट क्षेत्र की यातायात समस्या का व्यावहारिक समाधान 2005-06 की उस एलिवेटेड योजना में ही है। डॉ. कल्ला को बायपास का अंगूठा चुसवाना अब छोड़ देना चाहिए। यह समझाने की हिमाकत उन्हें करना नहीं चाहता कि अधिक चूसने-चुसवाने पर अंगूठे से खून भी रिसने लगता है।
—दीपचन्द सांखला
26 सितम्बर, 2019

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