Thursday, September 5, 2019

घृणा में तबदील होतीं भ्रांतियां

सात-आठ वर्ष पूर्व की बात है, विज्ञान अनुशासन से आए महन्तजी ने बातचीत में बताया कि हिन्दू संस्कृति पर खतरा मंडरा रहा है। जब पूछा कि कैसे? तो उन्होंने उत्तर-पूर्व खासकर असम का तत्काल जिक्र करते हुए बताया कि वहां अब तक तीन करोड़ बांग्लादेशी मुस्लिम घुसपैठ कर चुके हैं जो ना केवल वहां हमारी संस्कृति को नष्ट-भ्रष्ट कर रहे हैं बल्कि आर्थिक ताने-बाने को भी छिन्न-भिन्न कर रहे हैं। जब पूछा कि तीन करोड़ के इस आंकड़े की प्रामाणिकता क्या है, उन्होंने बताया कि यह सरकार इस तथ्य को छिपाये रखना चाहती है। आश्चर्य की बात तो यह है कि जिस असम की कुल आबादी आज भी तीन करोड़ के लगभग है, वहां घुसपैठिये तीन करोड़ ना केवल बताये जाते रहे हैं बल्कि इसे ऐसे स्थापित कर दिया गया कि महन्तजी जैसे समाज को सही मार्ग दिखाने वाले तक भ्रमित हो गये। मुझे उनकी इस तरह की बातचीत से आश्चर्य हुआ और चिंता भी। क्योंकि ये महन्तजी जब स्थानीय मठ पर अधिष्ठ होकर यहीं प्रवास करने लगे, तब के उनके शुरुआती प्रवचन उदार, प्रामाणिक व आध्यात्मिक लगा करते थे। उनमें 'श्रद्धा' की एक वजह भी यही थी।
एक दूसरा उदाहरण और। एक जैन मुनि का प्रसंग भी आज मैं साझा करना चाहता हूं। मेरे पत्नीपक्ष की जैन सम्प्रदाय में आस्था है। इसी वजह से शादी बाद एक सम्प्रदायविशेष के जैन मुनियों के पास अक्सर जाना होता। खासकर एक मुनिविशेष के पास, जिनमें पत्नीपक्ष की विशेष श्रद्धा थी। उनसे लम्बा विमर्श होताशायद इसलिए भी कि वे लगभग हमउम्र हैं। 2002 में गुजरात के मुस्लिम-संहार के समय या तुरंत बाद का उनका चतुर्मास अहमदाबाद ही था, बात तभी की है। उनके सत्संग के लिए हम सपरिवार पहुंचे, गुजरात दंगों पर उनसे बात होना इसलिए भी लाजमी था कि हमारे बीच धार्मिक-आध्यात्मिक विमर्श के अलावा सामाजिक-राजनीतिक बातचीत भी होती थी। उन जैन मुनि ने गुजरात के उस कत्लेआम को न्यायिक ठहराते हुए दबी जबान में सुनी-सुनाई सुना दी कि गोधरा काण्ड के बाद मुस्लिम समुदाय ने हिन्दुओं को बोटी-बोटी कर काटना शुरू कर दिया था इसलिए हिन्दू उग्र हुए और कत्लेआम मचाया। भ्रामक धारणाओं के आधार पर अहिंसा के संवाहक की तथ्यहीन सुनी-सुनाई पर हिंसा की पैरवी करते देख ना केवल आश्चर्य बल्कि चिन्ता हुई, और संभवत एक वजह यह भी रही कि उसके बाद उनके पास जाने की आवृत्ति कम हो गई।
यह तो दो बानगियां हैंलेकिन जिन भी ऋषि-मुनियों, साधु-सन्तों के पास जाएंगे उनकी बातचीत और विमर्श के स्रोत में अधिकांशत: ऐसी ही सुनी-सुनाई, तथ्यहीन और अमानवीय सीखें, प्रसंग और बातें सुनने को मिलती हैं। कसौटी पर कसी प्रामाणिक सीख के लिए समाज जिनके पास जाता है, वे ही अगर ऐसा तथ्यहीन व अधकचरा ज्ञान उसी समाज को वापस पेल देते हैं जहां से वह उपजता है तो ऐसे समाज का भटकाव समाप्त नहीं होगा।
यह दोनों प्रसंग क्रमश: स्मरण तब हो आये जब केन्द्र की शाह-मोदी सरकार ने असम में भारत के राष्ट्रीय नागरिक पंजीयन (हृक्रष्ट) के आंकड़े आखिर जाहिर कर दिए। इससे जाहिर हुआ कि असम में रहने वाले भारत के राष्ट्रीय नागरिकों की इस सूची से बाहर या भारत में तथाकथित अवैध रूप से प्रवास करने वाले 19 लाख लोग हैं, इन 19 लाख में 12 लाख हिन्दू हैं।
कश्मीर के अनुच्छेद 370 और कश्मीरी पंडितों के पलायन से संबंधित भ्रामक धारणाएं फैलाने वाले संघनिष्ठ कई दशकों से असम के बारे में भी यह भ्रम फैलाते रहे हैं कि वहां अब तक तीन करोड़ बांग्लादेशी और उनकी आड़ में पाकिस्तानी मुसलमान मकसद विशेष से घुसपैठ कर चुके हैं, जो लगातार जारी है। संघनिष्ठ इनके अलावा भी झूठी और अनर्गल अनेक धारणाएं फैलाते रहे हैं, वर्तमान में तो वे सारी हदें पार कर चुके हैं।
असम में घुसपैठ के उन्नीस लाख के इस सरकारी आंकड़े पर भी कम विवाद नहीं है। इनमें से अधिकांश का जैसे-तैसे भी प्रमाणों के साथ यह दावा है कि वे बिहारी, झारखण्डी और उत्तरप्रदेशीय हैं जो आजीविका के लिए कई पीढ़ी पूर्व यहां आ बसे हैं। आजादी के समय देश के हुए बंटवारे में भारत और पाकिस्तान दो देश बने, पाकिस्तान दो हिस्सों में थापूर्वी पाकिस्तान और पश्चिमी पाकिस्तान। 1965 के भारत-पाक के युद्ध से पहले तक इन देशों के बीच नागरिकों का आवागमन निर्बाध था। अस्थाई आवागमन के साथ धार्मिक-सामाजिक कारणों के अलावा आजीविका और रोजगार की तलाश भी उस आवागमन का बड़ा कारण रहा है। यहां यह जानकारी भी होना जरूरी है कि नागरिकों के बीच इस तरह का आवागमन 150 वर्षों के इस तथाकथित आधुनिक युग से पूर्व दुनिया भर में बिना पासपोर्ट व वीजा के निर्बाध होता रहा है। असम में भारत के राष्ट्रीय नागरिकों की सूची पर विवाद की एक बानगी यह भी है कि आजादी पूर्व दिल्ली आ बसे असमी मूल के भारत के पूर्व राष्ट्रपति फखरुद्दीन अली अहमद के असम में रहने वाले उनके वारिस इस सूची से बाहर हैं।
सत्ता की हवस इन राजनैतिक लालचियों से जो भी कुकर्म करवाती है उससे प्रत्येक जागरूक नागरिक तो वाकिफ है, लेकिन तथ्यहीन धारणाओं और झूठ का बोलबाला अब इतना हावी हो लिया है कि सत्य-चेतना तक सहमने लगी है।
मीडिया की भांति आज के साधु-संत और ऋषि-मुनि भी धर्मच्युत होते लगने लगे हैं। समाज को सत्य-तथ्य आधारित रास्ता दिखाने की बजाय वे भ्रामक धारणाओं एवं कुत्सित सामाजिक इच्छाओं के पोषण के लिए ना केवल अपने पाठकों-अनुयाइयों के सुर में सुर मिलाने लगे हैं बल्कि ठकुरसुहाती करने में भी संकोच नहीं करते। जो धर्म सनातन है उसका तो कुछ नहीं बिगडऩाजो ऐसा भ्रम फैलाते हैं वे स्वयं या तो भ्रमित हैं या वे अपना स्वार्थ सिद्ध कर रहे हैं।
साधु-सन्तों और ऋषि-मुनियों से अंत में एक प्रश्न? क्या वे अपने लिए या अपने आयोजनों के लिए अवैध रूप से कमाये धन का उपयोग-सहयोग लेने से इनकार करते हैं! यदि नहीं तो उनके कहे का समाज में कोई असर नहीं होना है। धार्मिक आयोजनों की सारी चकाचौंध-अवैध धन के बूते है, ऐसे में धर्म की बात बेमानी है। राजनेता अपने को समाज की प्रतिछाया कह कर छूट ले लेते हैं पर साधु समाज भी यदि इन राजनेताओं का मुखापेक्षी हो ले तो उनके त्याग की सार्थकता क्या बची रहेगी?
भ्रमित धारणायें समाज में समरसता नहीं वरन् घृणा में बढ़ोतरी करती हैं। धर्म का ध्येय घृणा तो हरगिज नहीं है। वर्तमान में भ्रामक धारणाओं पर सावचेती इसलिए भी जरूरी है कि फेसबुक, वाट्सएप जैसे सोशल मीडिया के चलते  यह रोग त्वरित संचारित होने लगा है। सुन रखा है कि बिना अंकुश का हाथी अपनी सेना को भी कुचल सकता है। इसलिए मनुष्य होने के अपने धर्म को सावचेती से धारण किये रखना ऐसे समय में ज्यादा जरूरी है।
—दीपचन्द सांखला
5 सितम्बर, 2019

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