Thursday, November 29, 2018

बीकानेर जिला-सात सीटें : पड़ताल आज तक की-कल की बात फिर


चुनावी झनझन यूं तो एक वर्ष पूर्व ही से शुरू हो जाती है लेकिन छह माह पहले से ना केवल गोटियों को सम्हाला जाने लगता है बल्कि चौसर भी मांड ली जाती है। राजस्थान विधानसभा चुनाव परिणामों को लेकर एक माह पहले का कांग्रेस:भाजपा का 115:65 का आंकड़ा आज दिन तक 100:80 के लगभग आ गया है। इसी आधार पर बीकानेर संभाग की बात करें तो वर्ष 2013 में कुल 23 में से कांग्रेस 3 भाजपा 17 और अन्य पर 4 थे-एक माह पहले का अनुमान जो 12:8:4 पर था अब 10:10:4 पर आया लगता है। कांग्रेस व भाजपा के उस अनुमानित अन्तर को पाटने में नेता प्रतिपक्ष रामेश्वर डूडी की कारस्तानियों के चलते बीकानेर जिले का योगदान ज्यादा है। वैसे यह स्पष्ट कर देना जरूरी है कि इस तरह के अनुमान तत्समय के  होते हैं-हो सकता है अगले दिन बदल भी जायें। ऐसे क्षणभंगुर अनुमानों में मतदान तक कितना बदलाव होगा कहना मुश्किल है-बड़ा कुछ घटित ना हो तो मोटामोट इसके इर्द-गिर्द ही रहता लगता है-10 से 15' तक जोड़-घटाव के  साथ।
बीकानेर जिले की बात करें और रामेश्वर डूडी का जिक्र ना हो संभव नहीं है। एक-दो माह पहले बीकानेर जिले की 7 सीटों में कांग्रेस:भाजपा का आंकड़ा 6:1 का था लेकिन इस शर्त के साथ कि डूडी अपने स्वभाव से बचे रहें लेकिन उन्हें जो करना था किया ही। उनके किए धरे से सबसे कम प्रभावित रहने वाली कोलायत सीट से बात शुरू करते हैं। मगरे के शेर देवीसिंह भाटी अपनी आसन्न हार के चलते दड़बे में चले जाने के  निर्णय पर कायम रहे। बहुतों का मानना था कि देवीसिंह अंत-पंत चुनाव में खुद उतरेंगेयह बात कभी हजम नहीं हुई, हुआ भी वही। भाजपा के पास कोलायत में कोई विकल्प था नहीं और राजनीति को पुश्तैनी पेशा बना चुके देवीसिंह को भी लगा होगा कि इसे जारी रखना जरूरी है। पौत्र अंशुमान सिंह की उम्र चुनाव लड़ सकने की नहीं हुई सो उनकी मां, महेन्द्रसिंह की पत्नी पूनमकंवर को मैदान में उतारा गया, कोलायत में भाजपा भी यही चाहती थी। पूनमकंवर के नाम की घोषणा के साथ एक बारगी तो लगा भी कि महेन्द्रसिंह की शालीनता-सदाशयता और अचानक उनके चले जाने का भावनात्मक लाभ पूनमकंवर को हासिल होगाकुछ हुआ भी हो, लेकिन उतना नहीं जितना राजनीतिक फासला बीते पांच वर्षों में हदां और बरसलपुर के बीच कांग्रेस विधायक भंवरसिंह भाटी ने बना लिया है। देवीसिंह भाटी के प्रति 33 वर्षों की ऊब और कुछ नाराजगियां जो भीतर की भीतर कसमसा-सिसक रही थीं, वही इस चुनाव में पूनमकंवर के आड़े आती दिख रही हैं। इस ऊब और कसमसाहट को भंवरसिंह भाटी ने बहुत अच्छे से सहलाया है, भंवरसिंह की शालीनता और सदाशयता महेन्द्रसिंह के जोड़ की ही मानी जा रही है, ऐसे में देखना यही है कि देवीसिंह भाटी अपने राजनैतिक पेशे को इस चुनाव से अगली पीढिय़ों के लिए सहेज कर रख पाते हैं कि नहीं।
जिले की शेष छह सीटों की मोटा-मोट बात पिछले आलेख में की गई। लेकिन जब तवा चूल्हे पर हो तो रोटी को उलट-पुलट कर देखते रहने में हर्ज क्या है। यह कहने में कोई संकोच नहीं है कि डेढ़-दो माह पहले के कांग्रेस:भाजपा के 6:1 के आंकड़े को ग्रहण खुद कांग्रेस के सूरज रामेश्वर डूडी के हस्तक्षेप से लगा हैखाजूवाला, लूनकरणसर और श्रीडूंगरगढ़ के टिकट बंटवारे में डूडी की चली भले ही ना हो लेकिन उनकी कुचमादी आशंकाओं के  चलते श्रीडूंगरगढ़ में तय जीत वाले कांग्रेस प्रत्याशी मंगलाराम गोदारा फिलहाल तीसरे नम्बर पर पिछड़ते नजर आ रहे हैं। श्रीडूंगरगढ़ विधानसभा क्षेत्र की 10 पंचायतों पर सीधे प्रभाव रखने वाले रामेश्वर डूडी हालांकि इसके लिए अकेले जिम्मेदार नहीं हैं। माक्र्सवादी कम्यूनिस्ट पार्टी के उम्मीदवार गिरधारी महिया का पुरुषार्थ उनकी जीत की संभावनाएं बना रहा हैडूडी की संभावित भीतरघात क्षेत्र में लगातार सक्रिय रहने वाले महिया के लिए मात्र सहारा बना है। माना यह भी जा रहा कि जाट प्रभावी इस विधानसभा क्षेत्र में जैसे ही यह लगेगा कि गिरधारी महिया भाजपा के ताराचन्द सारस्वत से पिछड़ सकते हैैं वैसे ही जाट समुदाय मंगलाराम के साथ आ लेंगे। बीकानेर की सात में से यही एक सीट है जिसमें आखिरी क्षण तक बड़े उलट-फेर की सम्भावना हो गई है।
लूनकरणसर में स्थिति अभी भी स्पष्ट नहीं है, इसके दो कारण हैं। एक यह कि गैर-जातीय आधार पर क्षेत्र में राजनीति करने वाले प्रदेश के आदर्श जनप्रतिनिधि मानिकचन्द सुराना मौन हैं। उम्र और स्वास्थ्य कारणों के चलते ना वे खुद चुनाव में उतरे और ना ही किसी को समर्थन की घोषणा की हैसुराना का कहना है कि वे क्षेत्र की जनता के वास्ते हमेशा की तरह खड़े रहेंगे। दूसरा, भाजपा के बागी प्रभुदयाल सारस्वत का पूरे दम-खम के  साथ ताल ठोकना, कहने को नुकसान वे कांग्रेस और भाजपा दोनों को पहुंचाने वाले हैं, यदि ऐसा है तो भी कांग्रेस के वीरेन्द्र बेनीवाल भारी पड़ सकते हैंबशर्ते स्थानीय समीकरणों के चलते रामेश्वर डूडी उनके पलड़े का वजन कम करने में सफल ना हों। डूडी यहां भी शांत रहें तो बेनीवाल अपना वजन बढ़ा सकते हैं।
खाजूवाला का मामला बावजूद इस सब के पेचीदा होता नहीं लगता है कि वर्तमान विधायक और भाजपा उम्मीदवार डा. विश्वनाथ भले हैं। सूबे की एंटी इंकम्बेसी और कांग्रेसी उम्मीदवार गोविन्द मेघवाल की क्षेत्र में लगातार सक्रियता विश्वनाथ की तीसरी जीत को रोकती लग रही है। श्रीडूंगरगढ़, लूनकरणसर की ही तरह अपने ही पार्टी उम्मीदवारों पर डूडी की छाया पडऩे के कयास भी यहां लगाये जा रहे हैं, लेकिन छाया कितनी लम्बी होगी कह नहीं सकते, क्योंकि ज्यों-ज्यों मतदान का दिन नजदीक आता जायेगा त्यों-त्यों हो सकता है डूडी कहीं अपनी ही बचाने में लगे ना रह जाएं!
बीकानेर पूर्व की बात जरूरी इसलिए नहीं है कि जिले में कांग्रेस:भाजपा का 6:1 का जो अनुमानित आंकड़ा था उसमें सिद्धिकुमारी की बीकानेर पूर्व की सीट ही भाजपा के लिए निश्चित मानी जा रही थी और आज भी स्थिति कुछ वैसी ही है। अन्तर कन्हैयालाल झंवर की कांग्रेस उम्मीदवारी के बाद इतना ही आया कि जिन सिद्धिकुमारी का मन इस बार का चुनाव घर बैठे ही जीतने का था, अब वह गली-मुहल्लों में भी प्रतिदिन नजर आने लगी हैं।
डूडी ग्रहण के सूतक से कांग्रेस के लिए जिले की सर्वाधिक प्रभावित बीकानेर पश्चिम की सीट हुईडॉ. कल्ला की तय उम्मीदवारी के चलते कांग्रेस की जो जीत इस बार यहां निश्चित मानी गई-उसमें बड़ा पंगा आ गया है। पहले कल्ला को उम्मीदवारी ना मिल यशपाल गहलोत को मिलना और फिर बीकानेर पूर्व से घोषित कन्हैयालाल झंवर को उम्मीदवारी से हटा कर यशपाल को पूर्व में सिफ्ट करना। सिलसिला यहीं नहीं रुकाफिर यशपाल को पूर्व से भी खदेड़कर झंवर को पुन: उम्मीदवारी देना, यह चकरघिन्नी कांग्रेस के लिए भारी पड़ सकती है। वहीं कांग्रेस से बागी होकर बीकानेर पूर्व और पश्चिमी दोनों जगह से ताल ठोकने वाले गोपाल गहलोत अपनी साख भी बचा पाएंगे लगता नहीं है, बावजूद इस सबके माली समाज की कांग्रेस से नाराजगी कल्ला के लिए भारी साबित हो तो आश्चर्य नहीं।
रही बात नोखा की तो जिस अपनी सीट को सुरक्षित करने के लिए डूडी ने पूरे जिले को हिला दिया, उसी नोखा में डूडी पर दबाव लगातार बढ़ता लग रहा है। भाजपा उम्मीदवार बिहारी बिश्नोई के लिए यह चुनाव जहां राजनीतिक अस्तित्व का है वहीं रामेश्वर डूडी के लिए राजनीतिक हैसियत बचाए रखने का। डूडी यह चुनाव हार जाते हैं तो अपनी हैसियत हासिल करने में उन्हें लम्बी जद्दोजहद करनी पड़ेगी, जरूरी नहीं कि वर्तमान हैसियत फिर से हासिल भी हो। बिहारी बिश्नोई के प्रति क्षेत्र में सहानुभूति जहां डूडी के  लिए भारी पड़ती दीख रही है वहीं डूडी की सगी भानजी और हनुमान बेनीवाल के आरएलपी की उम्मीदवार इन्दू तर्ड हुड़ा अलग लगाये हुए है। इतना ही नहीं कन्हैयालाल झंवर को जैसे ही लगेगा कि डूडी ने उन्हें बीकानेर पूर्व में फंसा दिया तो नोखा में उनका इतना प्रभाव तो है कि वे डूडी को परेशानी में डाल सकते हैं। इस सबसे ऊपर खुद डूडी का अपना स्वभाव उनसे दुश्मनी कम नहीं साधता। आज बात इतनी ही अगले सप्ताह बदले अनुमानों के साथ-बदले तो।
दीपचन्द सांखला
29 नवम्बर, 2018

Saturday, November 24, 2018

लोकतंत्र की परखी (11 फरवरी, 2012)

दुनियां के सबसे बड़े लोकतंत्र के सबसे बड़े राज्य उत्तरप्रदेश की विधानसभा का चुनाव चल रहा है। बीकानेर में भी उत्तरप्रदेश के बहुत से लोग मेहनत-मजदूरी के लिए आए हुए हैं। भवन निर्माण के कार्य में पीओपी करने वाले कुछ मजदूरों से जब पूछा गया कि वोट डालने नहीं जा रहे हो? उनका जवाब था कि ‘वोट डालने से हमें क्या मिलेगा!’ जब उन्हें वोट की महत्ता बताने की कोशिश की गई तो उन्होेंने कोई रुचि नहीं दिखलाई। आजादी के 64 साल बाद भी वोट के प्रति इस उदासीनता के भी अपने पुख्ता कारण हैं और इन कारणों पर विचार करने की जिम्मेदारी भी सभी पर है।
-- दीपचंद सांखला
11 फरवरी, 2012

जनरल वीके सिंह प्रकरण : सुखद पटाक्षेप (11 फरवरी, 2012)

थल सेना अध्यक्ष जनरल वीके सिंह की उम्र को लेकर विवाद का पटाक्षेप सुप्रीम कोर्ट ने ऐतिहासिक और सद्भावपूर्ण तरीके से कर दिया। विद्वान् न्यायाधीशों ने बहुत समझदारी से पहले तो सरकार को बैकफुट करते हुए 30 दिसम्बर के उस निर्णय को वापस करवाया जिसमें सरकार ने जनरल की शिकायत को नामंजूर किया गया था और फिर जनरल को कहा कि दोपहर दो बजे तक वे अपनी याचिका वापस ले लें अन्यथा दो बजे बाद न्यायालय अपना फैसला दे देगा। यह व्यवस्था देते हुए न्यायाधीशों ने जनरल से पूछा कि इससे पूर्व आपने अपनी जन्म तारीख को संघ लोक सेवा आयोग, इंडियन मिलिटरी अकादमी और नेशनल डिफेंस अकादमी के रिकार्ड में ठीक क्यों नहीं करवाया। न्यायालय ने उन्हें यह भी ध्यान दिलाया कि सन् 2008-09 में उनके द्वारा दिये पत्रों में उन्होंने अपना जन्म वर्ष 1950 स्वीकार किया है अतः वे अपने लिखे का सम्मान करें। दो बजे बाद जनरल वीके सिंह के वकील ने कोर्ट से अपनी याचिका वापस  ले ली।
भारतीय सेना में अनुशासन की शानदार परंपरा रही है। उसमें इस तरह का वाकिआ बेहद गंभीर और चिन्ताजनक था। देश की सुरक्षा के जिम्मेदारों को संवेदनशीलता दिखाते हुए बेहद सतर्कता के साथ इस तरह की बदमजगी के अवसर आने देने से बचना चाहिए। इसी तरह की चिन्ता अपने 17 जनवरी, 2012 के आलेख में भी जाहिर की थी जिसमें व्यवस्था और जनरल वीके सिंह, दोनों से अपेक्षाएं और अपनी चिन्ताएं इस तरह जाहिर की थी :--
‘....प्रार्थी के 10वीं पढ़े होने की स्थिति में जब जन्म दिनांक संबंधी सभी वैधानिक औपचारिकताओं में उस सर्टिफिकेट में दर्ज जन्म तारीख को प्रामाणिक माना जाता है तो जनरल वी के सिंह के मामले में यह असावधानी क्यों हुई? इस तरह की असावधानी की जानकारी यदि उन्हें सेवाकाल के शुरुआत में ही हो गई थी तो इसे तभी सुधरवा लेना चाहिए था... उनको इसकी जानकारी अब हुई हो-यदि ऐसा है तो अंग्रेजी कहावत के अनुसार वे सज्जन की तरह आये तो सज्जन की ही तरह विदा हो लेते।’
इस प्रकरण में सुप्रीम कोर्ट के कल के हस्तक्षेप की रोशनी में पाठक उक्त पंक्तियों को दुबारा पढ़ लें, बस इतना ही आग्रह है।
-- दीपचंद सांखला
11 फरवरी, 2012

कांग्रेस : संगठन अध्यक्षी और शहर राजनीति (10 फरवरी, 2012)

अंदरूनी शहर के पाटों और राजनीति के ठियौं पर चुनावी चहक शुरू हो गई है, इन पाटों और ठियों पर सभी तरह की बातें कभी ठसकाई के साथ तो कभी गारंटी के साथ होती हैं। कभी यह बातें हलके-फुलके अंदाज में तो कभी दिखावटी गर्मा-गर्मी के साथ भी। कुछ बातेरी ऐसे भी होते हैं जो एक ही विषय के कभी पक्ष में बात करते सुनाई देते हैं तो थोड़ी देर बाद ही खुद अपने को ठीक उलटा भी साध लेते हैं। हां, पाटों पर होने वाली बातचीत से राजनीति के ठियौं पर होने वाली चर्चाओं की स्टाइल कुछ भिन्न जरूर होती है।
पिछले एक अरसे से पाटों पर, ठियौं पर, स्थानीय और सूबाई अखबारों में भी घूम-फिर कर एक चर्चा बारंबार होने लगी है, कांग्रेस के शहर और देहात अध्यक्षों की नियुक्ति की। पहले इसके साथ न्यास अध्यक्ष की भी चर्चा होती थी। लेकिन राजनीति पर होने वाली ज्यादा चर्चाएं होती इस डेढ़ मुद्दे पर ही है, दो इसलिए नहीं कहा कि शहर की चर्चाओं में देहात का मुद्दा हाशिये पर रहता है। हालांकि बातों के पेटे में अगले चुनाव में पार्टियों की टिकटें किनको मिलेंगी, किसकी कितनी लपेट और कहां तक पहुंच है आदि-आदि जारी रहती है। यूं तो ज्यादातर बातें कांग्रेस और भाजपा की ही होती है लेकिन शहर में कमोबेश सक्रिय सभी पार्टियों के पुट-संपुट भी लगते रहते हैं।
राजस्थान पत्रिका ने आज फिर शहर देहात को लेकर एक ‘आइटम’ लगाया है, जिसकी उम्मीद फरवरी लगते ही होने लगे थी कि कहीं कोई ऐसा आइटम आयेगा। क्योंकि कांग्रेस के सूबाई अध्यक्ष जनवरी मध्य की अपनी पिछली बीकानेर यात्रा में कह गये थे कि इस माह के अंत तक दोनों अध्यक्षों की घोषणा हो जाएगी। होती कैसे? दोनों ही अखाड़ों में जोड़ के पहलवान जो उतरे हुए हैं, शहर में कल्ला बंधु और भानीभाई तो देहात में वीरेन्द्र बेनीवाल और रामेश्वर डूडी। डिस्टिल्ड वॉटर भानीभाई अन्य कई कलर्स के साथ अपना रंग दिखा रहे हैं। कुश्ती जब जोड़ के दो के बीच होती है तो छूटती रेफरी की सीटी पर ही है। लेकिन इस राजनीतिक कुश्ती में रेफरी की तो छोड़िये गुरू भी कुछ नहीं कर पा रहे हैं। पत्रिका में जो नाम आये हैं, वही नाम लम्बे समय से चल रहे हैं। हां, कभी कोई नाम बाहर होता है तो कभी वापस सूची में लौट आता है।
लेकिन यह जो नाम हैं उनमें घटत-बढ़त उस हिसाब से नहीं आई है जिस हिसाब से परिसीमन के बाद सीटों के बदले जोगराफिया और जातीय समीकरणों के बाद आनी चाहिए। इसे नजरअंदाज किया जा रहा है। अपने इस देश की राजनीति में अधिकांश जाति ही तय करती है। परिसीमन के बाद देहात में मोटा-मोट जो गणित चल रहा है वह तो ठीक-ठाक है। लेकिन शहर के गणित को दोनों ही मुख्य पार्टियों द्वारा न समझना उस कबूतर के मानिन्द है जिसके सामने अचानक बिल्ली आ गई हो, ऐसी स्थिति में कबूतर का यह सोचकर आंखें बंद कर लेना कि बिल्ली मुझे नहीं देख पायेगी तो मैं बच जाऊंगा, कबूतर की नासमझी तो समझ में आती है लेकिन राजनीति में अपने को घाघ मानने वाले जो आंखें बंद किए हैं, क्या वे इन नये बनते जातीय समीकरणों से बच पाएंगे?
शहर अध्यक्ष के लिए पत्रिका में आये कुल आठ में से छः नाम उच्च कही जाने वाली एक ही जाति से हैं बाकी एक अल्पसंख्यक और एक ओबीसी से है। न्यास में अध्यक्ष अल्पसंख्यक, महापौर ब्राह्मण के रहते ब्राह्मण बीडी कल्ला की पश्चिम सीट से दावेदारी तभी व्यावहारिक मानी जाएगी जब शहर कांग्रेस अध्यक्ष ओबीसी का या दलित हो। पाटों की बातें और ठियौं की चर्चाओं के रंग बदलने जरूरी हैं अन्यथा वो समय आते देर नहीं लगेगी कि बोलने वालों के तो बोर ही नहीं बिकेंगे और नहीं बोलने वाले भूंगड़े बेच जायेंगे!
-- दीपचंद सांखला
10 फरवरी, 2012

बीकानेर : शहरी यातायात की बात (9 फरवरी, 2012)

अपने बीकानेर शहर के यातायात को लेकर कोई गंभीर नहीं है। बड़े-छोटे सभी राजनेता इतने आत्मविश्वासहीन लगते हैं कि एक दुपहिया वाहक बिना हेलमेट पकड़ा जाये और उसके पास किसी नेता का फोन नं. है तो वह सीधे ही उसे डॉयल करता है। हर पल वोट जुगाड़ु मानसिकता में रहने वाले ये नेता उसकी सुनते भी हैं और अपनी हैसियत के अनुसार हेकड़ी या निवेदन की भाषा में पुलिसवाले को कह कर एक वोट बन जाने की खुशफहमी में इजाफा भी कर लेते हैं।
इसी प्रकार व्यापारिक संगठनों के ये कर्णधार सिवाय व्यापारिक हितों के--उसमें भी उन छोटे-छोटे मुखर समूहों के हितों की बात बिना यह विचारे करते हैं कि उनके उस कदम से सीमित हित भी सचमुच सधेंगे या नहीं। वैसे आजकल छोटे व्यापारिक संघों से लेकर व्यापार उद्योग मण्डल तक सभी अहम के अखाड़े बने हुए हैं।
हम टीवी अखबार वाले भी ज्यादातर उपरोक्तों की बात पहुंचाने का ही काम कर पाते हैं। रही बात पुलिस और प्रशासनिक अधिकारियों की तो उनमें से ज्यादातर समय निकालु--यथास्थितिवादी ही आते हैं, यदि कोई नया आया कुछ उत्साह दिखाता भी है तो जनता के नुमाइंदों के टेलीफोनिक निर्देशों और ऊपर तक से आये मौखिक आदेशों को सुन वह चक्करघिन्नी हो जाता है। ऐसे में वह अधिकारी अपनी अगली पोस्टिंग तक सामान्य ड्यूटियां में ही समय निकालना उचित समझने लगता है।
महात्मा गांधी रोड, स्टेशन रोड के यातायात को सुचारू करने की एक कवायद कल घोषित होने से पहले एक पार्षद का विरोध मुखर हो गया। वैसे सादुल सर्किल से राजीव मार्ग तक की जो नयी यातायात व्यवस्था प्रशासन ने दी है, उसे न तो व्यावहारिक कहा जा सकता है और ना ही पार्षद के उस विरोध को जायज। सादुल सर्किल से रेलवे स्टेशन और कोटगेट के अंदर की ओर जाने वाले तिपहिया-चौपहिया वाहनों के लिए जो रास्ता तय किया है, उसके अनुसार यह वाहन पब्लिक पार्क में विश्नोई धर्मशाला के आगे से होते हुए--तुलसी सर्किल, मॉडर्न मार्केट, राजीव चौक, पुरानी मालगोदाम रोड, कोयला गली, सांखला फाटक, मटका गली होते हुए गोल कटला से रेलवे स्टेशन और राजीव मार्ग की ओर जायेंगे।
पब्लिक पार्क में वैसे भी यातायात का दबाव ज्यादा है और उसके मुख्यद्वार पर तो हमेशा बाधाओं के साथ ही ट्रैफिक गुजरता है, होना यह चाहिए था कि पब्लिक पार्क को तो कम से कम प्रदूषित यातायात से मुक्त रखा जाता। जब वकीलों की गली का विकल्प उपलब्ध है तो पब्लिक पार्क से ट्रैफिक गुजारना उचित नहीं जान पड़ता। पुरानी मालगोदाम रोड और कोयला गली जैसी ही चौड़ाई वकीलों की गली की भी है। उस मटका गली की चौड़ाई भी इन जितनी ही है जिसका विरोध एक पार्षद ने कल किया। ऐसे विरोध बढ़ते शहरी यातायात के लिए बेमानी हैं।
सांखला फाटक को कोयला गली स्थित तुलसी प्याऊ तक डबल बेरियर लगा कर रेलवे बढ़ा दे तो कोयला गली का ट्रैफिक स्टेशन रोड के ट्रैफिक को बिना बाधित किये मटका गली की ओर जा सकता है। इसके लिए जनप्रतिनिधियों और प्रशासन को साझा प्रयास करने होंगे। ऐसा करवाना असंभव नहीं है। कोटगेट के अन्दर-बाहर और तोलियासर भैरूं मंदिर के आस-पास के इलाकों को पार्किंग और टैक्सी स्टैण्ड से पूर्णतया मुक्त करना भी जरूरी है, इसके लिए आमजन के व्यापक हित में टैक्सी यूनियनों को पहल करनी चाहिए।
इस शहर के बारे में सोचने-विचारने का दावा करने वाले सभी से गुजारिश है कि रेल बायपास के लॉलीपोप को वो अब फेंक दें और पूर्व में बनी योजना के अनुसार सादुल सर्किल से राजीव मार्ग तक के एलिवेटेड रोड के साझा प्रयास पुनः और गंभीरता से शुरू करें। रेल फाटक, ट्रैफिक और प्रदूषण इन तीनों समस्याओं का समाधान इसी में है। अपने शहर के बहुत से लोग लुधियाना जाते रहते हैं, वहां भी ऐतिहासिक ग्रांड ट्रंक रोड शहर के बीच में आ गई थी, उसका समाधान भी उस जीटी रोड पर एलिवेटेड रोड बनाकर ही किया गया है। रही शहर से गुजरने वाली रेलवे लाइन की बात तो जब दिल्ली, गुवाहाटी जैसे शहरों में ही रेल लाइनें पुराने शहर के बीच से ही गुजरती हैं तो इसे हम बीकानेरी अपनी नाक का बाल क्यों बनाये बैठे हैं?
-- दीपचंद सांखला
9 फरवरी, 2012

Friday, November 23, 2018

आबादी को लेकर कुछ सामान्य बातें (8 फरवरी, 2012)

प्रत्येक व्यक्ति सामान्य है, जो अपने को विशिष्ट मानता है वो भी। क्योंकि विशिष्टों की भी एक श्रेणी होती है, विशिष्टों की उक्त श्रेणी में समाये लोग जब आपस की किसी धारणा पर बात करेंगे, तब वे यही कहेंगे कि ऐसा या ऐसा होना सामान्य है। कहने का भाव यही है कि सभी की अपनी एक दुनिया होती है, जैसे कुएं के मेढक की दुनिया उस कुएं के व्यास जितनी और तालाब के मेढक की उस तालाब के किनारों तक!
इसी तरह देश और दुनिया की आबादी का बढ़ना लगभग सभी के लिए सामान्य बात है। पर्यावरण या जनसंख्या विशेषज्ञ इस बढ़ोतरी को विस्फोटक बताने लगे हैं। जनसंख्या की इस विस्फोटक बढ़ोतरी पर टीवी-अखबारों में लेख, खबरें, आंकड़े और वार्ताएं अकसर आती रहती हैं। सामान्यतः सभी सामान्य लोगों के लिए यह लगभग हाइगोल होती हैं, यही इस समस्या की बड़ी समस्या है।
आज एक खबर है हांगकांग से। इसमें बताया गया चूंकि चीन में केवल एक संतान पैदा करने का नियम लागू है, इसलिए दूसरे बच्चे की आकांक्षी चीनी महिला प्रसूति प्रवास पर हांगकांग चली जाती हैं। लेकिन वे अब वहां जाने के बाद भी जुर्माने से नहीं बच पायेंगी। कहने को कहा जा सकता है बच्चे कुदरत की देन होते हैं इसलिए इस तरह के कानून नहीं होने चाहिए। बच्चों के जन्म को जब भगवान की कृपा, खुदा की नेमत या कुदरत की देन कहा गया तब बच्चों की मृत्युदर विकराल थी, नवजात बच्चों को ही नहीं प्रसूताओं को भी बचाने को सामान्य स्वास्थ्य व्यवस्था नहीं थी। पिछली एक-डेढ़ सदी में इस दुनिया ने स्वास्थ्य के क्षेत्र में जबरदस्त तरक्की की है। नवजातों की और बड़ों की असमय मृत्युदर में आश्चर्यजनक कमी आ रही है। मुश्किल यही है कि जिस आश्चर्यजनक ढंग से उक्त मृत्युदर में कमी आई उसी अनुपात में जन्मदर पर नियन्त्रण नहीं हो पा रहा है। परिणाम यह कि न केवल प्राकृतिक संसाधनों के समाप्त होते चले जाने के समाचार आते रहते हैं बल्कि मानव निर्मित सभी सुविधाओं और संसाधनों के लिए सभी जगह लाइनें लगी दिखाई देती हैं।
सामान्य तुलनाओं को भी घुड़दौड़ की तरह देखने वाला हमारा सामान्य मन गर्व के साथ यह कहने से भी नहीं चूकता कि आबादी के मामले में हमारा भारत दुनिया में अभी दूसरे नम्बर पर है और यह भी कि अगले कुछ दशकों में ही हम इसमें चीन को पछाड़ देंगे! क्या हमने कभी इसको बड़ी चिंता के रूप में भी लिया है कि आजादी के बाद से आज हमारे देश की आबादी दुगुनी से भी ज्यादा हो गई है? बढ़ती आबादी अगर प्रत्येक सामान्यजन की चिंता का कारण नहीं बनेंगी तो हमारी आगामी पीढ़ियां नहीं हमारे पोते-पड़पोते ही बढ़ती आबादी के दुष्परिणामों को भुगतेंगे! क्योंकि कुदरती और मानवीय दोनों ही साधन-संसाधन सीमित हैं। कानून सबकुछ नहीं कर सकता है यह भी हम सब की सामान्य धारणा है!
-- दीपचंद सांखला
8 फरवरी, 2012

उत्तर प्रदेश में खेवनहारों की खीज (7 फरवरी, 2012)

यूपी चुनाव की चार प्रमुख पार्टियों में से तीन के खेवणहार खीजने लगे हैं। कल बसपा की मायावती, कांग्रेस के राहुल गांधी और भाजपा की उमा भारती की खीज साफ-साफ सार्वजनिक हुईं। मतदान-पूर्व के आये सर्वेक्षणों ने ही शायद उन्हें निराश कर खीजने को विवश किया है। मायावती ने सभाओं में गड़बड़ी करने वाले विरोधियों को कुत्ता कहा तो उमा भारती ने चुनाव बाद के गठबंधनों को स्वीकार करने की बजाय सरयू नदी में डूबना पसंद किया। राहुल गांधी बालहठ में यह कह बैठे कि चाहे थप्पड़ मारो या जूता मैं यहां से जाने वाला नहीं। जिन्होंने भी टीवी में इन दृश्यों को देखा उनके अपने-अपने अनुभव और अपनी-अपनी प्रतिक्रियाएं थीं। हां, समाजवादी पार्टी के पिता-पुत्र, मुलायमसिंह और अखिलेश ठीक-ठाक आत्मविश्वास के साथ जरूर नजर आने लगे हैं।
-- दीपचंद सांखला
7 फरवरी, 2012