Thursday, November 24, 2016

इतना कुछ कर सकते हैं न्यास के नये अध्यक्ष महावीर रांका

जैसी कि सरकारों की फितरत बन चुकी है, राजनीतिक नियुक्तियां सरकार बनने के दो-दो, तीन-तीन वर्ष तक नहीं की जाती और जब की जाती है तो नियुक्त होने वाले के पास इतना समय ही नहीं बचता कि वह कुछ कर दिखाए। इतने में चुनाव आ लेते हैं, जनता सरकार पलट देती है और नयी सरकार इन राजनीतिक नियुक्तियों को रद्द कर देती है।
बड़ी और लम्बी ऊहा-पोह के बाद बीकानेर नगर विकास न्यास के अध्यक्ष के रूप में युवा भाजपा नेता महावीर रांका को सरकार ने नियुक्त कर दिया। इस नियुक्ति ने कम से कम उन आशंकाओं पर रोक लगा दी कि केवल धनबल के आधार पर कुछ बिल्डर और भू-माफिया बिना लम्बी पार्टी सेवा के इस नियुक्ति की फिराक में हैं। महावीर रांका व्यवसायी भले ही हों लेकिन न केवल लम्बे समय से पार्टी में हैं, बल्कि विभिन्न पदों पर लम्बी सेवाएं भी दे चुके हैं।
रांका चाहें तो कुछ आधारभूत काम करके अपने कार्यकाल को यादगार बना सकते हैं। अगले चुनावों में सरकार बदलती भी है तो इनके पास दो वर्ष से ज्यादा का समय है। अपनी नियुक्ति के बाद जैसा कि रांका ने कहा कि वे खेमेबन्दी से ऊपर उठकर सभी के सहयोग से काम करेंगे। ऐसी मंशा यदि सचमुच है तो उन्हें पार्टी में सभी गुटों को मान देने और इतना ही नहीं, जरूरत पड़े तो विपक्ष के प्रभावी नेताओं का सहयोग-सुझाव हासिल करने में संकोच नहीं करना चाहिए। रांका की नियुक्ति के बाद उनके लिए एक सकारात्मक बात जो सुनने को मिली वह यह कि यह पद उन्होंने धन बनाने की नीयत से तो हासिल नहीं ही किया हैऐसा सुनना आज की व्यावहारिक राजनीति में कम साख की बात नहीं है। नगर विकास न्यास के दफ्तर की जैसी भी साख है, माना यही जाता है कि नगर निगम के दफ्तर से तो बेहतर ही है।
अध्यक्ष के तुच्छ व्यक्तिगत स्वार्थ नहीं हो और आम जनता के लिए कुछ करने की सदिच्छा हो तो बहुत कुछ करने के रास्ते निकल आते हैं। उम्मीद करते हैं कि रांका चतुराई से उन सभी अबखाइयों को साध लेंगे जो कुछ कर गुजरने में बाधा बन सकती हैं।
महावीर रांका अपने कार्यकाल को यादगार बनाना चाहते हैं तो उन्हें कुछ ऐसे काम कर दिखाने चाहिए जिससे शहर कुछ राहत महसूस करे। सुन रहे हैं कि सूबे की मुखिया वसुंधरा राजे अपने इस कार्यकाल के तीन वर्ष पूर्ण होने पर अगले माह बीकानेर आ रही हैं। इस अवसर का विशेष लाभ उठाने की चतुराई दिखाने के वास्ते रांका को कुछ विशेष सक्रियता दिखानी होगी ताकि यह शहर तयशुदा से कुछ ज्यादा हासिल कर सके। इसके लिए वे निम्न सुझावों पर विशेष सक्रिय हो सकते हैं।
     शहर की सबसे बड़ी समस्या कोटगेट क्षेत्र में रेलफाटकों के चलते बार-बार बाधित होने वाले यातायात की है। इसके समाधान के लिए एलिवेटेड रोड पर शहर में एकराय बनने के बाद राज्य सरकार ने भी कुछ माह पूर्व इसे स्वीकार कर लिया और इस योजना के लिए धन की व्यवस्था भी केन्द्र सरकार ने कर दी थी। सुन रहे हैं कि परियोजना को अमलीजामा पहनाने की प्रक्रिया में अनावश्यक देरी हो रही है। यह काम न्यास को मिले या न मिले, न्यास अध्यक्ष रांका को यह कोशिश जरूर करनी चाहिए कि इसके शिलान्यास की रस्म भी मुख्यमंत्री के हाथों उनकी इसी यात्रा में अदा हो जाए।
     गंगाशहर रोड को जैन पब्लिक स्कूल से मोहता सराय तक जोडऩे वाली सड़क का कार्य पिछले लगभग चार वर्षों से अधर में लटका हुआ है। इसकी बाधाओं को व्यक्तिगत प्रयासों से दूर करवा कर, संभव हो तो इसका उद्घाटन और बीकानेर शहर एवं देहात भाजपा के इसी मार्ग पर बनने वाले पार्टी कार्यालय का शिलान्यास भी मुख्यमंत्री से इसी यात्रा में करवाया जा सकता है। शहर के अन्दरूनी भाग और मोहता सराय क्षेत्र को बीकानेर रेलवे स्टेशन और पीबीएम अस्पताल आदि से जोडऩे वाले इस मार्ग की बहुत जरूरत है।
     चौखूंटी रेल ओवरब्रिज के दोनों ओर की चारों सर्विस रोड बल्कि निगम भण्डार की ओर की दोनों सर्विस रोडें आवागमन योग्य नहीं हैं, इन्हें दुरुस्त करवाना जरूरी है। निगम भण्डार की ओर भण्डार की दीवार को तो पीछे करवाना ही है, कुछ मकानों के कुछेक हिस्सों का अधिग्रहण भी किया जाना है। यह काम इसलिए भी जरूरी है कि इस पुलिया के दोनों ओर कई समाजों के शमशान गृह हैं जिनमें से अधिकांश तक जाने के लिए पुलिया के नीचे से होकर ही जाना होता है। ये काम मूल परियोजना का ही हिस्सा थे लेकिन लगभग तीन वर्ष होने को हैं और वहां के बाशिन्दों को उनकी नियति पर ही छोड़ दिया गया है।
     भुट्टों के चौराहे से लालगढ़ रेलवे स्टेशन की ओर जाने वाले मार्ग को यातायात के लिए सुगम बनाने के वास्ते पूर्व न्यास अध्यक्ष मकसूद अहमद के समय योजना बनी थी। मकसूद अहमद की नाड़ कमजोर थी जिसके चलते ना केवल पूर्व कलक्टर और पदेन न्यास अध्यक्ष पृथ्वीराज के समय की जैन पब्लिक स्कूल-मोहता सराय वाली उक्त उल्लेखित सड़क को ठंडे बस्ते में डाल दिया गया बल्कि खुद उनके समय बनी भुट्टों के चौराहे होकर लालगढ़ स्टेशन को जाने वाली सड़क के दुरुस्तीकरण की योजना पर भी मकसूद अहमद को सांप सूंघ गया था। पूर्व योजना अनुसार इस सड़क की चौड़ाई सौ फीट करने पर एतराज कुछ ज्यादा है तो अस्सी फीट पर मुहल्ले वालों को इस बिना पर राजी किया जा सकता है कि इस मार्ग के सुचारु होने से उसके इर्द-गिर्द वाले भवनों-जमीनों की वकत और कीमत कई गुना बढ़ जायेगी। यह मार्ग सुगम होता है तो बीकानेर के मध्य और पश्चिम के बाशिन्दों के लिए लालगढ़ रेलवे स्टेशन पहुंचने का मार्ग लगभग चार किलोमीटर कम हो जाएगा।
     रानी बाजार क्षेत्र में बंगाली मन्दिर को रानी बाजार पुलिया से जोडऩे वाली सड़क के अतिक्रमण हटाने से यह मार्ग सुगम हो जायेगा और रानी बाजार रेलवे क्रॉसिंग की ओर जाने वाले मुख्य मार्ग पर यातायात का भार भी कम होगा। इतना ही नहीं, गोगागेट से रानी बाजार पुलिया की ओर जाने वाले यातायात के समय की बचत भी होगी। वैसे यहां के संस्कृत महाविद्यालय और शर्मा कॉलोनी क्षेत्र को देखने की जरूरत विशेष तौर से है। सर्वाधिक चौड़े मार्गों वाली इस रियासती कॉलोनी के बाशिन्देे अतिक्रमण करने की ऐसी होड़ में लगे हैं कि अपने घर के आगे की सड़क को ज्यादा संकरा कौन करता है और न्यास व निगम दोनों ही इस ओर से आंखें मूंदे हैं।
     गंगाशहर क्षेत्र में बहुत व्यस्थित बसी नई लाइन में अतिक्रमण लगातार हो रहे हैं। खासकर बड़े-बड़े चौकों का विभिन्न तरीकों से अतिक्रमण कर सौन्दर्य नष्ट किया जा रहा है, उन्हें हटाना जरूरी है। वहीं गंगाशहर के मुख्य चौराहे से गुजरना बहुत टेढ़ा काम है। यहां के सब्जी बाजार और टैक्सी स्टेण्ड को पास ही के गांधी चौक और इन्दिरा चौक में स्थानान्तरित किया जा सकता है। इसी तरह पुरानी लाइन, सुजानदेसर, किसमीदेसर और भीनासर में बेतरतीब चौक जैसे भी हैं उनकी पैमाइश कर रिकार्ड बनाना इसलिए जरूरी है कि वहां नए अतिक्रमण ना हो सकें, जो अतिक्रमण हैं उन्हें बिना लिहाज हटाया जाना चाहिए।
     बीकानेर शहर के बीचों बीच आई रेल लाइन को आम शहरी बहुत भुगतता है। इसके लिए महात्मा गांधी रोड पर बनने वाले एलिवेटेड रोड के अलावा भी बहुत कुछ करना जरूरी है। इसमें रानी बाजार रेलवे फाटक पर अण्डरब्रिज बनाने की लम्बे समय से चली आ रही मांग वहां के बाशिन्दों के प्रयासों से कुछ सिरे चढ़ी है। हालांकि यह योजना सार्वजनिक निर्माण विभाग के जिम्मे आनी है लेकिन नवनियुक्त न्यास अध्यक्ष रांका को इसके क्रियान्वयन में रुचि दिखानी चाहिए। अलावा इसके रांका को रेलवे से सामंजस्य बिठा कर अपने अध्यक्षीय कार्यकाल में ही उन्हें शहरी क्षेत्र में चार अण्डरब्रिज बनाने का बीड़ा उठाना चाहिए। ये अण्डरब्रिज अब कोई बड़ी लागत नहीं खाते हैं और रंग चोखा इसलिए देंगे कि रेलवे लाइन के दोनों ओर रहने वाले लोग उन्हें लम्बे समय तक याद रखेंगे। ये चार अण्डरब्रिज निम्न स्थानों पर बनाए जा सकते हैं 1. लालगढ़ रेलवे हॉस्पिटल के सामने 2. चौखूंटी फाटक के पास लालगढ़ स्टेशन की ओर 3. सुभाष रोड से बड़ी कर्बला की ओर 4. सांखला फाटक पर कोयला गली की ओर केवल पैदल और दुपहिया वाहनों के लिए बनाया जा सकता है। एलिवेटेड रोड के बावजूद यह अण्डर ब्रिज रेल फाटक बन्द होने पर दोनों ओर के बाजार में खरीददारों के आवागम को सुचारु रख सकेगा।
इसी तरह, भले ही काम शुरू ना होदो रेल ओवरब्रिज की योजनाएं बनाकर बजट के लिए न्यास को केन्द्र और राज्य सरकारों को भिजवानी चाहिए जिसमें पहला रेल ओवरब्रिज पवनपुरी शनिश्चर मन्दिर से रानी बाजार-केजी कॉम्पलेक्स तक और दूसरा नागनेची-मन्दिर मरुधर कॉलोनी से रानीबाजार इण्डस्ट्रियल एरिया तक। न्यास अध्यक्ष को ये भी पड़ताल करनी चाहिए कि रामपुरा-लालगढ़ रेलवे क्रॉसिंग पर घोषित रेल ओवरब्रिज कहां अटका है।
     'सरकार आपके द्वार' के समय मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे ने गजनेर पैलेस में कुछ संपादकों-पत्रकारों से शहरी विकास के लिए सुझाव चाहे थे। तब अन्य सुझावों के साथ सूरसागर को लेकर दिए गये एक सुझाव पर मुख्यमंत्री सहमत हुईं और बातचीत में उन्हें समझ आ गया था कि सूरसागर को कृत्रिम साधनों से भरे रखना बेहद मुश्किल है और इन आठ वर्षों में सभी प्रयासों के बावजूद इसे पूरा ना भर पाने से इस बात की पुष्टि भी होती है। इसके लिए सुझाव था कि इसे डेजर्ट पार्क (मरुद्यान) के रूप में विकसित किया जाए जिसमें थार रेगिस्तान के पेड़-पौधे और अन्य वनस्पतियों के साथ-साथ वन विभाग जिन जीव-जन्तुओं की छूट दे, उन्हें रखा जाए। लेकिन यह सुझाव उस समय मुख्यमंत्री से अधिकारियों तक पहुंचते-पहुंचते गड़बड़ा गया। डेजर्ट पार्क की घोषणा पहले तो सूरसागर से छिटक कर हुई और फिर कहीं फाइलों में दफन हो गई। इस डेजर्ट पार्क की रूपरेखा पर 'विनायकÓ में पहले भी विस्तार से लिखा जा चुका है। न्यास अध्यक्ष इच्छा शक्ति बनाएं तो नगर विकास न्यास ना केवल इस सफेद हाथी से मुक्त होगा बल्कि डेजर्ट पार्क बनने पर देशी-विदेशी पर्यटकों से अलग-अलग दरों पर मिलने वाले प्रवेश शुल्क के माध्यम से आय का साधन भी बना सकेगा। आय का साधन नहीं भी बने तो इसके रख-रखाव के खर्च जितना तो न्यास प्रवेश शुल्क से अर्जित कर ही लेगा।
     न्यास और नगर निगम भी, जो नई कॉलोनियां काट रहे हैं उनमें कम-से-कम चार आस्था स्थलों और एक विद्युत निगम तथा एक नगर निगम के लिए भूखण्डों का प्रावधान रखा जाना चाहिए। आस्था स्थल का भूखण्ड एक समुदाय के लिए एक ही हो तथा उसे पंजीकृत संचालन ट्रस्ट को ही आरक्षित दर पर आवंटित किया जा सकता है। आवंटन की इसी तरह की व्यवस्था सरकारी उपक्रमों यथा विद्युत निगम और नगम निगम के लिए भी रखी जा सकती है। कॉलोनी यदि ज्यादा बड़ी है तो आस्था स्थलों के लिए भू-खण्डों की संख्या दुगुनी की जा सकती है। ऐसे भूखण्डों का आवंटन ना हो तो उन्हें कॉलोनी विकसित होने तक खाली रखा जाना चाहिए। ऐसा कायदा वैसे तो राज्य सरकार को तय करना चाहिए लेकिन जब तक ऐसा नहीं होता है तब तक न्यास और निगम को स्थानीय तौर पर ऐसे प्रावधान रखने चाहिए। ऐसा होने पर पार्कों और खाली स्थानों पर आस्था स्थलों के नाम पर कब्जे होने की प्रवृत्ति पर अंकुश लगेगा।
इसी तरह न्यास की बसायी कॉलोनियों में हो रहे किसी भी तरह के अतिक्रमणों को समय रहते चिह्नित करवा हटाना जरूरी है।
     न्यास और नगर निगम को अपने-अपने क्षेत्र के रियायशी भूखण्डों पर चलने वाली व्यावसायिक गतिविधियों को सूचीबद्ध करना चाहिए। बाद इसके जिन भूखण्डों का नियमानुसार भू-उपयोग परिवर्तन किया जा सकता है उनको वसूली के नोटिस दिये जाने चाहिए और जिनका व्यावसायिक भू-उपयोग परिवर्तन नहीं हो सकता वहां व्यावसायिक गतिविधियां बन्द करवाई जानी चाहिए। ऐसे प्रकरणों को उनकी बकाया रकम के साथ सूचीबद्ध करवाकर न्यास और निगम कार्यालयों में होर्डिंग लगाकर साया किया जाना चाहिए। ऐसा इसलिए कि न्यास और निगम को अपने बकाया का भान तो रहेयह भान रहेगा तभी वसूली का मानस भी बनेगा। नगर निगम और नगर विकास न्यास, दोनों के मुखिया फिलहाल वणिक समुदाय से हैं इसलिए उम्मीद की जाती है कि वे लेन-देन के तलपट को तो कम-से-कम दुरुस्त करवाएं, वसूली चाहे पूरी फिलहाल ना भी हो।
     एक व्यवस्था संबंधी काम न्यास अध्यक्ष रांका को जरूर करना चाहिए जिसे पहले किसी अध्यक्ष ने करना जरूरी नहीं समझा। न्यास के क्षेत्र में छोटे-मोटे बहुत से प्लॉट और न्यास की कई जमीनें छितराई पड़ी हैं, जिनमें कुछ लावारिस हैं, कुछ पर कब्जें हैं और कुछ कब्जों के प्रकरण न्यायालय के अधीन हैं। ऐसे सभी भूखण्डों को उक्त अनुसार तीन श्रेणियों में ही सूचीबद्ध करवाकर श्वेत पत्र जारी करें और बताएं कि न्यास की कितने मूल्यों की ये जमीनें लावारिस, कब्जों और न्यायिक विवादों में हैं।  इस सूची को स्थाई तौर पर न्यास कार्यालय में होर्डिंग के माध्यम से प्रदर्शित भी किया जाना चाहिए। संभव हो तो ऐसे भूखण्डों को नीलाम किया जाए या उन पर विभिन्न जन सुविधा केन्द्र यथा शौचालय, मूत्रालय, कचरा कलेक्शन सेन्टर, शमशान गृह आदि-आदि बनवाएं जा सकते हैं। महापौर चाहें तो ऐसी ही व्यवस्था निगम की जमीनों के लिए भी कर सकते हैं।
     एक महती काम और किया जा सकता है जिसमें से ना केवल पेड़ बचेंगे बल्कि पर्यावरण, दूषित होने से भी बचेगा। न्यास चाहे तो पहली चार में परदेशियों की बगीची और आइजीएनपी कॉलोनी के पास स्थित श्मशान गृह के प्रबंधकों को सहयोग कर विद्युत शवदाह गृह स्थापित करवा सकता है। ऐसे कार्य भी कम महत्त्वपूर्ण नहीं हैं।
     फिलहाल अन्त में इतना ही कि मुख्यमंत्री की यात्रा से पूर्व न्यास अध्यक्ष को इसे पुख्ता कर लेना चाहिए कि रवीन्द्र रंगमंच इस स्थिति में तो आ ही जाए कि उसका उद्घाटन हो सके और यह भी पुख्ता कर लें कि इसी परिसर में बनने वाले मुक्ताकाशी रंगमंच का निर्माण तत्परता से हो।
उक्त सब कामों के लिए न्यास अध्यक्ष महावीर रांका को न केवल अपनी पार्टी के बल्कि विपक्षी पार्टियों के दिग्गजों और प्रभावशाली नेताओं के साथ-साथ संबंधित विभिन्न विभागों के अधिकारियों से सतत सामंजस्य और मेल मुलाकात रखनी होगी। जोधपुर विकास का रहस्य अशोक गहलोत की राजनीतिक शुरुआत के समय से ऐसी ही कुव्वत में छिपा है। जोधपुर के विकास के लिए वे न विपक्षियों से जाकर मिलने में संकोच करते हैं और न ही संबंधित अधिकारियों से मेल-मुलाकात में और यह भी कि जरूरत समझने पर उन्हें भोजन (डिनर डिप्लोमेसी) पर भी बुलाते रहे हैं। उम्मीद करते हैं महावीर रांका इसी तरह प्रयत्नशील रह कर शहर के विकास का नया मार्ग प्रशस्त करेंगे।

24 नवम्बर, 2016

Thursday, November 17, 2016

संवेदना में पड़ते आइठांण चिंताजनक

नोटबंदी के अनाड़ी क्रियान्वयन के इस दौर में कुछ संवेदनहीनता भी दिखने लगी है। आम आदमी कुछ करता है तो नजरअंदाज किया जा सकता है लेकिन चुने हुए जनप्रतिनिधि और मीडिया के दिग्गज अखबार तथा चैनल ऐसी दुस्साहसिकता पर मसखरी करे तो अखरता है। ऐसा चिन्ताजनक भी इसीलिए लगता है कि फिर उम्मीदें किन से की जाए।
हजार और पांच सौ की नोटबंदी के बाद जैसे ही 2000 के नये नोट जारी हुए वैसे ही किसी सिरफिरे ने एक पुराने नोट पर लिखे वाक्य की सनद के साथ ठीक वैसे ही 'सोनम गुप्ता बेवफा है' इस नये नोट पर भी लिखा और दोनों नोटों को साथ रख कर फोटो खींच सोशल साइट्स पर डाल दिया। जिसने भी यह निन्दनीय कृत्य किया, उसने यही जाहिर किया कि किसी सोनम गुप्ता से वह तिलमिलाया हुआ है, उसके इनकार से उसकी मर्दवादी हेकड़ी को चोट लगी है। लेकिन इस पोस्ट को साझा करने और सुर्खियां देने वालों को क्या कहेंगे? ऐसे सभी लोग संवेदन शून्य हैं जिन्हें यह भान ही नहीं कि देश में कितनी सोनम गुप्ता होंगी और उनमें से कुछेक को जीवन में कभी ऐसे सिरफिरों से सामना भी करना पड़ा होगा। अगर आपके परिजनों और प्रियजनों में कोई सोनम गुप्ता नहीं है तो क्या इस नाम की महिलाओं और युवतियों का मजाक सरेआम बनाने का हक हासिल हो गया? अनजाने ही सही, इस तरह से किसी अनजान को उत्पीडि़त करने का हौसला उसी समाज में हासिल होता है जो संवेदनहीन होने के कगार पर खड़ा है। मनीषी डॉ. छगन मोहता के हवाले से बात करें तो ऐसे लोगों की संवेदनाओं में आइठांण (गट्टे : कुहनियों और टखनों पर सख्त हुआ चमड़ी का वह हिस्सा जिस पर सूई चुभोने पर भी एहसास नहीं होता) पडऩे लगे हैं।
ऐसी गैर जिम्मेदाराना हरकत के दोषी महाराष्ट्र से कांग्रेसी विधायक और वहां के नेता प्रतिपक्ष आरके विखे पाटिल अकेले ही नहीं हैं। उनके इस बयान को सुर्खियां देने वाले मीडिया के विभिन्न माध्यम भी हैं। इतना ही नहीं, ऐसे कई अखबार, चैनल भी गैर जिम्मेदार हैं जो सोशल साइट्स पर सक्रिय ऐसे संवेदनहीन लोगों की 'सोनम गुप्ता बेवफा है' से संबंधित पोस्टें प्रकाशित-प्रसारित कर रहे हैं। ऐसा करके ये लोग और अन्य माध्यम अपनी उस पुरुष मानसिकता को ही जाहिर कर रहे हैं जिसने सदियों से मान रखा है कि स्त्री को न तो ना करने का अधिकार है और ना ही उसे अपना मन और पसंद बदलने का हक है।
कम से कम मीडिया को तो ऐसे सिरफिरों को सुर्खियां देने से बाज आना चाहिए क्योंकि थोड़ी बहुत उम्मीदें समाज को जिन विवेकशीलों से है—वे मीडिया और न्यायालय ही हैं।

17 नवम्बर, 2016

Thursday, November 10, 2016

नोटबंदी : पाँच सौ और हजार के नोट खारिज करने से असल प्रभावित सामान्यजन ही

'मैं धारक को एक हजार/पांच सौ रुपये अदा करने का वचन देता हूं।' कागज के एक टुकड़े पर भारतीय रिजर्व बैंक के गर्वनर के हस्ताक्षरों के साथ छपी यह वचनबद्धता ही उसकी कीमत तय करती है। 8 नवम्बर, 2016 की रात भारत सरकार ने एक झटके में ही एक हजार और पांच के सौ नोटों को तत्काल प्रभाव से खारिज कर दिया। बिना यह समझे कि उनके इस कदम से देश की आबादी का एक बड़ा और अनुमानत: 35 से 40 प्रतिशत हिस्सा बिना किसी अपराध के अपने को बमचक ठगा-सा महसूस करने लगा, केवल इसलिए कि देश की आबादी का अधिकतम 5 प्रतिशत हिस्सा है जो अवैध धन बनाने और उससे मौज मस्ती-अय्याशी करने और जमा बढ़ाने में लिप्त है। सभी राजनीति दलों के अधिकांश राजनेता इस गोरख धंधे में न केवल शामिल हैं बल्कि इन करतूतों के लिए अनुकूलता भी बनाते रहते हैं।
यह सब लिखने का आशय कृपया यह कतई न निकालें कि यह आलेख अवैध धन की पैरवी करने के लिए लिखा जा रहा है। अवैध धन मानवीय समाज के लिए कोढ़ का काम करता है जिसे जड़ से समाप्त किए बिना आमजन न सुकून से जीवन-बसर कर सकता है और ना सम्मान से। और इस अवैध सम्पत्ति को समाप्त करने के लिए जो भी कानूनी कदम उठाए जा सकते हैं उठाए जाने चाहिए। लेकिन एक लोक कल्याणकारी शासक से उम्मीद यह की जाती है कि ऐसे कदम ऐसी सावधानी से रखें जिससे वह अवाम पीडि़त ना हो जो मासूम है या कहें जो उस अपराध में निर्दोष है।
यह बात फिलहाल रहने देते हैं कि देश और प्रदेशों में शासन करने वाले और सदनों में उनके पक्ष विपक्ष में बैठे अधिकांश राजनेता अपनी हैसियत को बिना अवैध धन के नहीं पा सके हैं। और यह भी कि वह सब छोटे-बड़े सरकारी कारकून जो ऊपर की कमाई में लगे हैं और जो कूत-अकूत चल-अचल संपत्ति के मालिक बने बैठे हैं और कई बनने को लगे हुए हैं। फिर भी किसी देश का शासन कम से कम परेशानियों के साथ किसी को चलाना होता है तो उसे अपनी फितरत से अलग कुछ करना उसकी मजबूरी हो जाता है और इसी मजबूरी के चलते अवैध धन पर कुछ नियन्त्रण के वास्ते अर्थशास्त्र के विमुद्रीकरण के उपाय को कोई भी शासन अपना सकता है, भारतीय और वैश्विक परिदृश्य में बात करें तो पहले भी इस उपाय को अपनाया जाता रहा है। भारत के संदर्भ में बात करें तो अर्थशास्त्रीय राय यह है कि पांच सौ और हजार के नोटों को बन्द करने से मात्र 3 प्रतिशत ही कालाधन इसकी जद में आ पायेगा।  इसीलिए ऐसे उपाय लक्ष्य से बहुत कम कारगर होते देखे गये हैं। क्योंकि अवैध धन को रखने का एकमात्र उपाय नोटों के रूप में रखना ही नहीं है, उसका बड़ा हिस्सा, जमीनों, भवनों, आभूषणों, सोने-चांदी और शेयरों के रूप में जमा किया जाता रहा है। भारत में जब 1978 में इसी तरह बड़े नोटों को चलन से बाहर किया गया, वर्तमान वित्तमंत्री के कहे को ही उद्धृत करें तो तब बड़े नोटों की देश की कुल अर्थव्यवस्था में मात्र 2 प्रतिशत ही हिस्सेदारी थी लेकिन अब खारिज किए बड़े नोटों की वह हिस्सेदारी 86 प्रतिशत हो गयी है। मतलब तब बड़े नोट 'बड़े' लोगों के पास ही थे लेकिन अब वह उस प्रत्येक सामान्य जन के रोजमर्रा के लेनदेन और एडे-मौके के लिए उनकी घरेलु बचत का हिस्सा है जो तथाकथित गरीबी रेखा के आस-पास या ठीक-ठाक जीवन-बसर कर लेते हैं।
अवैध धन के बड़े ठिकाने अवैध व्यापार करने वाले, रिश्वत लेने वाले सरकारी अधिकारी-कर्मचारी और ऐसे लगभग सभी राजनेताओं को शामिल मान लें जो प्रभावी हैं और आएं-बाएं से वसूली में लगे रहते हैं, ये सभी मिला कर कुल आबादी का 5 प्रतिशत भी नहीं होंगे, मात्र इन्हें सबक सिखाने को की गई बड़े नोट बन्द करने की इस कवायद में सामान्यजन कितने प्रभावित होंगे, थोड़ी इसकी भी पड़ताल कर लेनी चाहिए। अवैध धन अर्जित करने वाले सभी लोगों की संपत्ति में नकद नोटों का हिस्सा 25-30 प्रतिशत से ज्यादा नहीं होगा, इनके अवैध धन का मोटा हिस्सा तो जमीनें-भवन, सोना-जवाहरात और शेयरों आदि में निवेश के रूप में होगा। ऐसी अवैध सम्पत्ति पर सरकार की इस कवायद से कोई असर नहीं होना है, ऐसों की पूरी नकद जमा पूंजी भी यदि रद्दी हो जाती है तो ऐसे लोग इस स्थिति में तो रहेंगे ही कि इस प्रशासनिक पोल में उसे पुन: अर्जित कर सकें। शासन और सरकार के टैक्स उगाई महकमों की हरामखोरी-और निकम्मेपन का ही नतीजा है कि अर्थव्यवस्था में अवैध धन पनपता है। लेकिन इसका खमियाजा उस आम जनता को भुगतना पड़ता है जो देश की कुल आबादी का एक बड़ा हिस्सा यानी जो लगभग 35 से 40 प्रतिशत हो सकता है, यह वर्ग जो बैंकिग प्रणाली के साथ सामान्यतय: अपने को सहज नहीं पाता और अपनी छोटी बचतों को या तो सामान्यत: अपने पास ही रखता है या उसे अनाधिकृत ठिकानों पर रखना उचित समझता है, इस वर्ग के ऐसे सभी लोग अचानक आई इस आर्थिक आपदा के शिकार हो गए हैं। इनमें वह भारतीय पत्नियां भी शामिल हैं जो जीवन के बड़े हिस्से को व्यक्तिगत अभावों में जीकर अपनी गोपनीय बचत इसलिए सहज कर रखती हैं कि कभी परिवार पर कोई आर्थिक संकट आ जाए तो कम से कम वह अन्नपूर्णा की अपनी जिम्मेदारी को तो निष्ठा से निभा सके।
अलावा इसके अभी शादियों का मौसम है, लोग-बागों ने विवाह के खर्चों के लिए अपनी औकात अनुसार नकद रकम घर में रख छोड़ी है, इस 8 तारीख को नोट खारिज करने का जो वज्रपात हुआ उसमें वह अपने को ठगा सा महसूस कर रहा है। भारत के असंगठित रोजगार क्षेत्र में अधिकांश मासिक वेतन सात तारीख को दिया जाता। नकद वेतन की रकमों में अधिकांश पांच सौ और हजार के नोट होते हैं, कोई दिहाड़ी मजदूर कुछ कमाकर सप्ताह का भुगतान लाया होगा तो वह यदि ऐसे ही बड़े नोटों में हो, दो पांच-दस हजार रुपये बड़े नोटों की शक्ल में लेकर यात्रा पर निकले लोग, परिजनों की हारी-बीमारी के इलाज लिए अपने घर-बार से दूर आ गये लोग, ऐसे लोग सुविधा के लिए बड़े नोट लेकर ही घर छोड़ते हैं, इन सभी लोगों के साथ सरकार ने अपने इस फैसले से क्या कर दिया, इसका अंदाजा है किसी को। घर में छिपाकर कुछ रकम रखने वाली स्त्रियों की साख दावं पर लगवा दी, गरीब के पास बड़े नोटों में रकम है लेकिन वह आटा तक नहीं खरीद सकता। यात्रा में गया व्यक्ति ना गंतव्य तक लौटा सकता है और ना ही पेट की आग बुझा सकता है। यात्रा करने वालों में 60 से 80 प्रतिशत तक लोग बिना रिजर्वेशन के तत्समय टिकट लेकर ही यात्रा करते हैं। पैसा है लेकिन दवाई नहीं खरीद सकते। बिना इन सब पर विचार किए सरकार ने अपनी 'सनक' में यह फैसले कैसे ले लिया? सरकार को कम से कम सामान्य और जरूरी खरीद-फरोख्त के लिए एक महीने का समय तो देना ही चाहिए था, चाहे इस समय का दुरुपयोग अवैध धन वाले लोग थोड़ा-बहुत भले ही कर लेते। ऐसे चन्द लोगों को सबक देने भर को आबादी के एक बड़े हिस्से को सरकार ने किस विकट अवस्था मैं पहुंचा दिया, ऐसे समय का फायदा उठाकर कुछ लोग नोटों की कालाबाजारी में लग औने-पौने दामों में नोट लेने लगे हैं। बावजूद इस सबके अवैध धन उपार्जन में लगे लोगों का कुछ बड़ा बिगाड़ नहीं होगा।
यह सारी कही के बावजूद जिस देश की आबादी का लगभग चालीस प्रतिशत हिस्सा वैसा है जो ऐसे आदेशों से पूरी तरह अप्रभावित है क्योंकि उनके पास ना तो रहने को छत है ना दूसरे दिन शाम के लिए तय कि वे क्या खाएंगे और अपने बच्चों को क्या खिलाएंगे, बावजूद इसके आबादी का वह पांच-दस प्रतिशत हिस्सा सरकार के इस कदम से  इसलिए खुश और सहज है, उनका तो कुछ नहीं बिगड़ा लेकिन अवैध धन-पिशाच संकट में आ गये। ऐसे लोगों के लिए यही कहा जा सकता है कि उन्होंने अपनी मानसिकता कुएं के मेंढक सी बना ली है इसलिए वे बाहर का असल देख ही नहीं पाते या कहें ऐसे लोगों की नजर आबादी के असल पीड़ितों और प्रभावित पर पड़ती ही नहीं है।
सरकार से यह उम्मीद की जाती है कि ऐसे फैसलों की क्रियान्विति ऐसे सनकी तरीकों से नहीं करें। ये सरकारें वोटों के जिस बड़े हिस्से से चुनकर आई हैं, उनमें यदि लोक कल्याण की भावना नहीं भी है तो कम कम से कम यह ख्याल तो रखें कि आबादी का बड़ा हिस्सा इस तरह पीड़ित तो न हो।
                                                         --दीपचंद सांखला
10 नवम्बर, 2016

Thursday, October 27, 2016

अशोक गहलोत के लिए बड़े निर्णय का समय यही है

वर्ष 2011 के पूर्वाद्र्ध में केन्द्र की संप्रग सरकार के कुछ मंत्रियों के घोटालों का लगातार खुलना, लुंज-पुंज भाजपा का संसदीय काम-काज में रोड़े अटकाऊ विरोध, जनता में कांग्रेसनीत केन्द्र की सरकार से उठता भरोसा, इसी बीच स्थानीय मुद्दों पर महाराष्ट्र के आन्दोलनकर्ताभोले और विचारहीन अन्ना हजारे का दिल्ली आना और 5 अप्रेल, 2011 के दिन भ्रष्टाचार के विरोध में अनशन पर बैठना। इसी दिन उनके समर्थन में पूरे देश में कई स्थानों पर गिने-चुने ही सही, लोगों का एक दिन के सांकेतिक अनशन पर बैठना। भ्रष्टाचार से त्रस्त जनता का अन्ना हजारे को लगातार बढ़ता समर्थन और योगधंधी रामदेव का भी ऐसे माहौल का अपने धंधे में लाभ उठाने की नीयत से सक्रिय होना। इस माहौल को संभालने के लिए कांग्रेस की ओर से अनाड़ी नेताओं को सक्रिय किए जाने से माहौल लगातार और बिगड़ता गया। जिस संप्रग की पहली गठबंधन सरकार ने आंतरिक उठापठक के बावजूद जनता में अपनी साख बनाए रखी और 2009 का चुनाव पुन: जीत लिया वही संप्रग-दो सरकार बनने के साथ ही साख के मामले में हिचकोले खाने लगी। लोग विचारहीन अन्ना में उम्मीदें देखने लगे, डेढ़ वर्ष ऐसे ही असंतोष में बीता, इसी बीच 2012 की 16 दिसम्बर की रात दिल्ली में एक युवती के साथ हुई सामूहिक बलात्कार की घटना ने जैसे जनता के इस रोष की आग में घी का काम किया। दो वर्षों से लगातार साख खोती केन्द्र सरकार और कांग्रेस नेतृत्व को इसे संभालने में असफल होते देख प्रमुख विपक्षी दल भाजपा इस अवसर का लाभ-उठाने को बड़ा निर्णय करते हुए और भ्रमित करने में माहिर नरेन्द्र मोदी पर दावं खेलती है।
नेहरू-गांधी परिवार पर आश्रित हो चुकी कांग्रेस ने राहुल गांधी के नेतृत्व को फिलहाल नियति मान लिया है। ऐसी परिस्थितियों में अच्छी-भली साख से सरकार चलाने वाले राजस्थान के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत के नेतृत्व में कांग्रेस को 2013 के विधानसभा चुनावों में शर्मनाक हार देखनी पड़ी। वहीं 2014 के लोकसभा चुनावों में ऐतिहासिक हार के बाद कांग्रेस लोकसभा में मात्र चवालिस सांसदों पर आ अटकी।
इस आलेख में इस लंबी-चौड़ी प्रस्तावना का आशय ये बताना भर है कि राजस्थान की वर्तमान वसुंधरा सरकार की साख भी प्रकारान्तर से वैसी ही है जैसी 2011-12 में केन्द्र में संप्रग-दो की सरकार की थी। राजस्थान में शासन नाम की कोई व्यवस्था दिखाई नहीं दे रही। दूसरे तो दूर की बात, खुद सत्तारूढ़ पार्टी के विधायक और मंत्रियों तक को मुख्यमंत्री समय नहीं देतीं। जिस भ्रष्टाचार के मुख्य मुद्दे का लाभ झपट कर केन्द्र और कुछ प्रदेशों में भाजपा सत्तारूढ़ हुई, वह भ्रष्टाचार अब दुगुना इसलिए नजर आने लगा कि सरकारी कामकाज करवाने की रिश्वत की दरें इस राज में पिछले राज से लगभग दुगुनी होने की जानकारी जब-तब मिलती ही रहती है। अलावा इसके अपनी पार्टी आलाकमान से उपेक्षित हो अनमनी हो चुकी सूबे की मुखिया प्रदेश के किसी भी जरूरी मुद्दे पर ध्यान नहीं दे पा रही हैं।
इस सरकार के खिलाफ जन असंतोष का लाभ उठाने के वास्ते प्रमुख विपक्षी दल कांग्रेस यदि अन्ना आन्दोलन और निर्भया कांड जैसी 2012-13 में भाजपा को मिली अनुकूलताओं का इंतजार कर रही है तो वह भारी भ्रम में है। वैसी अनुकूलता व्यावहारिक राजनीति में कभी-कभार ही मिलती है।
ऐसी परिस्थितियों में जब कांग्रेस आलाकमान केवल अनाड़ी राहुल के प्रयोगों में लगी है, उसे समाप्त होते देर नहीं लगनी है। उत्तरप्रदेश के चुनावों के परिणाम कांग्रेस के अनुकूल होते नहीं दिख रहे हैं। उत्तरप्रदेश में कांग्रेस यदि प्रियंका गांधी को मुख्यमंत्री के तौर पर प्रोजेक्ट करती तो हो सकता था कि वह कुछ चमत्कार सा कर गुजरती। फिलहाल जो कांग्रेस नेहरू-गांधी वारिसों की बैसाखियों के बिना पंगु है, उसमें इसके अलावा कुछ कल्पना दिवास्वप्न से ज्यादा कुछ नहीं।
यह विषयान्तर नहीं लेकिन बीच में एक संदर्भ का जिक्र करना जरूरी है। हिन्दुस्तान टाइम्स के सम्पादक अप्पू एस्थोस सुरेश ने पिछले सप्ताह एनडीटीवी इंडिया के प्राइम टाइम में अपनी उस रिपोर्ट का जिक्र किया जिसमें वे बताते हैं कि जून, 2013 से अब तक केवल उत्तरप्रदेश में ही दस हजार से ज्यादा सांप्रदायिक दंगे ऑन रिकार्ड हुए हैं। इन दंगों के रिकॉर्ड में एक और जो भिन्नता है वह यह कि दंगों के इतिहास से भिन्न इनमें से अधिकांश घटनाएं ग्रामीण इलाकों की हैं, जबकि अब तक के दंगों का इतिहास बताता है कि पूर्व के अधिकांश दंगे शहरी क्षेत्रों में ही होते रहे हैं। इस रिपोर्ट का मकसद यह बताना भर है कि चुनावी लाभ उठाने के वास्ते देश की तासीर को किस खतरनाक तरीके से बदला जा रहा है इस भयावहता से बेफिक्री देश के लिए खतरनाक हो सकती है। क्या गारंटी है कि वोटों के लिए ऐसे ही धु्रवीकरण से राजस्थान, अन्य प्रदेश और फिर पूरा देश बचा रह सकेगा। ऐसी करतूतें जिस तरह बेधड़क होने लगी हैं, इससे यही लगता है कि देश को बुरे दौर में झोंका जा रहा है।
प्रदेश के संवेदनशील लोग और नेतृत्व करने वाले सचेत नहीं हुए तो ऐसी करतूतों के लिए उत्तरप्रदेश के बाद जिन प्रदेशों की बारी आने वाली है उनमें राजस्थान का नम्बर पहले लग सकता है। यहां 2018 में विधानसभा चुनाव होने हैं और सूबे की वर्तमान सरकार की साख वैसी बन नहीं पा रही है कि अगला चुनाव आसानी से जीता जा सके। कांग्रेस आलाकमान को यह सब देखने की समझ ही जब नहीं है तो उससे लाभ उठाने के उपाय वह क्या करेगी? जबकि तीसरी ताकत के अभाव में प्रदेश को ऐसी भयावह परिस्थितियों से बचाने की उम्मीदें सिर्फ कांग्रेस पर टिकती हैं। न तो कांग्रेस के वर्तमान प्रदेश प्रभारी में कोई कूवत दिखाई देती और ना ही प्रदेश अध्यक्ष में। सचिन जब टीवी बहसों में आते थे तो संजीदा और समझदार लगते थे लेकिन जनता में भरोसा जमाने में वे असफल होते दिख रहे हैं। सचिन गुर्जर समुदाय से आते हैं, प्रदेश में गुर्जर आरक्षण उद्वेलन के चलते गुर्जरों के काउण्टर समुदाय की छाप हासिल कर चुका मीणा समुदाय भावी मुख्यमंत्री के तौर पर सचिन पायलट पर कोई भरोसा नहीं करेगा। ऐसे में जिस सीमित क्षेत्र में सचिन कुछ हासिल कर सकने की स्थिति में हैं वहां भी उनकी सफलता संदिग्ध दिखती है। वहीं प्रदेश के शेष हिस्से में सम्पर्क बनाने का आत्मविश्वास तक वे इन दो वर्षों में हासिल नहीं कर पाए हैं। ऊपर से मुकुट पहनने और भेंट में तलवारें लेने के सामन्ती प्रतीकों में उनका विश्वास अलग छवि बनाता है। ऐसी ही सब बातें यदि कांग्रेस आलाकमान के समझ में नहीं आ रही हैं तो उसके लिए अल्लामा इकबाल का यह शेर नजर करना मोजूं लगता है।
मुझे रोकेगा तू ए नाखुदा क्या गर्क होने से
कि जिसे डूबना हो, डूब जाते हैं सफीनों में
ऐसे में अब अशोक गहलोत पर है कि वे डूबने वालों के साथ रहते हैं या बड़ा निर्णय कर उन्हें अपनी अलग नाव की व्यवस्था करनी है। क्योंकि वह नाव केवल उनकी नाव ही नहीं होगी, उस नाव को उन मानवीय मूल्यों की संवाहक होना है जिन्हें योजनागत तरीके से ताक पर रखकर देश की तासीर बदलने की कोशिशें बेधड़क परवान चढ़ाई जा रही है।
अब जब अगले चुनावों में लगभग दो वर्ष ही शेष बचे हैं। यही समय है कि गहलोत को पार्टी अध्यक्ष सोनिया गांधी से दो टूक बात कर इस निर्णय पर पहुंचना चाहिए कि उन्हें अपनी अलग कांग्रेस बनानी है या नहीं। राहुल गांधी प्रदेश संगठन को लेकर जिस तरह के निर्णय कर रहे हैं या प्रदेश अध्यक्ष को करने की छूट दे रहे हैं उससे नहीं लगता कि राहुल से उन्हें कोई उम्मीदें रखनी चाहिए। समय कम रहा तो नवगठित कांग्रेस पार्टी को चुनाव आयोग से औपचारिक मान्यता भी नहीं मिलेगी।
रही बात असली-नकली पार्टी की तो असली पार्टी साबित वही होती है जिसे जनता मान्यता देती है। उदाहरण कई गिनाए जा सकते हैं। दो बार तो कांग्रेस के ही उदाहरण हैं, देश की जनता ने दोनों बार इन्दिरा गांधी के नेतृत्व वाली कांग्रेस को ही असली माना था। ऐसे ही एमजी रामचन्द्रन के बाद तमिलनाडु की जनता ने जयललिता वाली एआइएडीएमके (ऑल इंडिया अन्ना द्रविड़ मुनेत्र कडग़म) को ही असली माना, ना कि उनकी पत्नी जानकी रामचन्द्रन की एआइएडीएमके को। वहीं आन्ध्रप्रदेश में एनटी रामाराव के बाद वहां की जनता ने उनकी पत्नी लक्ष्मी पार्वती की तेलगुदेशम पार्टी को खारिज करने में देर नहीं लगाई और एनटी रामाराव के विरोधी हो लिए दामाद चन्द्रबाबू नायडू की तेलगुदेशम को असली माना। राजस्थान में भी फिलहाल ऐसी परिस्थितियां लगती हैं कि जनता असली कांग्रेस उसे ही मानेगी जिसका नेतृत्व अशोक गहलोत करेंगे।

27 अक्टूबर, 2016

Thursday, October 20, 2016

रोटरी क्लब के आयोजन के बहाने कुछ यूं ही और कुछ राजस्थानी पर

अक्टूबर की 19 और 20 तारीख को रोटरी क्लब की ओर से राजस्थानी भाषा पुरस्कार समारोह आयोजित किया जा रहा है। चार विभिन्न परिवारों के प्रायोजन से राजस्थानी में सृजनरत तीन लेखकों और एक शोधार्थी को तय राशि और विभिन्न औपचारिकताओं के साथ सम्मानित किया जायेगा। सृजनात्मक विधाओं के ऐसे सामाजिक संज्ञान के लिए प्रायोजक परिवार धन्यवादी इसलिए भी हैं कि उन्होंने अपने अर्जित में से विसर्जन के लिए सृजनात्मक विधाओं को चुना है।

जैसी कि जानकारी है कि इन पुरस्कारों के चयन प्रक्रिया की शुरुआत सृजक के आवेदन से होती है। यदि सचमुच ऐसा है तो भविष्य में प्रक्रिया की इस अशालीन शुरुआत से बचना चाहिए। चाहें तो साहित्य अकादमी, दिल्ली की चयन प्रक्रिया को कुछ पेचीदगियों को छोड़ अपनाया जा सकता है। अलावा इसके इस बार तीन पुरस्कार राजस्थानी साहित्यकारों और एक राजस्थान के शोधार्थी को दिया जा रहा है। आगे से इसमें यह हो सकता है कि साहित्यकारों को दिए जाने वाले तीन में से एक पुरस्कार अन्य सृजनात्मक विधाओं के लिए और एक भाषा पर विशेष काम करने वाले को दिया जाय। बल्कि सर्वोच्च सम्मान राजस्थानी भाषा के लिए उल्लेखनीय काम करने वाले सृजक को ही दिया जाना चाहिए। साहित्यकारों के लिए राजस्थानी में पुरस्कार पहले से ही इतने हैं कि हिन्दी को छोड़ दें तो किसी भी अन्य भारतीय भाषा के साहित्कारों के लिए शायद ही हो। राजस्थानी को भाषा के रूप में प्रतिष्ठ करने का कोई महत्ती काम इस कालखण्ड में हो रहा है तो प्रकाश में नहीं है। यदि नहीं हो रहा है तो उसके लिए साहित्य अकादेमी, दिल्ली की राजस्थानी समिति, सूबे की राजस्थानी भाषा, साहित्य एवं संस्कृति अकादमी और राजस्थानी के नाम पर चल रही अन्य अनेक संस्थाएं भी कम जिम्मेदार नहीं हैं। खैर, चर्चा का यह दूसरा मुद्दा है जिन पर विस्तार से बातें पहले भी की जा चुकी हैं।

इस आयोजन के पुरस्कार प्रदान सत्र में मुख्य और विशिष्ट अतिथियों के तौर पर रियासतकालीन जोधपुर के शासकों के उत्तराधिकारी दम्पती को बुलाया गया है। इन्हें बुलाए जाने पर कोई ऐतराज भला क्यों करेगा। यह आयोजकों के निजी विवेक का मसला है, वे चाहे जिन्हें आमंत्रित करें। खटकने वाली बात निमन्त्रण पत्र में उन्हें दिए गए सम्बोधनों से है। हिज हाइनेस महाराजा और हर हाइनेस महारानी जैसे सम्बोधन बीते युग की बात हो गए हैं। आश्चर्य की वजह यह भी है कि यह क्लब संस्कृति जिस पश्चिम से आई, उसी पश्चिम से शेष दुनिया तक आधुनिक दौर की लोकतांत्रिक बयार भी पहुंची है, बावजूद इसके इन क्लबों के आयोजनों में लोकतांत्रिक मूल्यों का कोई ख्याल नहीं रखा जा रहा। तथ्यों पर गौर करें तो अपने देश में ही राष्ट्रपति और राज्यपालों के लिए महामहिम जैसे सामन्ती सम्बोधन वर्जित कर दिए गए हैं। ऐसे में इस तरह के हास्यास्पद और चापलूस सम्बोधनों से आयोजक बचते तो ज्यादा गरिमामय होता। जिन्हें तब सेठ कहकर सम्बोधित किया जाता था उनके लिए  इस निमंत्रण पत्र में उद्योगपति और समाजसेवी जैसे संबोधन काम में लिए ही गये हैं। देश को आजाद हुए सत्तर वर्ष हो रहे हैं, नहीं जानता हमारा यह तथाकथित पढ़ा-लिखा और समृद्ध समाज गुलामी की इस तरह की खुमारियों से कब मुक्त होगा।

इसी तरह आयोजन के निमन्त्रण पत्र में पदनाम परिचय के साथ दो विशिष्ट व्यक्तियों को जिस तरह 'फिट' किया गया है उससे साफ लगता है कि क्षेत्र के दो बड़े अखबारों के प्रभारी संपादकों को तुष्ट केवल इसलिए किया जा रहा है कि आयोजन को पूरा कवरेज मिल सके। आयोजक चाहते तो कार्ड में इनके पदनाम ना देकर इनकी निजी सृजनात्मक और पत्रकारीय उपलब्धियों पर आधारित विशेषण देने की चतुराई बरत सकते थे, जो उल्लेखित महानुभावों ने अर्जित कर ही रखी है। वैसे भी किसी महत्त्वपूर्ण आयोजन की व्यवस्थित विज्ञप्ति यदि मीडिया तक पहुंचती है तो उसे सामान्यत: प्रकाशित-प्रसारित किया ही जाता है। हां, यह जरूर है कि डेस्क संभालने वाला या प्रभारी संपादक का आयोजन से कोई निजी दुराग्रह नहीं हो। इस दूसरे उल्लेख से समाज के मोजिजों को आगाह करने का आग्रह बस इतना ही है कि पत्रकार-पेशेवरों के तालवे में गुड़ चिपकाने से परहेज करना चाहिए। समाज में जब टोका-टोकी और आलोचना सामान्यत: गायब होती जा रही है, ऐसे में मीडिया मालिकों के पूर्ण व्यावसायीकारण के बावजूद पत्रकारीय पेशे में जो आलोचक भाव थोड़ा-बहुत बचा है, उसे बचाए रखने की जिम्मेदारी इस समाज की भी है। अन्यथा सभी एक-दूसरे को चाटने में लग गये तो स्वाद बताने वाला ही नहीं मिलेगा। समाज में मिनखों की समझ को बचाए रखना अब ज्यादा जरूरी लगने लगा है।

यह आलेख जब तक लोगों की नजरों में आयेगा तब तक यह आयोजन लगभग पूर्ण हो लेगा। इसलिए यह मान लेना व्यक्तिगत संतोष की ही बात है कि रंग में भंग डालने के आरोप से तो बच ही गया होऊंगा।

20 अक्टूबर, 2016

Thursday, October 13, 2016

कांग्रेस : बींद रे मूंडे सूं लार पड़े तो जानी बापड़ा कांई करे

इसी 13-14 अक्टूबर को प्रदेश कांग्रेस के शीर्ष नेता बीकानेर में हैं। प्रदेश कार्य समिति की बैठक और सेवादल का प्रदेश सम्मेलन जैसे कार्यक्रम बीकानेर में रखे गये हैं। दरअसल कांग्रेस की फिलहाल स्थिति वैसी है जैसी लोक में प्रचलित कैबत के हवाले से उक्त शीर्षक में बताई गई है।
पार्टी की राष्ट्रीय अध्यक्ष सोनिया गांधी को इतनी समझ है कि पार्टी हित में उन्हें किस तरह के लोगों की सलाह पर चलना है। अस्वस्थता के चलते सोनिया लम्बे समय से पार्टी की नीति निर्धारण प्रक्रिया से लगभग अलग हैं। ऐसे में पार्टी की कमान उपाध्यक्ष राहुल गांधी के हाथ ही है। पिछले चालीस वर्षों से बजाय लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं के वंशानुगतता से ग्रसित कांग्रेस की इस समय सबसे बड़ी प्रतिकूलता यही है कि उसे विरासत में मिले राहुल गांधी को ना व्यावहारिक राजनीति की समझ है और ना ही लोक के मिजाज की। ऐसे में उनसे यह उम्मीद करना ज्यादती होगी कि पार्टी में ऐसे लोगों को पहचानने की समझ उनमें होगी जिससे पार्टी के हित साधे जा सकें। देश हित की बात तो दूर की है। यही वजह है कि पार्टी के वे सब नेता निष्क्रय हैं जो विपक्ष की भूमिका संजीदगी से निभा सकें। भाजपा सरकारों की अकर्मण्यता, आवाम के खिलाफ उनकी करतूतों और देश की तासीर को बदलने की हरकतों और बयानों का सटीक तरीके से जवाब देने और उघाडऩे जैसी सक्रियता के मामले में कांग्रेस का वर्तमान नेतृत्व और उसके प्रवक्ता पूरी तरह असफल हैं।
देशीय फलक पर देखें तो लोकतांत्रिक प्रक्रियाएं इस समय उस दोराहे के केन्द्र बिन्दु पर ठिठकी हुई हैं जिस पर भाजपा और कांग्रेस जैसी दोनों राष्ट्रीय पार्टियां लौट कर आ ठहरती हैं। तीसरे विकल्प की ना उम्मीदी की ऐसी पस्थितियों में विकास के मुद्दे पर शासन में आई भाजपा देश की तासीर के उलट जहां संकीर्णता के असल ऐजेन्डे को लागू करने जुटी है वहीं कांग्रेस राहुल गांधी के नाकारा नेतृत्व में लोकतांत्रिक व्यवस्था में जरूरी विवेकी और मजबूत विपक्ष की भूमिका में कहीं नजर नहीं आ रही। कांग्रेस से ऐसी उम्मीदें तब दूर की कौड़ी लगने लगी जब वह अपने अस्तित्व को बचाए रखने तक के लिए तर्कसंगत व्यवहारिक राजनीति करती भी नजर नहीं आई।
भाजपा जिसे अब मोदी पार्टी कहना ही उचित होगाजिन वादों और उम्मीदों के बूते सत्ता में आई उन पर खरी उतरना तो दूर की बात, उन्हें पूरा करने की कोशिश करती भी नजर नहीं आती। मोदी सरकार ने अब तक जो किया उसे पिछली सरकार के समय की अपनी करतूतों को धोना ही कहा जायेगा। जिन-जिन विधेयकों का संपं्रग की सरकार पर्याप्त बहुमत के अभाव तथा भाजपा के नकारात्मक रवैये के चलते पारित न करवा पायी उन्हें इस राज में पारित करवाने को भाजपा उपलब्धियों माने तो भले ही माने। इस उल्लेख के ये मानी कतई नहीं कि वे सारे विधेयक कांग्रेस भी अवाम हित में लाई हो। अलावा इसके वर्तमान सरकार ने पिछली सरकार की फ्लैगशिप योजनाओं को नाम बदल कर पुन: प्रस्तुत इस तरह किया मानों अब सचमुच उन पर पर्याप्त अमल होगा। लेकिन जनधन, सब्सिडी का खातों में सीधा ट्रांसफर, स्वच्छ भारत को बदले नाम से और मनरेगा तथा आधार जैसी योजनाओं का नाम भले ही ना बदला हो, इन सब का हश्र क्या हुआ, जानना ज्यादा मुश्किल नहीं है। भाजपा के शासन के बाद देश में किसानों की आत्महत्याओं और स्त्रियों के साथ दुष्कर्मों में बढ़ोतरी, सरकारी कार्यों के लिए रिश्वत की दरें लगभग दोगुनी होना और महंगाई से कोई राहत ना मिलना भाजपा सरकारों के शासनिक और प्रशासनिक निकम्मेपन की बानगियां हैं। मोदी और अमित शाह के चहेते औद्योगिक घरानों को फलने-फूलने की भारी अनुकूलताएं देना जैसे मुद्दे हैं जिन पर कांग्रेस या अन्य विपक्ष शासन पर दबाव बना सकता है। लेकिन इन सब पर कांग्रेस सहित विपक्ष की चुप्पी यह सन्देश देने के लिए पर्याप्त है कि वे भी ऐसा ही चाहते रहे हैं लेकिन उनमें यह सब बेधड़क करने का साहस नहीं है। यह भी कि सामाजिक समरसता वाली देश की तासीर को बदलने के कुत्सित प्रयासों में इस शासन में जिस तरह बढ़ोतरी हुई, ऐसी करतूतों पर भी कांग्रेस और अन्य विपक्ष की चुप्पी उनके असल चरित्र पर संदेह पैदा करती है।
ऐसा नहीं है कि कांग्रेस के पास ऐसे नेता और प्रवक्ता नहीं हैं जो सशक्त, तार्किक और विवेकमयी विपक्ष की भूमिका निभा सकें बल्कि राहुल गांधी जैसे नेता के पास वैसे पार्टीजनों को पहचानने की कुव्वत ही नहीं। कांग्रेस को डूबते देखना लोकतांत्रिक मूल्यों का क्षरण इसलिए कह सकते हैं कि ऐसी शासन प्रणालियों में विपक्ष की भूमिका भी कम महत्त्वपूर्ण नहीं होती।
राहुल गांधी यदि कांग्रेस पार्टी की मजबूरी हैं तो कांग्रेस को गर्त में जाने से कोई नहीं रोक सकेगा। हां, यह बात अलग है कि देश वर्तमान शासन की करतूतों से भी गले तक वैसे ही धाप जाए जैसे 2013-14 के चुनावों में कांग्रेस से धापा हुआ था और मोदी जैसे नेता के भ्रमों में आ जाए। वैसी ही मजबूरी में अगले चुनावों में जनता यदि राहुल गांधी के अधकचरे नेतृत्व में कांग्रेस को फिर चुन लेगी तो उसे आदर्श विकल्प ठीक वैसे ही नहीं कहा जायेगा जैसे वर्तमान में मोदी सरकार को नहीं कहा जा सकता।
गेंद अब जनता के पाले में है। ऐसे में उसे या तो कोई तीसरा विकल्प खड़ा करना होगा, तीसरा विकल्प यदि नहीं दिखता है तो 'नोटा' का प्रयोग कर दोनों को नकारना होगा। लोकतांत्रिक मूल्यों को स्थापित करने का रास्ता इसी से होकर निकलेगा, समय भले ही लगे। अन्यथा देश जिन परिस्थितियों को भुगत रहा है, उससे भी ज्यादा भयावहता सामने आएगी जिन्हें भी भुगतने के अतिरिक्त कोई चारा नहीं होगा।

13 अक्टूबर, 2016

Sunday, October 2, 2016

'उगे मौन के जंगलों में सहमा हुआ खो गया है'

साहित्य, संगीत और कला जैसी विधाओं के किसी सृजनकार की स्मृतियों को सार्वजनिक कर किसी शहर के बाशिन्दे अपने सुसंस्कृत होने की भले ही पुष्टि करते हों लेकिन सच यह है कि हरीश भादानी के बाद उनकी कही उक्त शीर्षक पंक्तियों को पुष्ट करते हुए यह शहर मौन का जंगल हो गया है।
पिछली सदी के सातवें, आठवें और नवें दशक में अपने लोक में सक्रिय साहित्यकार हरीश भादानी के सृजन के समग्र प्रकाशन के अवसर पर आयोजित कार्यक्रम उनकी स्मृतियों को साझा करने का अवसर दे रहा है। देश के साहित्यिक लोक में विचरण करने वालों को बीकानेर के संदर्भ से यहां के जो व्यक्तित्व गौरवी-भान करवाते रहे हैं उनमें हरीश भादानी, यादवेन्द्र शर्मा 'चन्द्र' और नन्दकिशोर आचार्य विशेष उल्लेखनीय हैं। इनके साहित्यिक अवदान पर लिखना मेरे बूते से बाहर है। चूंकि पिछले लगभग पांच दशकों से स्थानीय लोक का मैं सक्रिय हिस्सा रहा हूं तो इस आलेख में भादानी की लोकवी भूमिका का जिक्र करने का साहस जरूर कर सकता हूं।
सातवें और आठवें दशक में जिला प्रशासन की ओर से जिला जन सम्पर्क कार्यालय के माध्यम से स्वतंत्रता और गणतंत्र दिवस की पूर्व संध्याओं पर कवि सम्मेलन और मुशायरों का आयोजन हुआ करता था। इस तरह के आयोजनों में तब श्रोताओं की ठीक-ठाक उपस्थिति हुआ करती थी। युवा होते रसिक प्रशिक्षुओं के लिए ऐसे अवसर विशेष प्रशिक्षण के होते थे। तब जिन कवियों-गीतकारों को सुनना अच्छा लगता था उनमें हरीश भादानी भी एक थे।
भादानी अवाम में सीधे हस्तक्षेप करने और उसे जगाए रखने की खैचल में लगे रहने वाले साहित्यकार थे। होली के दिनों में अश्लील गीतों को बनाने और उन्हें लोकप्रिय धुनों पर सार्वजनिक तौर पर सुनने का रिवाज यहां लम्बे समय से रहा है। सुसंस्कृत लोग इसे अनुचित मानते रहे हैं। ऐसी प्रवृत्तियों को काउण्टर करने के लिए 1970 के इर्द-गिर्द बीकानेर के कवियों, गीतकारों ने भादानी की अगुवाई में टोली बनाई। चार पहियों के हाथगाड़े पर लाउडस्पीकर की व्यवस्था कर शहर की गली-गवाड़ और चौकों में वे स्वयं के रचे गीतों और कविताओं को गाकर सुनाते थे। तब यह प्रयोग न केवल लोकप्रिय हुआ बल्कि शहर से बाहर भी चर्चा में रहा।
भादानी के कई गीत और कविताएं व्यवस्था विरोधी और अवाम की खैरख्वाही वाले रहे हैं। सभी जानते हैं तब केन्द्र और राज्य—दोनों जगह शासन कांग्रेस का हुआ करता था। वामपंथी हो लिए भादानी चुनावों में अपनी विचारधारा वाले उम्मीदवारों की सभाओं में गीत और कविताएं पहले भी सुनाते रहे लेकिन आपातकाल के बाद 1977 के लोकसभा और विधानसभा चुनावों में जनता पार्टी की सभाओं में भादानी अपने गीतों से श्रोताओं को मचलने को मजबूर कर देते थे। उस दौर में भादानी के 'मरजी राज जासी, लोकराज आसी' और 'रोटी नाम सत है कि खाए से मुकत है' जैसे गीत लोकतंत्र के प्रति अवाम की हुलस को पुष्ट करते देखे गये। साहित्य, कला और संस्कृति-कर्मियों का सीधा जनजुड़ाव तब के बाद यहां नहीं देखा गया। पिछले लगभग बीस-पचीस वर्षों से तो यह सून खलने भी लगी है।
उस दौर में वैचारिक सहिष्णुता थी, विरोध में बात करने वाले साहित्यकारों और संस्कृतिकर्मियों को भी सत्ता और राजनीतिक दलों द्वारा मान दिया जाता था। यही वजह है कि 'लोकराज कत्तई नहीं वह, देह धंसे कुर्सी में जाकर, राज नहीं है कागज ऊपर एक हाथ से चिड़ी बिठाना' जैसी पंक्तियां लिखने वाले भादानी को तब के शासक वर्ग के लोग पूरा मान देते थे।
पिछली सदी के सातवें-आठवें दशक में देश के साहित्यिक लोक में चर्चित 'वातायन' पत्रिका का सम्पादन हरीश भादानी ही करते थे। वातायन के उस दौर में यहां महात्मा गांधी रोड स्थित 5, डागा बिल्डिंग, वैचारिक उद्वेलन का केन्द्र था। तब साम्यवाद, समाजवाद और एमएन राय के नवमानववाद पर मनीषी डॉ. छगन मोहता के सान्निध्य में गंभीर चर्चाएं होती। ऐसी चर्चाओं में तब मानिकचन्द सुराना जैसे लोगों की पूरी सक्रियता रहती थी। राजनीतिक-सामाजिक और साहित्यिक चर्चाओं के उस माहौल से यह शहर पिछले तीन दशकों से ज्यादा समय से वंचित है। कहने को सांस्कृतिक आयोजन बढ़े हैं लेकिन आयोजनों में विमर्श नदारद है। डॉ. छगन मोहता होते तो कहते—केवल पानी बिलोया जा रहा है, जिससे हासिल कुछ नहीं होना।
'वातायन' के मुद्रण में आ रही समस्याओं से निपटने के वास्ते भादानी ने राजश्री प्रिंटर्स नाम से प्रिंटिंग प्रेस भी चलाया, शहर में जिसकी अपनी साख थी। तब भादानी को अपने प्रेस परिसर में प्रिंटिंग ब्लॉक के बराबर मोटाई वाले लकड़ी के फट्टे पर सुथारी औजारों से आकृतियां उकेरते देख सकते थे। इन्हीं आकृतियों को वे ब्लॉक की जगह काम लेकर पत्र-पत्रिकाओं के आवरण पर विभिन्न रंगों में छपवाते थे।
भादानी का ऐसा ही एक पक्ष ओर था। वामपंथी लेखकों और संस्कृतिकर्मियों की सामान्य छवियों से उलट साफ-सुथरे रहने वाले भादानी का 'ड्रेस सेंस' गजब का था, उनके कुर्ते, जैकेट, पजामे विशिष्ट प्रकार के होते। यानी वे केवल शब्दों को ही नहीं संवारते बल्कि रोजमर्रा की अपनी जरूरतों में काम आने वाली वस्तुओं के साथ भी नये-नये प्रयोग करते। बहुधा तो शॉल, चद्दरों आदि से कुर्ते-जैकेट बनवाने के लिए अपना डिजायन वे खुद बताते और कपड़े सिलने वाले कारीगर से सिलवा लेते। भादानी रसोई में भी हाथ आजमाते, सब्जियों को नये-नये तरीकों से बनाते और बेहद स्वादिष्ट बनाते। यही नहीं, कई बार उनकी पहनी चप्पल और चश्मे का फ्रेम भी ध्यान खींचे बिना नहीं रहते।
हरीश भादानी समग्र के प्रकाशन के इस अवसर पर प्रकाशक से संबंधित एक प्रकरण साझा करना जरूरी है। पिछली सदी के आठवें दशक की बात है, राजस्थान विश्वविद्यालय के प्रथम वर्ष, सामान्य हिन्दी की एक पाठ्यपुस्तक 'समवेत' में भादानी की दो कविताएं शामिल की गईं। पुस्तक के सम्पादक भादानी की उदारता से परिचित थे इसलिए स्वीकृति की तो दूर की बात, कविताओं को उन्होंने संग्रह में बिना पूछे ही शामिल कर लिया। इसकी जानकारी भादानी से पहले नन्दकिशोर आचार्य को हो गई, पूछने पर भादानी ने अनभिज्ञता जताई। फिर क्या, आचार्य ने प्रकाशक पर कार्यवाही करने के अधिकार भादानी से मौखिक ही ले लिए और देश के उस नामी प्रकाशन की मालकिन के खिलाफ न्यायालय में इस्तगासा लगवा दिया। वकील थे विजयसिंह एडवोकेट, जिन्होंने कांग्रेसी उम्मीदवार के तौर पर 1977 का विधानसभा चुनाव आरके दास गुप्ता के खिलाफ कोलायत से लड़ा।
जज साहब जब दूसरी-तीसरी तारीख देने को हुए तो विजयसिंह ने जज से निवेदन करते हुए कह दिया कि ये लोग मेरे मित्र हैं, हर तारीख को पांच-सात लोग कोर्ट आ धमकते हैं, फीस की बात तो छोडि़ए, कागज-पत्र तो घर से लगाता ही हूं, इनके चाय, कॉफी, नाश्ते की व्यवस्था भी मुझे ही करनी पड़ती है। जज ने निवेदन का संज्ञान लिया और प्रकाशक को नोटिस भेज दिया। सम्पादक तुरंत बीकानेर पहुंच गये। भादानी को संपादक से बात न करने को पाबन्द कर आचार्य ने खुद अपने को ही बात करने के लिए नियुक्त मान लिया। उस दौर में जब संपादक ने मानदेय के तौर पर दो कविताओं के पांच सौ रुपये भी किसी को नहीं दिए, आचार्य ने तब मानदेय के पांच हजार रुपये तय कर दिये। सम्पादक भादानी से चिरौरी करते रहे पर भादानी उनकी कोई सहायता न करने को लाचार। आखिर उन्हें भादानी को पांच हजार देने पड़े, रसीद पर हस्ताक्षर तो भादानी ने किए पर रुपए आचार्य ने यह कहते हुए ले लिए कि ये तो भाभी (भादानीजी की पत्नी) को दिए जाएंगे। भादानी असहाय होकर इतना ही कह पाए कि मेरी कविताएं हैं, इनमें से कुछ तो मुझे मिलने चाहिए। लेकिन उनकी सुनी नहीं गई।
अब अपनी बात करूं तो पत्रकार के रूप में शुरुआत में मेरी पहली और विस्तृत रिपोर्ट 1979 के जिस कार्यक्रम की 'मरुदीप' साप्ताहिक में छपी वह भादानी की काव्य पुस्तक 'नष्टो मोह' के लोकार्पण समारोह की थी। तब मरुदीप नन्दकिशोर आचार्य के सम्पादन में निकलता था। उस समय भादानी के साथ जो आत्मीय रिश्ता बना, अन्त तक कायम रहा।
---दीपचन्द सांखला 
1 अक्टूबर, 2016